पानी के साथ जीवन की सीख भी देती थी खत्म हो रहीं बावड़ियां : आदर्श कुमार

बावड़ि़यां वास्तुकला और जल संचय व्यवस्था का एक अद्भुत रूप है जो 7वीं शताब्दी के बाद से समूचे राजस्थान और गुजरात में आज तक बची हुई हैं। गुजरात में इनकी महत्ता और कौशल ने जो स्थान प्राप्त किया है उसे अब पार करना मुश्किल है। हालांकि पश्चिमी भारत की कला और वास्तुकला के इतिहास की कई किताबों में इन बावड़ियों की उपेक्षा की गई है परंतु इस क्षेत्र की वास्तुकला और शिल्पकला के विकास में आए बदलाव को ये भलीभांति दर्शाती हैं।

ये बावड़ियां पानी तो देती ही थीं पानी लेने आई औरतों और मर्दों के मिलने और आराम करने की जगह भी थीं। ऐसा माना जाता है कि यहां जीवन देने वाली कई प्रेतात्माएं भी रहती हैं। बावड़ियां अक्सर तीन जगहों पर देखी जा सकती हैं ये मंदिरों के पास होती हैं या इनमें खुद ही एक मंदिर या समाधि हो सकती है। ये गांव के बीच में हो सकती हैं या गांव के बाहर स्थित सड़क के साथ भी हो सकती हैं।

भारत में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के कुओं में से ये बावड़ियां अर्थात सीढ़ीदार कुएं वास्तुकला की दृष्टि से सबसे जटिल और पेचीदा मानी जाती हैं। इनकी एक विशेषता एक लंबा सीढ़ीदार गलियारा है जो पांच या छह मंजिलों से होते हुए नीचे स्थित कुएं तक पहुंचता है। चूंकि इसका अधिकतर हिस्सा भूमिगत होता है इसलिए यह एक भूमिगत मंदिर के समान दिखता है। मीनारों की तरह के कई अनुप्रस्थ “कुत” जिनका निर्माण कभी-कभी खुले स्तंभों वाले मंडपों की तरह किया जाता है किनारों की दीवारों को सहारा प्रदान करते हैं। सीढ़ीदार गलियारों काे ये कुत एक नियमित अंतराल के बाद काटते हैं। ये गलियारे नीचे स्थित पानी के स्त्रोत तक पहुंचते हैं। बड़ी बावड़ियों में सात तक भूमिगत मंजिलें हुआ करती हैं। इनके निर्माण की विधि मिट्टी की दशा और भूजल की गहराई पर निर्भर करती है। गुजरात की बावड़ियों को इनके निर्माण संबंधी विशेषताओं के आधार पर पांच मुख्य वर्गों में बांटा जा सकता है एक जिनमें सीढ़ीदार गलियारे एक सीधी लाइन में नीचे की तरफ बने होते हैं और सिर्फ एक प्रवेशद्वार होता है।

दूसरा जो पहले से ही समान होते हैं पर इनमें तीन प्रवेशद्वार होते हैं। तीसरा जिनमें सीढ़ीदार गलियारे आगे जाकर समकोण पर मुड़ गए होते हैं। चौथा, जिनके कुओं के चारों तरफ परिक्रमा करता बरामदा सा होता है और पांचवां जिसमें बावड़ी में चारों दिशाओं से चार प्रवेश द्वार होते हैं और पानी बिल्कुल मध्य में रहता है। अक्सर सबसे निचले स्तर में एक चौकोर जलाशय बना होता है। बावड़ी का यह हिस्सा सीढ़ीदार गलियारे की तरह बिल्कुल खुला होता है। इस पानी के चारों तरफ एक बरामदेनुमा रास्ता होता है जिसे खंभों की सहायता से खड़ा रखा जाता है और जिसे शिल्पकला और नक्काशी से सजाया जाता है। ऊपरी मंजिलों में एक निचली मुंडेर की दीवार जिसमें झुके हुए पत्थर लगाए जाते हैं से खुली जगहों को ढका जाता है। इसे “कक्सासणा” कहा जाता है। साधारणतः इसे आकर्षक नक्काशी और कभी-कभी चिड़ियों, घोड़ों, हाथियों, लड़कियों, जोड़ों या अन्य दैविक चित्रों से सजाया जाता है। पास के क्षेत्रों में पानी पहुंचाने के लिए तैयार की गई पानी की नालियां या जानवरों के पीने नहाने के पानी के कुंड बावड़ी की दीवारों से जुड़े होते हैं।

