सुचित्रा की खूबसूरती, अदाकारी और आंखों की तारीफें दिलीप कुमार, बिमल दा जैसे आला कलाकार भी किया करते थे

हिंदी सिनेमा में नायिका तो कई हैं, लेकिन इतिहास में आज भी महानायिका का दर्जा सिर्फ और सिर्फ सुचित्रा सेन को दिया जाता है। सुचित्रा की खूबसूरती, अदाकारी और आंखों की तारीफें दिलीप कुमार, बिमल दा जैसे आला कलाकार भी किया करते थे, यही वजह रही कि उन्हें स्क्रीन गॉडेस यानी पर्दे की देवी कहा जाता था।
सुचित्रा बेहद स्वाभिमानी थीं। शोमैन राज कपूर की फिल्में करना कई एक्ट्रेसेस का सपना हुआ करता था, लेकिन एक दौर वो भी रहा जब राज कपूर जैसी शख्सियत उन्हें फिल्म में लेने के लिए उनके कदमों पर आ बैठी थी। सुचित्रा ने ये कहते हुए उनकी फिल्म ठुकरा दी कि उन्हें राज कपूर का अंदाज पसंद नहीं आया।
सुचित्रा सेन कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ रही थीं, जबकि उनका स्टारडम उनकी शादीशुदा जिंदगी बर्बाद होने का कारण बन गया। फिर एक समय ऐसा भी आया जब सिर्फ एक फिल्म फ्लॉप होने के सदमे में उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री और लोगों से राब्ता खत्म कर दिया। दुनिया से छिपने के लिए वे 36 साल तक एक कमरे में कैद होकर रहीं
दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड दिया जाना था, लेकिन सुचित्रा अपने कमरे से निकलने को राजी नहीं हुईं और अवॉर्ड ठुकरा दिया। उनकी आखिरी इच्छा भी यही रही कि उन्हें दुनिया की नजरों से छिपाकर अंतिम विदाई दी जाए, जिससे कोई उनका चेहरा न देख सके
सुचित्रा सेन का जन्म 6 अप्रैल 1931 को बंगाल के सिराजगंज के पास स्थित भांगा बारी गांव (अब ये गांव बांग्लादेश में आता है) में हुआ था। उनके पिता कोरुणामॉय दासगुप्ता, पभा म्युनिसिपल के सैनिटरी इंस्पेक्टर थे, जबकि उनकी मां इंदिरा देवी एक गृहिणी थीं। 5 भाई-बहनों में सबसे छोटी सुचित्रा का असली नाम रोमा दासगुप्ता था, जो फिल्मों में आने के बाद बदला गया था।
जब 1947 में भारत आजाद हुआ, तब सुचित्रा सेन पभा गवर्नमेंट गर्ल्स हाई स्कूल की स्टूडेंट थीं। आजादी के बाद भारत-पाकिस्तान बंटवारे के दंगे शुरू हुए, जिसका असर बंगाल पर भी पड़ा। इन्हीं दंगों के दौरान ईस्ट बंगाल में हिंदू परिवारों के साथ बर्बरता की जाने लगी। सुचित्रा के पिता किसी तरह परिवार की जान बचाते हुए वेस्ट बंगाल आकर बस गए, जो उस समय हिंदुओं के लिए एक सुरक्षित जगह थी।
वेस्ट बंगाल में बसने के बाद पिता ने 15 साल की सुचित्रा की शादी बिजनेसमैन आदिनाथ सेन के बेटे दीबानाथ सेन से करवा दी
सुचित्रा को गाने का शौक था। घर में भी वो अक्सर काम करते हुए गुनगुनाया करती थीं। उनके पति दीबानाथ उनके हुनर की कद्र करते थे। वो चाहते थे कि सुचित्रा का हुनर चारदीवारी में कैद न रह जाए, यही वजह रही कि उन्होंने पत्नी को बंगाली सिनेमा का हिस्सा बनने का सुझाव दिया। दोनों ने मिलकर आदिनाथ को भी राजी कर लिया।पति ने मदद की तो 1952 में बन रही बंगाली फिल्म शेष कोठाय में उन्हें गाने का मौका मिला। फिल्म पूरी होने से पहले ही हीरोइन ने फिल्म छोड़ दी और फिल्म बंद हो गई। इसी समय बंगाली सिनेमा के मशहूर फिल्ममेकर सुकुमार दासगुप्ता ने सुचित्रा की खूबसूरती और हुनर को भांप लिया और उनका स्क्रीन टेस्ट लिया
