विज्ञान और विकास ही ‘बुद्धत्व’ है: राहिब मैत्रेय

‘द एस्सेंस ऑफ बुद्धिज्म’, प्रो.पी.लक्ष्मी नरसू कृत एक उत्कृष्ट शोध ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को हर उस व्यक्ति को पढ़ना चाहिए जो चेतनावान है अथवा अपनी चेतना को जाग्रत करना चाहता है। इस पुस्तक की लोकप्रियता को देखते हुए अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं में इसका अनुवाद हुआ है। इस पुस्तक के माध्यम से लेखक ने अघतन विज्ञान और दर्शन की बुनियाद पर बौद्ध धर्म संबंधी प्रमुख सिद्धान्तों और दार्शनिक तत्वों को एक ही स्थान पर सुलभ करा दिया है। इस ग्रंथ की उपादेयता को स्पष्ट करते हुए वर्ष 1948 में प्रकाशित तीसरे संस्करण का प्राक्कथन लिखते हुए डॉ.बी.आर अम्बेडकर ने स्पष्ट घोषणा की है कि मुझे यह कहने में तनिक भी हिचकिचाहट नहीं है कि बौद्ध धम्म के संदर्भ में अबतक जितने भी ग्रंथ लिखे गए हैं। उनमें यह सर्वश्रेष्ठ है। प्रो. नरसू एक मूर्तिभंजक समाज सुधारक हैं । जाति प्रथा के विरुद्ध उनका संघर्ष प्रमाणिक है।
पुस्तक की भूमिका में अनागरिक धम्मपाल कहते हैं कि लेखक एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक है. उन्होंने प्रमाणिक स्रोतों से बुद्ध धम्म का अध्ययन किया है और एक विद्वान के रुप में बुद्ध शासन की व्यापक प्रणाली का विश्लेषण किया है. वे गैर बौद्धों औऱ वैज्ञानिक खंडनवादी व्यक्तियों के लिए इस ग्रंथ को पढ़ने की सिफारिश करते हैं।
पुस्तक को लेखक ने तेरह अध्यायों में समाविष्ट किया है यथा – ऐतिहासिक बुद्ध,धम्म में बुद्धिवाद, नैतिकता,जातिवाद, धम्म में स्त्रियां,चार आर्य सत्य,काय-कलेश,निराशावाद,आर्य आष्टांगिक मार्ग, विश्व की पहेली,व्यक्तित्व, मृत्यु,मृत्यु के अनंतर और परमार्थ ।


अन्य समस्त धार्मिक मतों और मान्यताओं के विपरीत बुद्ध ने अपने विषय में एक मनुष्य होने के अतिरिक्त अन्य कोई भी दावा प्रस्तुत नहीं किया. उन्होंने किसी परा प्राकृतिक मूल श्रोत से कोई दैवीय शक्ति लाने का कोई दावा नहीं किया. उन्होंने अपने ऊपर विश्वास कायम करने वालों के पापों को अपने सिर पर लेकर उन्हें मोक्ष प्रदान करने का भी कोई दावा नहीं किया. वेकहते हैं कि वे मानव को वह पथ दिखा देंगे जिस पर चलकर उन्होंने स्वंय बोधिप्राप्त की है. चलना उसे स्वयं ही होगा. किसी भी मनुष्य का उद्धार उसके अपने कर्मों के अतिरिक्त और कोई दूसरा कर ही नहीं सकता।


