राम मंदिर में पहली ईट रखने वाले कामेश्वर चौपाल ने मुझसे कहा कि आप विश्व हिंदू परिषद में आ जाइए: ललिता देवी

तारीख 6 दिसंबर 1992 …लाखों की भीड़ और जय श्रीराम के लग रहे नारे। इस गगनभेदी नारे के साथ कार सेवकों के कदम बाबरी मस्जिद की ओर बढ़ रहे थे। बिना जान की परवाह किए साड़ी पहनी 32 साल की महिला बाबरी मस्जिद पर चढ़ गई। हाथों में हथौड़ा लिए बाबरी मस्जिद पर तब तक प्रहार करती रही जब तक बाबरी मस्जिद इतिहास का हिस्सा न बन गई।
जय श्रीराम के उद्घोष के साथ ना सिर्फ मस्जिद को धराशाई करने में भूमिका निभाई, बल्कि सुबह तक रामलला को विराजमान करने के लिए चबूतरा तैयार करने में भी जुटी रही। बिहार के गया की रहने वाली 66 वर्षीय ललिता सिंह की जिनकी कहानी चौंका देने वाली है।
दो बच्चों की मां होने के बावजूद ललिता सिंह 1992 में गया से अपने साथ कई महिलाओं को लेकर कारसेवा करने अयोध्या पहुंचती हैं और खुद बाबरी के गुंबद पर चढ़कर उसे अपने हाथों से तोड़ती है। ललिता का जन्म 18 अगस्त 1958 को हुआ। ललिता ने अपनी मैट्रिक की पढ़ाई के दौरान ही अपनी मां के साथ समाज सेवा करती थी।
1981 में गया के उदय शंकर प्रसाद के साथ प्रेम विवाह किया। इसके बाद 1983 में जहानाबाद की कॉलेज में जीव विज्ञान की प्रोफेसर बनीं। फिर साल 1996 में ललित ने वकालत शुरू कर दी और आज ललिता और उनके पति दोनों एक ही कोर्ट में एक साथ वकालत करते हैं।
ललिता सिंह बताती है कि उस मंजर को मैं अपने शब्दों में बयां नहीं कर सकती। वह रामलला की कृपा और शक्ति थी कि मैं कर पाई। मेरे पास उतनी शक्ति नहीं थी। ऐसा लग रहा था कि पूरा हिंदुस्तान एक जगह सिमट गया है और पूरे हिंदुस्तान की बस यही मंशा है कि किसी भी तरह बाबरी मस्जिद को गिरा दो।
यही आवाज सब के दिलों में थी। वहां का कोई भी क्षण भूला नहीं जा सकता है। एक उत्साह था और सब में अपना जोश था। लग रहा था कि ये कलंक का टीका तुरंत मिट जाए और वह ध्वस्त हुआ, यह हमारा सौभाग्य था।
ललिता सिंह की आंखों के सामने उस वक्त लगातार गोलियां चल रही थी। उन्होंने बताया की जब गोलीबारी होने लगी तो मुझे लगा कि काश मेरे पास भी कुछ होता तो मुझे हुक्म देने वाला कोई नहीं होता। वह मुझे फांसी पर चढ़ा देते, लेकिन इस तरह से निहत्थे कारसेवकों पर गोली नहीं चलाते।
वह मंजर ऐसा था कि गोलियां चल रही थी और सभी लोग दौड़ रहे थे। कोई किसी को देखने वाला नहीं। कोई भी डर से पीछे नहीं हट रहा था बल्कि उन गोलियों का सामना कर रहा था। सब लोग कह रहे थे कि यह मेरी छाती है, गोली चला दो लेकिन रामलला का मंदिर बना कर ही रहेंगे।
यह हिंदुओं का दृढ़ संकल्प है जिसको कोई तोड़ नहीं सकता, मिटा नहीं सकता। मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे आने वाली पीढ़ी भी इसको खत्म करके ही रहेगी। ठीक वैसा ही हुआ। आज उन वीर शहीदों को भी लग रहा होगा कि हमने जो बलिदान दिया ,वह बेकार नहीं गई। इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कितना भी धन्यवाद दूं, कम पड़ेगा।
ललिता देवी बताती है कि राम मंदिर में पहली ईट रखने वाले कामेश्वर चौपाल ने मुझसे कहा कि आप विश्व हिंदू परिषद में आ जाइए। जब मैं संगठन में गई तो लोगों का व्यवहार देख बहुत अच्छा लगा। वहां सब लोग एक-दूसरे की सेवा एक भाई-बहन की तरह करते थे।
जिस वक्त बाबरी मस्जिद ध्वस्त करने की बात हुई कि कौन जाएगा। तब मैंने अपना पहला नाम लिखवाया था। लोगों ने मुझे रोका कि मेरे छोटे बच्चे हैं, लेकिन मैंने कहा कि वह मेरे बच्चे तो बाद में है पहले वह रामलला के बच्चे हैं और वहीं उसे संभालेंगे।
उस वक्त पुलिस की भूमिका पर ललित सिंह बताती है कि उस वक्त मुलायम सिंह की सरकार थी और पुलिस की भूमिका भी हमारे साथ परिवार के जैसी थी। सभी एक दूसरे को कॉपरेट कर रहे थे। बाहर से जो पुलिस आई थी, वह बार-बार कह रही थी कि जल्दी निकालो।
कहीं ना कहीं उनकी भी मानसिकता थी कि जल्दी जाओ…अरेस्ट मत हो। वह अपने भाव बता नहीं रहे थे, लेकिन कहीं ना कहीं वह भी यही चाहते थे कि बाबरी मस्जिद टूटे। जब मैं पकड़ी गई तो उन्होंने कहा कि अब यहां क्या कर रही हो, काम कर ली तो निकालो।