सुचित्रा का स्क्रीन टेस्ट इतना बेहतरीन था कि उन्हें फिल्म सात नंबर कोयदी (1953) में कास्ट कर लिया गया। फिल्म की शूटिंग शुरू हुई और सुचित्रा की चर्चा बंगाली सिनेमा में होने लगी। फिल्म रिलीज होने से पहले ही सुचित्रा को 3 और बंगाली फिल्में कजोरी, सारे चोतोर और भगवान श्री श्री कृष्णा मिल गईं।फिल्म शारे चोतोर (1953) में सुचित्रा को उत्तम कुमार के साथ कास्ट किया गया था। ये फिल्म सुपरहिट रही और सुचित्रा सेन को बंगाली सिनेमा की टॉप एक्ट्रेसेस में गिना जाने लगा।सुचित्रा-उत्तम की जोड़ी ऐसी जमी कि जब भी बंगाली सिनेमा में कोई बड़ी फिल्म बनती थी, तो उसमें सुचित्रा सेन और उत्तम कुमार को ही कास्ट किया जाता था। इनकी आइकॉनिक जोड़ी, इंडियन सिनेमा की सबसे बेहतरीन पेयरिंग कहलाती थी, जो बंगाली सिनेमा का सुनहरा दौर लाई थी। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में दिलीप कुमार ने कहा था कि पर्दे पर उनकी पसंदीदा जोड़ी सुचित्रा और उत्तम कुमार की थी।
बंगाली सिनेमा में सुचित्रा सेन की खूबसूरती की चर्चा हर तरफ होती थी। यही वजह रही कि जब फिल्ममेकर बिमल रॉय को फिल्म देवदास (1955) के लिए पारो चुननी थी, तो मीना कुमारी के बाद उन्हें सबसे पहले सुचित्रा का ही ख्याल आया।
दरअसल, उन्होंने सबसे पहले ये रोल मीना कुमारी को दिया था, लेकिन उनके पति कमाल अमरोही ने उन्हें फिल्म करने की इजाजत नहीं दी। मीना ने फिल्म ठुकराई तो बिमल दा ने सुचित्रा को कास्ट कर लिया। दूसरी तरफ फिल्म में चंद्रमुखी का रोल नरगिस को दिया गया था, लेकिन वो अड़ गईं कि वो फिल्म तभी करेंगी, जब उन्हें पारो का रोल दिया जाएगा।
बिमल दा नहीं माने और नरगिस ने नाराजगी में फिल्म छोड़ दी। नरगिस के बाद चंद्रमुखी के रोल में बीना राय और सुरैया को भी बुलाया गया, लेकिन वो भी चंद्रमुखी नहीं बल्कि पारो बनना चाहती थीं। बिमल दा ने अपना फैसला नहीं बदला और सुचित्रा के नाम पर अड़े रहे। ऐसे में चंद्रमुखी का रोल वैजयंतीमाला को दिया गया और सुचित्रा बन गईं पारो।बिमल दा ने फिल्म देवदास की शूटिंग के पहले दिन सुचित्रा सेन और दिलीप कुमार की मुलाकात करवाई थी। जैसे ही दिलीप कुमार की नजर उन पर पड़ी, तो बड़ी-बड़ी आंखों और तीखे नैन-नक्श ने उनका ध्यान खींच लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया को दिए एक इंटरव्यू में दिलीप कुमार ने कहा था, वे अपनी एक नजर से बहुत कुछ कह जाती थी।
एक इंटेंस सीन की शूटिंग के दौरान दोनों को एक-दूसरे की आंखों में देखना था। जैस से ही सुचित्रा ने एक्सप्रेशन दिए, तो दिलीप कुमार और सेट पर मौजूद हर कोई उनका परफेक्शन देख हैरान रह गया।