‘ ऐतिहासिक बुद्ध ‘अध्याय में लेखक ने बुद्ध और द्रोण ब्राह्मण के मध्य घटित हुई वार्तालाप का रोचक विवरण प्रस्तुत किया है. बुद्ध की दृष्टि में उनका नाम महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि प्रज्ञा और करुणा का साकार रुप ही अधिक महत्वपूर्ण था. उनका नाम अर्थात चरित्र महत्वपूर्ण था जिसका दूसरा नाम है बोधि. बुद्ध शाक्य मुनि मात्र नहीं थे,वे तथाथगत भी थे. जिस सनातन सत्यों की वे देशना करते थे वे स्वंय उनके साकार रुप थे. वे धर्मधातु स्वभावात्मक सत्ता थे. वे सभी मनुष्यों के समाज में जो मूल यथार्थता विद्यमान है, वे उसका प्रतिरुप थे. यह कोई आश्चर्यजनक नहीं कि बौद्ध धम्म जिस अवलंब पर टिका है, वह शाक्यमुनि का नहीं बल्कि बुद्ध का ही सम्यक व्यक्तित्व है.
गहन शोध के बाद लेखक इस नतीजे तक पहुंचते हैं कि शाक्यमुनि तथागत बुद्ध के जीवन विवरण पर ऐतिहासिक आलोचना कोई भी निर्णय दे, इसमें कोई संदेह नहीं है कि विभिन्न धर्मो के तमाम संस्थापकों, संतों और पैगम्बरों में उनका स्थान सर्वोपरि है.उनका गरिमामयी आचरण, उनकी उच्च नैतिक संपन्नता, उनकी सूक्ष्म द्दष्टि, उनकी भद्रता, दयालुता, करूणा, मित्रता, उदारता और दूरदृष्टि यह सभी उनके अभूतपूर्व और महान होने का प्रमाण है।
संसार के समस्त धर्मों के संस्थापकों में अकेले तथागत को ही यह गौरव प्राप्त है कि उन्होंने बिना किसी बाह्य सहायता के अपनी मुक्ति प्राप्त कर सकने की आदमी की अन्तर्भूत महानता को भली भांति पहचाना. उन्होंने किसी दूसरे को आदमी के सिर पर बैठाकर उसे पतनोन्मुख नहीं बनाया बल्कि उसे ऊपर उठाकर प्रज्ञा और मैत्री के ऊंचे से ऊंचे शिखर पर विराजमान कर दिया।


‘ बुद्ध धम्म में बुद्धिवाद’ , अध्याय में लेखक कहते हैं कि तथ्यों की द्दढ़ चट्टान पर खड़े होकर, तथाकथित इल्हामी धर्मों की तरह बौद्ध धम्म ने कभी इस बात से इन्कार नहीं किया कि बुद्धि ही सत्य हेतु अंतिम निर्णायक है. बुद्ध का ऐतिहासिक ‘ कालाम सुत्त’ कहता है कि किसी बात को केवल इसीलिए मत मानो कि वह किसी धर्मग्रन्थ में लिखी है अथवा पुराने समय से चली आ रही है अथवा उसे किसी बड़े विद्वान ने कहा है अथवा उसका बड़ा प्रचार-प्रसार है और उसे लाखों लोग मानते हैं. किसी बात को केवल तभी मानो जब उसे अपनी बुद्धि की कसौटी पर परख लो और जब ऐसा लगे कि वह तुम्हारे लिए और सभी के लिए कल्याण कारी है । सत्य कॊ स्वीकार करो और अपने जीवन में उतारो।


तथागत यथार्थ और व्यर्थ का निर्णय करने के लिए किसी शब्द प्रमाण को अथवा किसी इलहाम को नितांत व्यर्थ मानते थे. बुद्ध धम्म सद्धर्म है. सद्धर्म के आगे या पीछे कुछ नहीं होता. सद्धर्म में सभी विश्वास ज्ञान की उपज हैं । यह बुद्धिवादी मानवीय मष्तिष्क पर ऐसे प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करने का बोझ नहीं डालता जो सुलझाए ही नही जा सकते। ईश्वर-आत्मा, स्वर्ग-नर्क ,पुर्नजन्म इत्यादि प्रश्नों को बुद्ध ने ‘अव्याकृत’ की श्रेणी में डाल दिया है अर्थात इन विषयों पर चर्चा मात्र समय का अपव्यय और बुद्धिविलास है। इस चर्चा से मनुष्य को स्वयं कभी कोई लाभ प्राप्त नहीं होता।
लेखक ने इस गंभीर बिंदु पर चिंतन किया है आज बौद्ध धर्म में अनेक ऐसी रीतियां प्रचलित हो गई हैं जिनका बुद्धिवादी धम्म से कोई उचित तालमेल नहीं बैठता यथा बुद्ध के शरीर के धातुओं और उनकी मूर्तिपूजा अथवा अमिताभ बुद्ध के नाम का जप – प्रार्थना आदि ।