ये घरेलू उपयोग और खेती की जरूरतों को पूरा करने के सबसे प्रमुख स्त्रोत हैं। उत्तरी गुजरात की शुष्क जलवायु में जहां नदियों और पानी के अन्य प्राकृतिक स्त्रोतों में पानी वर्षा के मौसम के कुछ ही महीनों बाद तक उपलब्ध रहता है ये बावड़ियां साल भर अपने जलभरों से साफ पानी उपलब्ध कराने की स्त्रोत हैं। बावड़ियां कभी सामाजिक मेलजोल और एक-दूसरे को सूचना देने की एक आदर्श जगह हुआ करती थीं। दिन की गर्मी से बचने के लिए लोग इसकी ठंडी छांव में आराम किया करते थे। गांव से बाहर बनी बावड़ियां सभी प्रमुख व्यापार मार्गों पर तैयार की जाती थीं। गुजरात के समुद्री तटों पर स्थित महत्वपूर्ण बंदरगाहों से सामान को उत्तरी भारत में ले जाने वाले कारवां यहां आराम करते थे।

मध्यकाल की कई पुस्तकों और अभिलेखों में इस बात का उल्लेख है कि जो भी व्यक्ति तालाबों, कुओं या बावड़ियों का निर्माण करता है उसे बलि देने वालों की अपेक्षा अधिक पुण्य मिलता है। जहां भगवान को प्रसाद चढ़ाने से सिर्फ पुजारियों को ही फायदा पहुंचता है, इन कुओं के निर्माण से सभी प्यासे प्राणियों की प्यास बुझती है।

गुजरात जैसे शुष्क राज्य में सिर्फ बावड़ियों और तालाबों की खुदाई ही हमेशा के लिए पानी उपलब्ध कराने की गारंटी नहीं बन सकती हैं इसलिए पानी या उसमें बसने वाले भगवान की कृपा पाने के लिए पूजा-पाठ और भोग चढ़ाने की भी जरूरत पड़ती है। गुजरात में पानी और उसके स्त्रोतों की पूजा करने की प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है। संभवतः मातृ देवी की उपासना-पद्धति या यह एक और रूप है। यह चीज गुजरात की बावड़ियों जिन्हें गुजराती में “वाव” कहा जाता है के नामों से उद्घाटित होती है जैसे माता भवानी वाव, आसापुरी वाव, सिंधवाई माता वाव, अंकोल माता वाव, मातृ वाव और सिकोतरी वाव। ऐसा कहा जाता है कि शक्तितीर्थ हमेशा तालाबों (कुंडों) से जुड़े होते हैं। कई बावड़ियां पूजा स्थल होती हैं और कभी-कभी इनके प्रवेश द्वार से कोई छोटा पूजा स्थल जुड़ा होता है। ये पूजास्थल बावड़ी के स्तंभों के पीछे की दीवार के अंत में या बावड़ी के ठीक सामने बने मंडपों में बने होते हैं। बावड़ियों की दीवारें पूरी तरह शिल्पकलाओं से भरी होती हैं। इससे यह पता चलता है कि पानी से भरा अंदर का जलाशय ही बावड़ियों का सबसे पवित्र स्थल है।

इन शिल्पकालाओं में हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां एक सिरे से बनी होती हैं। लोग पानी के स्त्रोतों पर अलग-अलग चीजों के लिए प्रार्थना करते हैं- जैसे संतान, अच्छी उपज और धन आदि। प्रार्थना पूरी हो जाने पर वे पानी के देवता को प्रसाद चढ़ाते हैं। यह अनाज, चावल, दूध, फल, नारियल, पशुबलि, और स्वयं के बलिदान में से कुछ भी हो सकता है। सौराष्ट्र में स्थित वाधवान की मधा बावड़ी से जुड़ा एक लोक गान पानी के बहाव को सुनिश्चित करने के लिए उत्सर्ग की महत्ता को दर्शाता है। यह एक सामान्य धारणा को भी उजागर करता है कि सभी कुर्बानियों में अपना उत्सर्ग सबसे प्रभावशाली होता है। यह गाना एक समय का वर्णन करता है जब पूरे 12 वर्ष तक इस मधा बावड़ी में पानी सूख जाने से गांववालों को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था। इस समस्या को दूर करने का सिर्फ एक ही उपाय बचा था- एक नए शादीशुदा जोड़े का उत्सर्ग। देवी की यह मांग उस समय पूरी हुई जब एक चुने हुए जोड़े को इस कुएं की सीढ़ियों से नीचे की तरफ उतारा गया। ऐसा करते ही कुएं में पानी भरना शुरू हो गया। दूल्हा और दुल्हन उस समय तक नीचे की तरफ जाते रहे जब तक बढ़ते हुए पानी ने उन्हें पूरी तरह अपने में समा नहीं लिया।

