कृषि क्रांति और किसान नेतृत्व लेखक चौ महाराज सिंह भारती
प्रस्तुतकर्ता -: इंजी अलप भाई पटेल

वर्षा -: नदी, तालाब, सागर और पेड़ पौधों की पत्तियों से जो जल भाप बनकर हवा में मिल जाता हैं ठण्ड पारक वही भाप पानी बनती है। छोटे स्तर पर वह पानी ओस की बूंद होता है। जाड़ों में हमारे मुंह से निकली हवा के पानी को भाप के पानी में बदलता है और बड़ा रूप कोहरा है। उससे बड़ा रूप बादल और वर्षा है। अत्यधि‍ शक ठण्ड हवा के पानी को बर्फ अथवा ओले में बदल देती है। भारत में अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठी मानसूर हवाओं को हिमालय पर्वत रोक लेता है। हवायें ऊंची उठती हैं। सर्वाधिक वर्षा पूर्वोत्तर हिमालय में होती है। जैसे जैसे मानसून पश्चिम को जाता है। उसमें पानी की मात्रा घटती जाती है। लद्दाख में कोई वर्षा होती है। जाड़ों में भूमध्य सागर से उठी हुई भाष, पश्चिमी हवाओं के साथ ईराक-ईरान में वर्षा करती हुई काश्मीर और उत्तरी भारत में पहुंचती है। बंगाल की खाड़ी से उठा पानी, जाड़ों में केवल तमिलनाडु में भरपूर वर्षा करता है। हवा में पानी की कमी अथवा ठण्ड का अभाव, वर्षा का मात्रा को घटा देता है। जिस अनुपात में, पानी की मात्रा घट जायेगी अथवा हवा का तापमान बढ़ जायेगा, उसी अनुपात में, वर्षा कम होगी।

सूखा और बाढ़ -: पृथ्वी, सूर्य के चारों ओर, एक वर्ष में एक चक्कर लगाती है और स्वयं भी चौबीस घण्टे में चक्कर लगाती है। पृथ्वी सूर्य के सामने लगभग एक चौथाई झुकी हुई है। इसीलिये सूर्य की तेज धूप कभी उत्तरी गोलार्ध पर। यदि पृथ्वी झुकी हुई न होती तो पूरी पृथ्वी के हर स्थान का मौसम पूरे वर्ष एक सा होता। गर्मी होती या सर्दी परन्तु पूरे वर्ष वही एक मौसम करती है। एक ध्रुव पर छह महीने की रात होती है तो दूसरे ध्रुव पर छह महीने का दिन होता है। परन्तु सूर्य क्षितिज में, चौबीस घण्टे गोलाकार रूप में चक्कर काटता रहता है। वह ऊपर आकाश में ऊँचा नहीं उठता अतः छह मास का दिन भी ठण्डा ही होता है।

दक्षिण ध्रुव पर बहुत बड़ा महाद्वीप अंटार्कटिका है। भूमि होने के कारण वहां बर्फ की औसत ऊंचाई पन्द्रह सौ मीटर है। जब भारत में गर्मी होती है तो वहाँ घोर अंधेर वाला जाड़ा होता है। वहां से एक विशाल, अति ठण्डी जलधारा प्रशान्त महासागर में, दक्षिण अमरीका के समानान्तर उत्तर की दिशा में बहती है। विषुवत रेखा पर उत्तर दक्षिण के मध्य बहुत गर्मी पड़ती है। और विषुवत रेखा के दोनों ओर पश्चिम से पूर्व की ओर दो विशाल गरम आपस में टकराती है और तापमान को प्रभावित करती है। जब कभी प्रशान्त जल धारायें महासागर में हवा अधिक गरम होकर हल्की होकर ऊपर उठने लगती है तो उसका स्थान लेने के लिये हिन्द महासागर में, हवा अधिक गरम होकर हल्की होकर ऊपर उठने लगती है। तो उसका स्थान लेने के लिये, हिन्द महासागर की मानसून हवायें उधर को वह कर रिक्त •स्थान की पूर्ति करने लगती है।

जिस अनुपात में प्रशान्त सागर में, गरम हल्की हवाओं का क्षेत्र बन जायेगा, उसी अनुपात में, भारत का मानसून, प्रशान्त महासागर में चला जायेगा तथा उसी अनुपात में भारत में वर्षा कम होगी। ऐसी स्थिति गत 26 वर्षों में 21 बार हुई है और तब वर्षा में कम व अधिक कमी आई है। भारत में सूखा पड़ने का यह सबसे बड़ा कारण है। दूसरा कारण पश्चिम की हवायें हैं। मध्य एशिया से जब बहुत गरम हवायें बहुत ऊंचाई तक भारत में आ जाती हैं। तो उत्तर पश्चिम भारत के ऊपरी आकाश का तापमान अधिक हो जाता है। ठण्ड के अभाव में मानसून की भाप पानी नहीं बनती और सूखा पड़ जाता है। यदि मानसून की कमी और हवा में गर्मी दोनों एक साथ घट जायें तो उस वर्ष भयंकर सूख पड़ता है जैसे गत वर्ष 1987 में हुआ था।

