कृषि क्रांति और किसान नेतृत्व लेखक चौ महाराज सिंह भारती -: इंजी अलप भाई पटेल

भाग -:3

बागान नीति

ताड़ नारियल-:

नारियल की खेती, सभी गरमतर क्षेत्रों में हो रही है। नगरों की जनसंख्या के साथ-साथ देश के बड़े भाग में कच्चा नारियल पानी पीने और कच्ची गिरी खाने से भी नारियल खपत बढ़ती जा रही है। जैसे-जैसे गरीबी हटकर मध्यम वर्ग की संख्या बढ़ेगी पक्के गोले और नारियल तेल की मांग भी बढ़ेगी। अण्डमान निकोबार जैसे अनेक अछूते गरमतर जलवायु के क्षेत्रों में नारियल की नई खेती की जा सकती है और उन्नत नस्ल को बढ़ावा देकर पर्याप्त मात्रा में आवश्यकतानुसार उत्पादन बढ़ाया जा सकता है।

मलेशिया में एक विशेष ताड़ पाम होता है जो अच्छा खाद्य तेल देता है। इन वर्षों में मलेशिया का पाम तेल बड़ी मात्रा में भारत आया है। भारत के सभी गरमतर क्षेत्रों में उस पाम ताड़ की खेती की जा सकती है। पृथ्वी पर प्रति हैक्टर जितना खाद्य तेल पाम वृक्ष देता है दूसरा कोई तिलहन नहीं दे सकता। मलेशिया में तो पाम तेल का उत्पादन प्रति हैक्टर पांच टन होता है। वैज्ञानिक तकनीकी और भरपूर साधनों द्वारा गरमतर जलवायु के क्षेत्रों में पाम तिलहन की खेती भारत के लिये वरदान सिद्ध होगी

खड़: जैसे पाम तेल को हमारे पुरखे नहीं जानते थे और भविष्य में, पाम तेल एक प्रमुख खाद्य तेल होगा, इसी प्रकार रबड़ को भी भारत में कोई नहीं जानता था। अमरीका के आदिवासी बच्चे ही रबड़ की गेदों से खेलते थे। पेड़ के तने से निकला हुआ तरल, सफेद रबड़ होता है जिसको मजबूत और कम घिसने वाला बनाने के लिये उसमें कार्बन मिलाया जाता है। इसलिये टायर काले होते हैं।
दक्षिणी अमरीका के हैटी द्वीप पर 1493 ई० में कोलम्बस ने जब बच्चों को रबड़ की गेंद से खेलता देखा तो रबड़ का पता शेष दुनिया को हो गया। रबड़ की खेती श्रीलंका से होती हुई भारत के केरल प्रदेश में 1880 में पहुंची। 1888 में डनलप कम्पनी ने रबड़ का साइकिल टायर बनाया और फिर रबड़ की औद्योगिक खपत के साथ उत्पादन बढ़ता चला गया। तीस वर्ष पूर्व भारत में प्रति हैक्टर रबड़ का औसत उत्पादन 300 किलोग्राम था जो अब 800 किलोग्राम है और नई उन्नत किस्म के पेड़ों से प्रति हैक्टर दो हजार किलो रबड़ सालाना प्राप्त होती है। मांग की पूर्ति न होने के कारण, बनावटी रबड़ का आविष्कार हो गया और अब विदेशों में सत्तर प्रतिशत बनावटी रबड़ में तीस प्रतिशत प्राकृतिक रबड़ मिलाकर उत्पादन किया जाता है।

भारत में बनावटी रबड़ के पुस्तक लिखे जाते समय केवल दो कारखाने थे अतः उद्योगों में रबड़ का मिश्रण बनाते समय, विदेशों के तीस प्रतिशत के स्थान पर अठहत्तर प्रतिशत प्राकृतिक रबड़ मिलाई जाती थी। शायद इसीलिये भारत में बने टायर विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। कभी कभी प्राकृतिक रबड़ मलेशिया से आयात भी करनी पड़ती है। इस समय तीन लाख टन से कम, सालाना रबड़ का उत्पादन भारत में होता है और शताब्दी के अन्त तक छह लाख टन रबड़ की आवश्यकता भारतीय उद्योगों को होगी। इतना उत्पादन तो केवल उन्नत नस्ल के पौधों द्वारा ही हो सकता है। नया क्षेत्र बढ़ाकर तो पन्द्रह लाख टन रबड़ भी उत्पादित की जा सकती है। औसतन एक वर्ष में चालीस हजार टन रबड़ आयात करने में चालीस करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा देनी पड़ती है। रबड़ पेड़ खूब बड़ा होता है। अभी तक उसका उपयोग केवल ईंधन में किया जाता था। अब उसे कागज बनाने में और उपचारित करके फर्नीचर बनाने के काम में भी लाया जाता है अभी तक रबड़ की खेती केवल केरल में होती थी परन्तु प्रयोगों द्वारा सफलता प्राप्त करके पता चला है कि कर्नाटक, गोवा, महाराष्ट्र, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और •पूर्वोत्तर भारत के बहुत बड़े क्षेत्र में मन चाही रबड़ की खेती की जा सकती है।

