सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अयोध्या मामले से जुड़े ऐसे मुद्दों को हमेशा के लिए बहस से बाहर कर दिया है, जो पिछले करीब डेढ़ सौ वर्षों से भारतीयों के बीच बने हुए थे। इन विषयों पर हिंदू-मुस्लिम पक्षकारों को सुनने के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट अपना निर्णय 2010 में दे चुकी थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जहां कई निर्णयों को बदला, वहीं कुछ में हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार भी रखा। पढ़िए ऐसे मुद्दों और उनके निष्कर्षों को जो अब हमारे बीच विवाद का विषय नहीं बनेंगे।
जब ढांचा बना था, तो किसके द्वारा और जमीन पर कब्जा किसका था?
संपत्ति पर कब्जे को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुस्लिम पक्षकार भीतरी अहाते पर कब्जा साबित नहीं कर पाए। कोर्ट के अनुसार यह अचल संपत्ति का विवाद है, जिसका निर्णय आस्था और विश्वास नहीं, साक्ष्य के आधार पर होता है। इसका साक्ष्य तो है कि बाहरी अहाते में 1857 में ग्रिल लगाए जाने के बावजूद हिंदू पूजा करते थे। इससे बाहरी अहाते में हिंदू पक्ष का दावा साबित होता है। वहीं भीतरी अहाते में भी संभव है कि अंग्रेजो द्वारा अवध के विलय के पहले तक हिंदू पूजा करते रहे हों। दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष ऐसा कोई साक्ष्य नहीं प्रस्तुत कर पाया कि मस्जिद बनने के बाद 1857 तक वहां केवल उन्हीं का कब्जा था।
ग्रिल लगाने के बाद मस्जिद का ढांचा मौजूद था, उसी परिसीमा में मुस्लिम नमाज पढ़ते थे। दिसंबर 1949 में वक्फ इंस्पेक्टर की रिपोर्ट बताती है कि मस्जिद में नमाज पढ़ने के दौरान व्यवधान पैदा किया गया। हालांकि नमाज फिर भी पढ़ी जाती रही। 16 दिसंबर 1949 को यहां आखिरी जुमे की नमाज पढ़ी गई। 22 दिसंबर 1949 को मूर्तियां रखी गईं और मुस्लिमों से कब्जा छिन गया। वहीं मामला लंबित रहने के ढांचा ढहा दिया गया।
क्या हिंदू पक्ष का दावा समय सीमा के काफी बाद किया गया था?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि परिसीमा अधिनियम के तहत समय सीमा के बाद की गई अपील की वजह से निर्मोही अखाड़े के दावे को नकारा जाता है, लेकिन सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के दावे को समय सीमा के भीतर मानते हुए इसे नकारने के हाईकोर्ट के आदेश को पलटा जाता है। वहीं, रामलला विराजमान के दावे के मामले में हाईकोर्ट के निर्णय को बरकरार रखते हुए कहा कि उनकी ओर से किया गया दावा समय सीमा के भीतर करार दिया जाता है।
हाईकोर्ट ने ये कहा था कि कानूनन, यदि कोई व्यक्ति छह साल के अंदर अपना दावा दाखिल नहीं करता है तो उसका संपत्ति पर अधिकार खत्म हो जाता है। हालांकि हाईकोर्ट के तीनों जजों ने इस पर सहमति जताई कि रामलला की ओर से दायर मामला समयावधि के अंदर था लेकिन वे इस बात से सहमत थे कि भले ही मुकदमा समय सीमा के भीतर न हो लेकिन नागरिक प्रक्रिया संहिता के लिए आवश्यक है कि अदालत किसी प्रारंभिक मुद्दे पर अपना निष्कर्ष निकालने के बावजूद सभी मामलों पर फैसला सुनाएं। निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड द्वारा दायर दो मुकदमों को समयावधि के बाद पाया गया।
1885 केस में भूमि पर कब्जे का क्या समाधान निकला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि महंत रघुबर दास ने 1885 में फैजाबाद के सब-जज के समक्ष किए मुकदमे में मस्जिद परिसर के भीतर मौजूद 17 गुणा 21 फीट के चबूतरे पर मंदिर बनाने की अनुमति मांगी थी, जहां चरण पादुका लगाई गई थीं और पूजी जा रही थीं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रघुबर दास ने स्वयं का उल्लेख महंत जन्मस्थान अयोध्या के रूप में किया, न कि ‘महंत निर्मोही अखाड़ा के रूप में। ऐसे में उस मुकदमे के पक्षकार अलग हैं। साथ ही मुकदमा जमीन पर दावे से नहीं, बल्कि जन्मस्थान पर मौजूद चबूतरे से संबंधित था। इस पर हुए निर्णय में मंदिर बनाने की अनुमति नहीं दी गई और 24 दिसंबर 1885 को मुकदमा और बाद में की गई अपीलें भी खारिज हुईं। इसे मालिकाना हक को लेकर किया गया दावा नहीं माना जा सकता।
प्रकटीकरण 22-23 दिसंबर 1949 की रात को ही हुआ
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के बहुमत से निकाले गए इस निष्कर्ष को माना कि भगवान की प्रतिमाएं 22 व 23 दिसंबर 1949 की रात रखी गईं। हाईकोर्ट ने अपने निर्णय को गवाहों के बयानों के आधार पर दिया था।
क्या मस्जिद का निर्माण प्राचीन हिंदू मंदिर की जगह पर किया गया?
सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा, इतिहास की व्याख्या का काम गड्ढों भरा है। ऐतिहासिक साक्ष्यों में अंतर है और अनुवाद भी अलग-अलग हैं। यह कानून बनाने जैसा काम नहीं है, बल्कि उसे अलग सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में रची लोककथाओं, कहानियों, परंपराओं और जनश्रुतियों के आधार पर ऐतिहासिक घटनाओं को देखना होता है।
कई दस्तावेजों को निर्णायक नहीं माना जा सकता। ऐसे में इतिहास जहां मौन है, वहां कानूनी रूप से प्रशिक्षित दिमाग वालों को भी सावधान रहना चाहिए। ऐसे मामलों में कभी-कभी मौन भी जरूरी होता है उसे मौन के ब्रह्मांड में ही रहने देना चाहिए।
क्या बाबरी मस्जिद वैध मस्जिद है ?
सुप्रीम कोर्ट ने माना मस्जिद को गिराना कानून का उल्लंघन था। कहा, 22 व 23 दिसंबर 1949 को मुसलमानों से मस्जिद ले ली गई और 6 दिसंबर 1992 को इसे ढहा दिया गया। मुसलमानों ने मस्जिद नहीं छोड़ी थी। इस गलती को सुधारने के लिए 1500 यार्ड (1371 मीटर) भूमि के बदले सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को अयोध्या में ही पांच एकड़ जमीन देने का केंद्र व राज्य सरकार को आदेश दिया गया।
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