पूर्वोत्तर हिमालय का विशाल, क्षेत्र का भारी वर्षा वाला पानी जब इकट्ठा होकर नदियों में चलता है तो उत्तर प्रदेश, बिहार, आसाम, बंगाल आदि में बाढ़ आ जाती है। कभी कभी गत वर्ष 1987 की भांति ऐसा भी होता है कि कम मानसून होते हुये भी, पश्चिमोत्तर के ऊपर आकाश की गरम हवायें, तीन चौथाई भारत पर वर्षा को रोककर उस पानी को पूर्वोत्तर हिमालय पर भेज देती है। जहां वह ठण्ड पाकर वर्षा करके बाढ़ लाता है। इस प्रकार ऐसी स्थिति पैदा होती है। कि अधिकांश भारत में सूखे द्वारा पूर्वोत्तर भारत में बाढ़ द्वारा अकाल की स्थिति पैदा होती है।

मौसम का भविष्य-: जब तक मानव ने, आग जलाना नहीं सीखा था और मानव भी शेष जानवरों की भांति कच्चा आहार करता था। तब तक वायु में कार्बन डाई आक्साइड गैस का संतुलन ठीक था। पेड़ पौधे कार्बन डाई आक्साइड हवा में फेकते थे। जब मानव आग जलाने लगा तो अधिक कार्बन गैस बनने लगी। नाना प्रकार के ईंधन बड़े स्तर पर जलने लगे और कार्बन बड़े स्तर पर बनने लगी। जैसे जैसे जंगल कटते गये, पौधों द्वारा कम कार्बन खाया जाने लगा। कार्बन का अधिक बनना और कम खाया जाना, इस व्यवस्था ने हवा में कार्बन डाई आक्साइड का अनुपात बढ़ाना आरम्भ कर दिया। दिन में सूर्य पृथ्वी का गरम करता है और रात में वह गर्मी हवा के द्वारा ऊपर

जाकर अंतरिक्ष में खो जाती हैं परन्तु कार्बन गैस उसे अंतरिक्ष में जाने से रोकती है। और यह गर्मी हवा में बनी रहती है। इस प्रकार पृथ्वी की हवा हर वर्ष लकड़ी कोयला तेल, गैस आदि ईधन के जलने और जंगल कटने के कारण लगातार धीरे धीरे गरम होती जा रही है। हवा की गर्मी उत्तरी दक्षिणी ध्रुव के बर्फ को पिघलाती है और सागर का जल स्तर ऊंचा हो जाता है। मालद्वीप के प्रधानमंत्री ने यह प्रश्न नेपाल की दक्षिण एशिया के देशों की बैठक में 87 में उठाया था कि आगामी पचास वर्षों में, सागर का जल स्तर ऊंचा उठने के कारण मालद्वीप का पर्याप्त बर्फ पिघल कर • समतल भाग सागर बन जायेगा। मौसम विशेषज्ञों के अनुसार, यदि ईधन जलाते की गति, इसी प्रकार बढ़ती रही तो दूर भविष्य में पृथ्वी का पूरा सागर जल पचास मीटर ऊंचा उठ जायेगा।

वर्तमान सागर तट के बम्बई, कलकत्ता, लन्दन, टोकियो जैसे शहर तो सागर के पेट में चले ही जायेगे। पृथ्वी की अधिकांश समतल कृषि भूमि के ऊपर सागर बन जायेगा। पूरी पृथ्वी का जलवायु बदल जायेगा, जहां आज रेगिस्तान है वहां फिर अधिक वर्षा के कारण घने बन होंगे यूरोप, रूस, अमरीका में रेगिस्तान बन जायेगा। शायद ऐसा अवसर नही आयेगा। वैज्ञानिक भविष्य में सौर, हवा, सागर लहरों और बिजली ऊर्जा का प्रयोग बढ़ाते जायेंगे और वृक्षारोपण भी बढ़ता जायेगा तथा कार्बन का हवा में प्रतिशत बढ़ना रोक दिया जायेगा। पूरी पृथ्वी का मौसम की बड़ी प्राकृतिक व्यवस्था का अंग है जो एक दूसरे से प्रभावित होता है। अभी तक विज्ञान इतना समर्थ नहीं हुआ है जो सागर की गरम और ठण्डी धाराओं को नियंत्रित कर सके अथवा ऊपरी हवाओं को गरम न होने दें।