काजू-:

हमारे पुरखे कभी काजू नहीं खा पाये क्योंकि भारत में काजू का पेड़ नहीं था। काजू का पेड़ कटहल जैसा होता है। पन्द्रहवीं शताब्दी में, एक पुर्तगाली पादरी पूर्वी अफ्रीका से काजू को लेकर आया और केरल में, भूमि का कटाव रोकने के लिये काजू वृक्ष लगाया गया। काजू फल का रस मीठा होता है। विदेशियों को फिरंगी कहा जाता था। अतः काजू के पेड़ को केरल निवासी फिरंगी आम कहने लगे और काजू फल का रस चखने लगे। 1920 ई० में काजू फल की गिरी का प्रयोग प्रारम्भ हुआ जिसे आज हम काजू के नाम से पुकारते हैं। इस समय काजू फल के रस से जैम-जैली बन्द खाद्य पदार्थ तथा फैजी शराब बनाई जाती है। काजू रस में विटामिन सी और औषधि के गुण होते हैं। वैज्ञानिकों ने काजू रस के आधार पर एक ऐसा कृत्रिम रेशा तैयार किया है जो एक बहुत तापमान सहन कर लेता है। वर्तमान में लगभग आठ लाख टन काजू फल अकेले केरल में पैदा होता है। यदि भारत के पूरे गरमतर क्षेत्र में काजू की खेती की जाय तो पचास लाख टन काजू फल आसानी से तैयार करके काजू फल के रस पर आधारित अरबों रुपये के विभिन्न पदार्थ बनाये जा सकते हैं।

काजू फल की गिरी जिसे काजू नाम से जाना जाता है पूरी दुनिया में सूखी मेवा के रूप में, महंगे भाव पर खाई जाती है। गुठली को तोड़कर गिरी निकालने का काम अच्छे हाथों से होता है। मशीन में गिरी टूट जाती है। मानव श्रम पर आधारित काजू गिरी का उद्योग, भारत में, पूरे संसार में, काजू का सबसे बड़ा उद्योग है और अभी तक भारत विश्व में सबसे बड़ा काजू निर्यातक देश है। परन्तु भारत को पर्याप्त मात्रा में काजू की गुठलियाँ अफ्रीका से आयात करनी पड़ती हैं। अब अफ्रीकी देश अपना काजू उद्योग लगा रहे हैं। भविष्य में काजू गुठली आयात करना कठिन होगा। अतः भारत के पूरे गरमतर जलवायु क्षेत्र में, आवश्यकतानुसार काजू की खेती करके काजू उद्योग की भावी आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिये। काजू भी कल्प वृक्ष है जिसकी लकड़ी और फल दोनों बहुत काम के हैं। गुठली के खोल से भी बादामी रंग का तेल बनता है जो तेजाब अवरोधक है। वार्निश के अतिरिक्त काजू तेल की मांग अनेक उद्योगों में है। साधारण काजू पेड़ सालाना केवल दो किलो से भी कम गिरी दे पाता है, परन्तु नई उन्नत नस्लें सलाना सत्रह किलो तक अर्थात नौ गुना गिरी दे देती हैं। यदि वैज्ञानिक ढंग से काजू की भरपूर सघन खेती की जाये तो पृथ्वी पर भारत का, काजू उद्योग में प्रभुत्व बना रह सकता है और अरबों रुपये का काजू निर्यात भी हो सकता है।

सुपारी -:

सुपारी भी मलाया देश का जंगली पौधा है जो बर्मा से होता हुआ बहुत पहिले ही भारत में आ गया था। सुपारी का अधिकांश उत्पादन आसाम, केरल और कर्नाटक में होता है। वैसे पूरे गरम तर क्षेत्र में सुपारी के पेड़ सफलतापूर्वक लगाये जाते हैं। सुपारी का पेड़ पतला और लम्बा होता है। सुपारी के फल से तेल, अल्कोहल, बच्चों की मिठाई और टूथपेस्ट बनता है। उबला पानी चमड़ा उद्योग के काम आता है तथा जिसे हम सुपारी के नाम से जानते हैं यह उस फल की गुठली है। सुपारी फल में भी जटायें होती हैं जो गत्ता व कागज बनाने के काम आती है। पर्दे, मुर्गीखाने का बिछावन, पैकिंग और जूतों के तलवे बनाये जाते हैं। पत्तों से झाडू बनती है। चीनी नस्ल की सुपारी सत्तर प्रतिशत अधिक फल देती है। सुपारी की मांग विदेशों में बहुत कम है। सुपारी का क्षेत्रफल बढ़ाने की आवश्यकता नहीं है. केवल सुधरी नस्ल के पेड़ लगाने मात्र से उत्पादन ड्योढ़ा हो सकता है।

