चुनाव 2019: रविशंकर प्रसाद को बीजेपी इतनी तवज्जो क्यों देती है

 

राजनीति और वकालत- दोनों में चतुराई के साथ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए एक ऊँचे मुकाम तक पहुँच पाना बड़ा कठिन है.

आसान यह भी नहीं है कि कोई विश्वविद्यालय और उच्च न्यायालय से लेकर देश की सर्वोच्च अदालत और संसद तक एक प्रखर वक्ता के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान क़ायम कर ले.

लेकिन यह सब उस प्रतिभा के बूते संभव हुआ, जो 65 वर्षीय रवि शंकर प्रसाद के साथ उनके छात्र-जीवन से ही जुड़ी हुई है.

पटना के संभ्रांत कायस्थ परिवार में इनका जन्म हुआ और अधिवक्ता-सह-राजनेता के रूप में प्रतिष्ठित अपने पिता ठाकुर प्रसाद से इन्होंने वकालत और राजनीति की आरंभिक समझ हासिल की.

ठाकुर प्रसाद जनसंघ/बीजेपी की विचारधारा वाली तत्कालीन राजनीति में काफ़ी सक्रिय थे और एकबार राज्य सरकार में मंत्री भी रहे.

उनकी छह संतानों में से एक रवि शंकर प्रसाद ने ही अपने पिता की विरासत संभाली. इनकी पत्नी माया शंकर पटना यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफ़ेसर हैं. छोटी बहन अनुराधा प्रसाद जानी मानी टीवी जर्नलिस्ट हैं (न्यूज़ 24) और बेटा आदित्य वकालत के पेशे में.

प्रसाद के छात्र-जीवन को सियासी अंकुर देने वाला सबसे प्रमुख और उल्लेखनीय हिस्सा पटना विश्वविद्यालय में गुज़रा, जहाँ से इन्होंने राजनीति शास्त्र में बीए-ऑनर्स, लॉ-ग्रेजुएट और मास्टर डिग्री हासिल की.

पटना यूनिवर्सिटी के छात्र संघ और सीनेट से लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद तक के कई पद संभालते हुए इन्होंने छात्र-राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाई.

बिहार में सन 74 के छात्र आंदोलन/जेपी आंदोलन से जुड़े रह कर 1975 में आपातकाल के दौरान एक विरोध प्रदर्शन के समय गिरफ़्तार हुए रविशंकर प्रसाद की कांग्रेस विरोधी पहचान तभी से बनने लगी.

इन्होंने बतौर अधिवक्ता अपना करियर 1980 में पटना हाइ कोर्ट से शुरू किया और वहाँ लगभग दो दशक की प्रैक्टिस के बूते ‘सीनियर एडवोकेट’ के रूप में मान्य हो गए.

उसके बाद वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट के ‘सीनियर एडवोकेट’ नियुक्त होते ही इनकी गिनती जाने-माने अधिवक्ताओं में होने लगी.

यही वो दौर था, जब पहली बार इन्हें बीजेपी ने बिहार से राज्यसभा का सदस्य बनने का मौक़ा दिया.

इसके कुछ ही समय पहले, यानी 1996 में चारा घोटाले का भंडाफोड़ होने के बाद पटना हाइ कोर्ट में दायर पीआईएल के याचिकाकर्ताओं ने इन्हें अपना एडवोकेट नियुक्त किया था.

लालू प्रसाद यादव और अन्य के ख़िलाफ़ चले उस बहुचर्चित मुक़दमे में रवि शंकर प्रसाद ख़ूब चर्चित हुए.

1995 में ही रविशंकर प्रसाद को बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में बतौर सदस्य मनोनीत कर लिया गया था और तब से कई ‘हाई प्रोफ़ाइल’ मामलों में पार्टी उनसे मदद लेने लगी थी.

मतलब बीजेपी में अरुण जेटली के अलावा एक और क़ानूनी जानकार/सलाहकार की शक्ल में रवि शंकर प्रसाद उभरने लगे थे.

एक साल बाद 2001 में वाजपेयी मंत्रिमंडल में कोयला और खदान विभाग के राज्यमंत्री, 2002 में केंद्रीय क़ानून राज्यमंत्री और 2003 में केंद्रीय सूचना प्रसारण राज्यमंत्री बने रवि शंकर प्रसाद का सियासी क़द बढ़ने लगा.

फिर 2006 में इन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय प्रवक्ता बना कर बिहार से राज्यसभा की सदस्यता का दूसरा टर्म और 2012 में तीसरा टर्म उपलब्ध कराया गया.

इसी दौरान रविशंकर प्रसाद पार्टी के मुख्य प्रवक्ता और राष्ट्रीय महासचिव पद पर प्रोन्नत हुए. इतना ही नहीं, 2016 में तो इन्हें नरेंद्र मोदी सरकार में क़ानून मंत्री के अलावा इन्फ़ॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और इलेक्ट्रॉनिक्स महकमे का भी मंत्री बना दिया गया.

इतने चमकदार प्रोफ़ाइल के बावजूद रवि शंकर प्रसाद की सियासत पर एक सवाल अब तक चिपका रहा है.

सवाल है कि चुनावी मैदान में उतर कर सीधे लोगों के वोट से चुन कर लोकसभा पहुँचने जैसी लीडरशिप अबतक वो क्यों नहीं दिखा सके?

ख़ैर, देर आय दुरुस्त आय. मौक़ा आ गया है, जब रवि शंकर प्रसाद बिहार की शायद सबसे महत्त्वपूर्ण ‘पटना साहेब लोकसभा सीट’ के लिए बीजेपी के उम्मीदवार बन कर पहली बार चुनावी संघर्ष में उतरने जा रहे हैं.

मुक़ाबला ख़ासा रोचक और ज़ोरदार होने की संभावना इसलिए है क्योंकि बीजेपी से विद्रोह कर के कांग्रेस का प्रत्याशी बनने जा रहे शत्रुघ्न सिन्हा यहाँ रवि शंकर प्रसाद के प्रतिद्वंद्वी होंगे.

 

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