कुछ साहित्यिक प्रसंग पानी वाले प्रबंधों में मूर्तिकला और शिल्पकला के होने का वर्णन करते हैं। इनका विस्तृत वर्णन सिर्फ 12वीं शताब्दी के अंत में गुजरात में लिखी गई एक संस्कृत किताब “अपराजिताप्रेच्छा” और दक्षिण भारत में लिखी गई “विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र” में ही मिलता है। अपराजिताप्रेच्छा के अनुसार, किसी बावड़ी में श्रीधरा, जलसाईं, 11 रूद्रों, भैरव, उमामहेश्वर, कृष्ण, दंडपाणी, दिक्पाल, आठ मात्रिकाओं, गंगा ओर नवदुर्गा जैसे देवी-देवताओं का वास जरूर होना चाहिए। 11वीं शताब्दी में तैयार पाटण के रानी वाव को समूचे गुजरात में पाई जानी वाली बावड़ियों में सबसे सुंदर माना जाता है। इसके गलियारे की पूरी दीवार और बावड़ी की चारदीवारी को देवताओं और उनके सहचरियों जैसे ब्रह्मा-ब्रह्माणी, शिव-पार्वती, भैरव-कालिका और विष्णु-लक्ष्मी की मूर्तियों से सजाया गया है। इसके अतिरिक्त, इसमें शेषशायी विष्णु, महिषासुरमर्दिनी, गणेश के साथ सात मात्रिकाएं, कुबेर, विष्णु के दसों अवतार, लाकुलिसा, सूर्य, ब्रह्मा, इंद्र, विश्वरूपा, देवियां, सुरसुदंरी और अप्सराएं नाच की भिन्न-भिन्न मुद्राओं और तरह-तरह के श्रृंगार करने की अवस्था में देखी जा सकती है।

बावड़ियों में पाए जाने वाले चित्रों में दैनिक जीवन, कामुक तस्वीरें, मक्खन बिलोना, लड़ाई की तस्वीरें, राजकीय शोभायात्राएं, सामान्य औरतों की आकृतियां, अलंकृत प्रस्तर गल, ज्यामितीय बनावटें, वनस्पतियों और जानवरों जैसे मूल विषयों को दर्शाते चाैखट और पानी के जानवरों की तस्वीरें भी हैं। पानी में रहने वाले जानवरों जैसे कछुए, सांप, मछली और मकर की मूर्तियां सिर्फ बावड़ियों में ही पाई जाती हैं। मुसलमानों द्वारा निर्मित बावड़ियों में अलंकृत मूर्तियां और दीवारें नहीं मिलती हैं। इनकी जगह वर्तिलेख और पत्तेदार टहनियों की खुदी आकृतियां मिलती हैं जो कभी-कभी कलशों से निकलती हुई दिखाई देती हैं। अहमदाबाद की मस्जिदों में भी इसी प्रकार की सजावट है। हिंदू परंपरा के अनुसार, तैयार की गई बावड़ियों में, जिनका निर्माण मुसलमानों के शासनकाल में किया गया था भी इस प्रकार की आकृतियों की नकल की गई थी। इन दोनों में इतनी समानताएं हैं कि इन्हें एक-दूसरे से अलग करना काफी मुश्किल है।

मध्यकाल में कई बावड़ियों का निर्माण किया गया था। सबसे आधुनिक बावड़ी का निर्माण करीब 45 वर्ष पहले वांकानेर महल में निजी उपयोग और आरामगाह के लिए किया गया था। हालांकि गुजरात और राजस्थान की प्राचीन बावड़ियां आज भी बची हुई हैं परंतु इसमें से कई बेकार हो चुकी हैं। जिन क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर काफी गिर चुका है वहां की सभी बावड़ियां सूख गई हैं अन्य बावड़ियों को कचरा जमा करने के स्थान की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है। नगरपालिका द्वारा पानी की सप्लाई उपलब्ध कराने के बाद बावड़ियां किसी काम की नहीं रही हैं। सिर्फ अकाल के दिनों में ही इन्हें याद किया जाता है। बावड़ि़यां जो अब प्रमुखतः खत्म हो रही हैं आने वाली पीढ़ी अब इन्हे किताबों में ही पढ़ेगी और चित्रों में ही निहार सकेगीं। अभी एक जरूरत है की इन धरोहरों का संरक्षण किया जाये ।

आदर्श कुमार (सम्पादक)