कोकोआ -:

चाकलेट आदि औद्योगिक मिठाई और पेय पदार्थों में कोकोआ पेड़ के फलों का प्रयोग होता है। कोकोआ का पेड़ साधारण बड़ा और फल डालियों में कटहल की भांति लगने वाला, पपीते जैसा होता है। कोकोआ मैक्सिको अमरीका का जंगली पेड़ है जिसे कोलम्बस 1528 ई० में स्पेन से लाया था। यूरोप से कोकोआ सभी जगह गरमतर जलवायु में फैल गया। भारत में आजादी के बाद, कोकोआ की खेती, केरल के नारियल बगीचों के बीचोबीच में करनी आरम्भ हुई अन्यथा कोकोआ आयात किया जाता था। कोकोआ की खेती से भारी आय होती है। विदेशों में कोकोआ की बहुत मांग है। नारियल के बगीचों में, फालतू फसल के रूप में इसकी खेती हो जाती है। भारत के पूरे गरमतर क्षेत्रों में नारियल, पाम, काजू, रबड़ आदि के बगीचों में ही कोकोआ की खेती से करोड़ों रुपये का निर्यात किया जा सकता है।

काफी -:

काफी का पेड़ उत्तर पूर्वी अफ्रीका में, सागर तट के नजदीक, गरमतर जलवायु में, जंगली रूप में पाया जाता था। इथोपिया निवासियों ने, काफी फल के बीजों को भून कर प्रयोग किया तो चुस्तीदायक गरम पेय पदार्थ बन गया। ईथोपिया के पास ही अरब देशों का अदन का बन्दरगाह है। अदन होते हुये काफी अरब देशों में पहुंची, जहाँ वह कहवे के नाम से मशहूर है। भारत के चायखानों की भांति अरब देशों में कहवा खाने होते हैं। अरब व्यापारियों द्वारा काफी यूरोप गयी और योरोप वालों के द्वारा पूरी दुनिया में काफी का प्रचार हो गया। 1820 से चलकर आज काफी चाय की भांति पेय और आतिथ्य का पर्याय बनी हुई है।

भारत में काफी के पेड़ का बीज एक अरबी फकीर लेकर आया था और कर्नाटक में पहला काफी वृक्ष उगाया गया। अंग्रेजों ने काफी का व्यापार किया और उत्तर भारत में काफ़ी पीने का प्रचार किया। जैसे उत्तर भारत में भारी प्रचार के कारण अब चाय घरेलू पेय पदार्थ बन गया है, उसी प्रकार दक्षिण भारत में काफी घरेलू पेय पदार्थ है। काफी वृक्ष में लाल फल लगते हैं। जिनमें केवल दो बीज होते हैं। उन्हीं बीजों को भून पीसकर काफी बनाई जाती है। विश्व उत्पादन का तीन प्रतिशत से कम, काफी उत्पादन भारत में होता है। निर्यात द्वारा भारी आय देने वाली काफी के वृक्ष को भी आवश्यकतानुसार मनचाही संख्या में पूरे गरम क्षेत्र में लगाया जा सकता है।

मसाले -:

•मसालों का उत्पादन प्रयोग और निर्यात कई हजार वर्ष पूर्व से भारत कर रहा है। भारत से मसाला पाने की लालसा में, पानी के जहाज का रास्ता खोजते हुये अमरीका सहित अनेक देशों की खोज हुई है। कोलम्बस ने अमरीका को भारत समझकर वहां के निवासियों को लाल हिन्दुस्तानी का नाम दिया जो आज तक चल रहा है। पहले अरब व्यापारियों के द्वारा ही भारत के मसाले यूरोप जाते थे। हल्दी, अदरक और सौंठ प्राय: पूरे भारत में उगाया जा सकता है। बगीचों में, पेड़ों के नीचे भी इनका उत्पादन हो जाता है। हल्दी में भारत सर्वाधिक उत्पादन करता है। अदरक और सोंठ का उत्पादन भी आधा भारत में ही होता है परन्तु किस्म के हिसाब से जमैका छोटे से देश का अदरक सर्वोत्तम है और अधिक मूल्य पर विश्व बाजार में बिकता है। यदि किस्म सुधार कर, हल्दी, अदरक और सोंठ का उत्पादन किया जाये तो बगीचों के फालतू उत्पादन को मिलाकर भारत के उक्त मसालों में वर्चस्व बना रह सकता है।

प्रस्तुतकर्ता-: इंजी अलप भाई पटेल