वो एक ही डायलॉग को 5 अलग-अलग मॉड्यूलेशन के साथ बोल सकती थीं। सुचित्रा खामोश रहना पसंद करती थीं, सेट पर किसी से बोल-चाल नहीं रखती थीं, लेकिन अपने साथ काम करने वालों को बराबर इज्जत देती थीं, चाहे वो एक स्पॉट बॉय ही क्यों न हो।
30 दिसंबर 1955 को रिलीज हुई फिल्म देवदास हिट रही और फिल्म में काम करने वाले हर कलाकार को चौथे फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। दिलीप कुमार को बेस्ट एक्टर अवॉर्ड मिला और वैजयंतीमाला- मोतीलाल को बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस-एक्टर का। हालांकि सुचित्रा को अपने करियर के सबसे बेहतरीन रोल के लिए नॉमिनेशन तक नहीं मिला।
मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जाता है कि उस समय बांग्लादेश-भारत के बीच तनाव की स्थिति थी, ऐसे में कभी बांग्लादेश का हिस्सा रहीं सुचित्रा को नॉमिनेशन नहीं दिया गया। वहीं दूसरी तरफ वैजयंतीमाला ने ये कहते हुए बेस्ट सपोर्टिंग एक्ट्रेस का अवॉर्ड ठुकरा दिया कि उनका भी सुचित्रा की तरह लीड रोल था।
सुचित्रा की कामयाबी उनकी शादीशुदा जिंदगी के आड़े आई। कहा जाता है कि उनके पति दीबानाथ उनकी कामयाबी और स्टारडम से खुश नहीं थे, यही वजह रही कि दोनों के बीच झगड़े बढ़ने लगे। एक बार उन दोनों का झगड़ा इतना बढ़ा कि सुचित्रा कुछ दिनों के लिए अपनी दोस्त और एक्ट्रेस कानन देवी के घर जाकर रहने लगीं।
60 के दशक की शुरुआत में सुचित्रा सेन सात पाके बधा की शूटिंग कर रही थीं। एक दिन शूटिंग पर निकलने से पहले उनका, पति से इतना बड़ा झगड़ा हुआ कि सुचित्रा ने पति की शर्ट फाड़ दी। झगड़े के बाद जब वो शूटिंग पर पहुंचीं, तो उन्होंने डायरेक्टर से कहकर वही सीन फिल्म सात पाके बधा में रखवाया। 1963 में रिलीज हुई इस फिल्म ने सुचित्रा को इंटरनेशनल स्टार बनाया था।
लगातार बढ़ते झगड़ों के चलते एक रोज दीबानाथ, सुचित्रा और बेटी मुनमुन को छोड़कर न्यूयॉर्क चले गए। शिपिंग कंपनी में काम करते हुए उन्होंने कभी मुड़कर परिवार की ओर नहीं देखा। स्वाभिमानी सुचित्रा ने भी कभी उनसे संपर्क नहीं किया और अकेले बेटी की परवरिश की।
27 नवंबर 1970 को सुचित्रा की बेटी ने एक डरावना ख्वाब देखा और डर कर उठ गई। सुचित्रा ने उसे सुलाया और 28 नवंबर 1970 की सुबह एक इंटरनेशनल कॉल आया। बताया गया कि उनके पति दीबानाथ का निधन हो चुका है।
सुचित्रा लोगों की मदद से पति का शव कोलकाता लाईं, जहां पूरे परिवार की मौजूदगी में उनका अंतिम संस्कार हुआ। पति की मौत से सुचित्रा टूट गई थीं, लेकिन उन्होंने फिल्मों में काम करना जारी रखा।एक रोज राज कपूर अपनी फिल्म का ऑफर लेकर सुचित्रा सेन के घर पहुंचे थे। जैसे ही सुचित्रा सोफे पर बैठीं तो राज कपूर उनके कदमों के पास सटकर बैठ गए और फूल देने लगे। ये देखते ही सुचित्रा सेन ने उनकी फिल्म करने से इनकार कर दिया।