संभवत: आमजन मानस के लिए चार आर्य सत्यों का यथार्थ भावार्थ ह्रदयंगम करना कठिन है किंतु पवित्र बुद्ध मूर्ति को स्नान कराना और उसकी वंदना करना आसान है.
प्रो. नरसू का मत है कि एकमात्र बुद्ध धम्म के बारे में ही यह कहा जा सकता है कि वह धर्मांधता से पूर्णत: मुक्त है। अन्य धर्मों की तरह ही उसकी विस्तारवाद की कोई महात्वाकांक्षी नहीं है प्रचार के लिए वह न तो संसाधनों का प्रयोग करता है न ही शक्ति का। वह धन और तलवार दोनों के प्रयोग को नकारता है। वस्तुत: वैज्ञानिक द्दष्टि ही बुद्धि धम्म की वास्तविक शक्ति है. कोई भी मनुष्य जब अपनी प्रज्ञा का विस्तार करेगा और एक तर्कसंगत द्दष्टिकोण की ओर प्रवृत्त होगा तो वह अनायास ही स्वंय को बुद्ध के मार्ग पर खड़ा पाएगा।


धर्म किसी भी राष्ट्र विशेष की सभ्यता,संस्कृति, कला इत्यादि को प्रभावित करता है। बौद्ध धर्म की एक महान उपलब्धि यह है कि इसने मानवों की सौंदर्य बोध संबंधी आकांक्षाओं की संतुष्टि की ओर विशेष ध्यान दिया है. जहां- जहां धम्म पहुंचता है वहां-वहां कलात्मक चित्रांकन, पैगोड़ा, विशाल एवं रमणीक विहार, कलाकृतियां, सुंदर स्थापत्य, स्तूप,मूर्तियां अस्तित्व में आए हैं। अजंता के भित्ति चित्रों का सौंदर्य इस तथ्य का साक्षी है कि बुद्ध के सद्धर्म ने कला सौंदर्य को अद्भुत शिखर प्रदान किया। सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर, सांची, संकिसा,श्रावस्ती, कौशाम्बी से लेकर सम्पूर्ण एशिया के विभिन्न देशों में बौद्ध स्थलों का स्थापत्य संस्कृति और सभ्यता का एक बेहतरीन और बेहद ख़ूबसूरत पक्ष है.


धर्म के सामाजिक पक्ष की चर्चा करते हुए लेखक असमानता और जातिभेद के कोढ़ पर प्रकाश डालते है. वे कहते हैं कि भले ही जातिप्रथा का मूल कुछ भीहो इसमे लेश मात्र भी संदेह नहीं कि इसका विकास और इसकी वकालत दूषित मानसिकता के वे ही लोग करते हैं जो प्रकारान्तर से पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ उठाते रहे हैं। लेखक इस संदर्भ में ब्राह्मणवादी स्वार्थ और मनु स्मृति जैसे पाखण्डपूर्ण अनैतिक सिद्धांत को अमानवीय करार देते हैं।
धम्म शील, संयम, करुणा का मार्ग होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति को एक संपूर्ण समष्टि मानता है , चाहे वह स्त्री हो या पुरुष. इसलिए यह स्त्री और पुरुष के उस संबंध पर विचार नहीं करता जिसमें एक के दूसरे के जीवन का पूरक माना गया है। बौद्ध विवाह विधि अत्यंत सरल है. इसमें कोई व्यर्थ उलमाव और मिथ्या कर्मकांड जुड़े नहीं हैं । श्रीलंका, तिब्बत, मंगोलिया,जापान, कम्बोडिया, थाइलैंड और भूटान आदि बौद्ध देशों में विवाह एक समुचित समाजिक रीति में संपन्न सामाजिक समझौता है।


निर्वाण के संदर्भ में लेखक कहते हैं कि जब अर्हत का शरीरांत होता है तो वह उन अनेक बातों के साथ एक हो जाता है जिनका जीवनकाल में वह साकार मूर्ति था. इस प्रकार जो कोई भी धम्म को देखता है वह बुद्ध को ही देखता है. वह धम्मकाय में सदैव विद्यमान है जो सभी तथागतों का गर्भ है. धम्मकाय वह करुणा और प्रज्ञा है जो मानवता को सदैव आगे की ओर ले जाती है, ऊपर उठाती है। सत्य -शील, संयम -नैतिकता और बेहतरीन आमाल की ओर मनुष्य को प्रव्रत्त करती है , उसे हैवान से इंसान बनाती है ।

राहिब मैत्रेय

(लेखक साहित्यकार,कवि,स्तम्भकार और सामाजिक विचारक है)