ललित सिंह भावुक होते हुए बताती है कि आज मेरा बहुत बड़ा सपना पूरा हुआ है। ऐसा लग रहा है कि जिस कार्य को हमलोगों ने थोड़ा सा किया, वो अब पूरा हो रहा। आज इतने भव्य रूप में रामलला आ रहे हैं।
इस खुशी को मैं बयां नहीं कर सकती। बस इसी पल का इंतजार था। लगता था कि उम्र बढ़ती जा रही है रामलला को कब देखेंगे अपने घर में? आज रामलला आ गए हैं तो अब जब भी जाऊंगी तो निश्चिंत होकर जाऊंगी कि उनकी पूजा हो रही है।
वह जब झोपड़ी में थे तो उनको कष्ट था। मुझे लगता था कि मेरे पास अगर शक्ति होती तो मैं रामलला के मंदिर बनने का आदेश दे देती, लेकिन एक साधारण नागरिक क्या कर सकता है। बस अफसोस करती थी, लेकिन आज वह भव्य मंदिर बना है तो समाज का हर वर्ग मोदी जी को धन्यवाद दे रहा हैं कि उन्होंने कारसेवकों का सपना पूरा किया।
ललिता बताती हैं कि मेरे पति मेरे साथ थे और मैं अपनी मां की बहुत लाडली थी। मेरी मां मेरे अयोध्या जाते समय भावुक हो रही थी। मैंने उनको समझाया कि मां आपने मुझे जन्म दिया है, लेकिन मेरा पालनकर्ता कोई और है। आज वह पुकार रहे हैं।
मां ने कहा कि जाओ बेटा..तुम्हारे दो बच्चे हैं..मैं देख लूंगी, लेकिन प्रभु से बस यही विनती है कि तुम सही सलामत वापस आ जाओ और अपने बच्चों को अपने आंखों के सामने बढ़ते हुए देखो।
जब मैं यहां से जा रही थी तो मेरे बड़े बेटे मेरा पैर पकड़ लिया और रोने लगा। तो उसने कहा कि मैं इसलिए नहीं रो रहा कि मेरी मां वहां मरेगी बल्कि इसलिए रो रहा कि अगर मां ही सब कुछ तोड़ देगी तो मैं बड़ा होकर क्या करूंगा।
इसलिए मेरे लिए भी कुछ अंश छोड़ दीजिएगा। आज यह सपना पूरा हुआ और मेरा बेटा भी बहुत खुश है। फिलहाल पीएम ने भीड़ की वजह से वहां आने के लिए मना किया है, लेकिन अगर बुलाया जाएगा तो जरूर जाऊंगी। नहीं तो 22 जनवरी के बाद अवश्य जाऊंगी।
ललिता के पति बताते हैं कि जब ललिता अयोध्या जाने लगी तो मैंने कहा मैं भी साथ चलूंगा और साथ गया। मेरी पत्नी शुरू से ही संघर्षशील है और काफी संघर्ष करने के बाद आज हम लोग यहां तक पहुंचे हैं। आज मंदिर हमारे यहां के सामने बन गया तो बहुत खुशी है। ऐसे चिंता होती थी कि क्या होगा क्या नहीं..ढांचा तो ढह गया, लेकिन मंदिर कब बनेगा। आज मंदिर बनने के बाद बहुत खुश हूं।
ललिता सिंह के साथ कोर्ट में वकालत करने वाले अरुण कुमार यादव ने बताया की इसमें कोई शक नहीं की ललिता शुरू से ही कर्मठ रही हैं। मैं ललिता को स्कूल के दिनों से जानता हूं और यह आज ही नहीं बचपन से ही संघर्षशील रही है।
वहीं, वकील सुरेश कुमार ने बताया कि मैं 1996 से यह काम कर रहा हूं, लेकिन उस वक्त मेरा इनसे कुछ विशेष परिचय नहीं था। धीरे-धीरे बातचीत के क्रम में पता चला की बाबरी मस्जिद को ढाने यह भी गई थी और आज राम मंदिर बनने में इनका भी बड़ा योगदान रहा है।
ललिता सिंह के साथ काम करने वाली इंदु देवी भी बाबरी मस्जिद को ढहाने में महिला कारसेवक में शामिल थी। उसे मंजर को याद करते हुए उन्होंने बताया की वह मंजर इतना अलग था जिसको बयान नहीं किया जा सकता। लोग ढांचे पर चढ़े हुए थे। तब आडवाणी, उमा भारती, ऋतंभरा और अन्य लोग सब एक ही बात कह रहे थे कि बच्चे उस पर मत चढ़ो। मना जरूर किया जा रहा था, लेकिन लोग नहीं माने और आराम से चढ़ गए।
मस्जिद ढहने में ज्यादा देर नहीं लगा। हम लोग यहां से विध्वंस करने ही गए थे और जो हमारा काम था वह हम लोगों ने किया। हमारी शुरुआत से यही सोच रही है कि रामलला हम लाएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। अब बस इंतजार है तो 22 जनवरी का। हालांकि उस दिन अधिक भीड़ होने की वजह से मैं वहां के कार्यकर्ताओं पर बोझ नहीं बनना चाहूंगी, लेकिन बाद में जाकर दर्शन जरूर करूंगी।
ललिता देवी महिला शक्ति पर नारा देते हुए कहती है कि हम भारत की नारी है फूल नहीं चिंगारी है, दम है कितना गबन में तेरे देख लिया है देखेंगे..! भारत की नारी हर क्षेत्र में यह साबित कर दी है कि हम में भी वह शख्सियत है जो पुरुषों में है।