अतः अतिवृष्टि और अनावृष्टि तो होगी परन्तु उसकी सूचना भी बहुत पहले से मिल जायेगा 87 का सूखा व बाढ़ की सूचना विशेषज्ञों ने मई माह से ही देना आरम्भ कर दिया था और पहली जून को वैज्ञानिक अंसारी ने मौसम विभाग के कार्यालय पूना में गरम हवाओं का अध्ययन करके स्पष्ट घोषणा कर दी थी। सूखे और बाढ़ का एक ही मिला जुला समाधान है कि वर्षा के जल को रोककर पूरे भारत में सिंचाई के काम में लाया जाये और जल निकासी का समुचित प्रबन्ध किया जाये। जैसा कि पाठक पहले पढ़ चुके हैं। कि बिना सिंचाई भारत में सफल खेती नहीं हो सकती। शेष देशों में हो सकती है। अतः सर्वप्रथम भारत में सूखा और बाढ़ को प्रभावहीन करते हुये सघन खेती करने हेतु भरपूर सिंचाई का प्रबन्ध करना होगा।

अकाल-: पूर्व से पश्चिम को चलते हुये वर्षा का जल घटता जाता है। भारत का आठ प्रतिशत क्षेत्रफल औसतन सालाना 254 सेन्टीमीटर से अधिक वर्षा प्राप्त करता है और बारह प्रतिशत क्षेत्रफल ऐसा है जिसे 61 सेन्टीमीटर से कम वर्षा प्राप्त होती है। 1883 में अंग्रेजों ने अकाल का कोड घोषित किया था जिसके अनुसार पच्चीस प्रतिशत वर्षा कम हो जाने पर लगभग एक तिहाई भारत में आकाल की स्थिति बन जाती है। 128 जिलों में 680 लाख हैक्टयर भूमि साधारणतया अकाल का शिकार होती हैं परन्तु 1987 जैसे असाधारण अकाल में दो तिहाई भारत, अकाग्रस्त हो गया था। भारत की सभी नदियों में सलाना लगभग एक सौ पैतालिस करोड़ एकड़ फिट पानी बहता है। एक एकड़ खेत के ऊपर यदि इतना पानी भर दिया जाये कि उस पानी की ऊंचाई एक फुट हो जाये तो उसे एक एकड़ फिट पानी कहा जाता है।

अभी तक नदियों के जल का दसवां भाग ही सिंचाई के काम में लाया जा सकता है विशेषज्ञों के अनुसार पच्चीस प्रतिशत नदियों का जल आसानी से और पचास प्रतिशत नदियों को एक दूसरे से जोड़कर सिंचाई के काम लाया जा सकता है। अर्थात आज की तुलना में पांच गुना नहरों का जल सिंचाई के लिये उपलब्ध हो सकता है। लगभग चौदह करोड़ एकड़ फिट पानी का प्रयोग आज भी हो रहा है और विशेष प्रयास करने पर इकहत्तर करोड़ एकड़ फिट पानी सिंचाई के लिये मिल सकता है। पाठक पढ़ चुके हैं कि बारह करोड़ हैक्टर अथवा तीस करोड़ एकड़ भूमि में ही खेती होती है। अत: तीस करोड़ एकड़ भूमि में यदि उपलब्ध हो सकने योग्य पानी को बराबर की मात्रा में बांट दिया जाये तो तीस करोड़ एकड़ या बारह करोड़ हैक्टर कृषि भूमि पर लगभग 25 इंच पानी खड़ा हो जाता है। इस प्रकार पूरी कृषि भूमि को पर्याप्त मात्रा में सिंचाई करने योग्य पानी, नहरों द्वारा दिया जा सकता है।

साधारण नहरें -: सिंचाई का सबसे अच्छा और सस्ता साधन, नदियों के जल को मोड़कर, नहर निकालने से बनता है। परन्तु सभी नदियों के पास समतल मैदान नहीं है और सभी समतल मैदानों में नदी नहीं है। ब्रह्मपुत्र नदी में सब नदियों से अधिक जल बहता है। तो वहां सिंचाई के लिये पर्याप्त भूमि नहीं है और राजस्थान में बहुत बड़ा कृषि क्षेत्र है तो वहां नदियां नहीं हैं। इस समस्या का समाधान, नेहरू काल में ही, दस्तूर एण्ड कम्पनी ने अपना व्यक्तिगत प्रयास और खर्च के द्वारा नदियों का आधा पानी एक विशाल सिंचाई व्यवस्था के रूप में, जोड़कर पूरे भारत के खेतों में पहुंचाया जा सकता है। नेहरू जी के समय उस पर सोच विचार होता रहा । इन्दिरा जी ने उक्त योजना को कार्यान्वित करने हेतु विश्व बैंक से ऋण मांगा और योजना बैंक के सम्मुख रख दी परन्तु अमरीका आदि देशों ने विश्व बैंक को ऋण देना कम कर दिया और चीन जैसे देश भी ऋण मांगने लगे अतः भारत को ऋण नहीं मिला और योजना स्थगित रही। सरकार के पास धन का अभाव है इसलिये सिंचाई नहीं हो पा रही है। सिंचाई के लिये नदियों में पानी का अभाव नहीं है।

प्रस्तुतकर्ता -: इंजी अलप भाई पटेल