सुचित्रा ने बायोग्राफी ‘अमर बोंधु सुचित्रा सेन’ लिखने वाले राइटर अमिताभ चौधरी से कहा था, ‘मैंने फिल्म इसलिए रिजेक्ट की क्योंकि मुझे उनका तरीका और उनकी पर्सनैलिटी पसंद नहीं आई। जिस तरह का उनका रवैया था, जिस तरह वो पैरों पर बैठे, ये एक आदमी को शोभा नहीं देता।’
सुचित्रा ने सत्यजीत रे की फिल्म देवी चौधरानी ठुकराई थी। जिस समय सत्यजीत रे उनके पास ऑफर लेकर पहुंचे थे, तब वे दूसरी फिल्मों में व्यस्त थीं। जब सत्यजीत रे ने उनसे कहा कि वे उनकी फिल्म को तवज्जो दें, तो उन्होंने साफ कह दिया- मैं दूसरी फिल्में पूरी करने के बाद ही आपकी फिल्म साइन करूंगी।
राइटर अमिताभ चौधरी से बातचीत में सुचित्रा ने बताया था कि एक दिन वो दोस्त कानन देवी के पति हरिदास भट्टाचार्या की एक फिल्म की शूटिंग कर रही थीं। एक दिन उन्होंने डायरेक्टर से कहा कि वो अपने मुताबिक सीन करेंगी, इस पर हरिदास ने जवाब दिया, काम वैसा ही करना जैसा मैं कहूं।
सेट पर दोनों का जोरदार झगड़ा हुआ और सुचित्रा स्टूडियो छोड़कर घर निकल गईं। फिल्म बंद पड़ने के कई दिनों बाद हरिदास उनके पास आए और कहा, तुम्हें जैसा ठीक लगे, वैसा ही करना। ऐसे सुचित्रा ने वो फिल्म पूरी की।
सुचित्रा सेन को पसंद आ जाए, इसलिए लिखी गई फिल्म आंधी
हारपर कॉलिन इंडिया में जब गुलजार साहब की 3 बेहतरीन फिल्मों आंधी, अंगूर, इजाजत पर चर्चा हुई, तो उनसे पूछा गया कि आंधी में सुचित्रा सेन को कास्ट क्यों किया गया था?
गुलजार साहब ने जवाब में बताया कि पहले संजीव कुमार और सुचित्रा को एक टिपिकल बंबइया फिल्म में कास्ट किया गया था। जिस समय स्टोरी नरेशन का काम हुआ उस समय सुचित्रा कोलकाता में थीं। एक मीटिंग रखी गई, जिसमें संजीव कुमार, गुलजार साहब, प्रोड्यूसर जे. ओमप्रकाश, राइटर सचिन भौमिक मौजूद थे। जब बंबइया थीम की स्टोरी सुनाई गई, तो गुलजार साहब खड़े हुए और कहा, क्या आप लोगों को लगता है कि सुचित्रा सेन इस कहानी को सुनने के लिए कोलकाता से बंबई आएंगीं। वे ऐसी फिल्म क्यों करेंगी?
राइटर सचिन भौमिक ने सहमति जताते हुए कहा, सही कहा, ये बंबई है। हम यहां किसी भी एक्टर को बुला सकते हैं, लेकिन अगर सुचित्रा सेन को बुलाना है तो कहानी कुछ अलग होनी चाहिए
हर कोई इस बात से सहमत था। इसी बीच गुलजार साहब ने एक पॉलिटिकल ड्रामा फिल्म की कहानी सुनाई, जो हर किसी को पसंद आ गई। वो कहानी फिल्म आंधी की थी, जो उन्होंने सुचित्रा के लिए चुनी थी। ये बात भी कम लोग जानते हैं कि फिल्म आंधी के सेट पर हर कोई सुचित्रा को ‘मेडम’ नहीं ‘सर’ कहता था। ये रुतबा उन्हें गुलजार साहब ने ही दिया था।
14 फरवरी 1975 को रिलीज हुई फिल्म आंधी में सुचित्रा सेन ने आरती देवी का रोल प्ले किया था। कहा गया कि ये फिल्म तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर बनी है, जबकि ऐसा नहीं था। इस फिल्म को कांग्रेस पार्टी ने कई जगह रिलीज होने से रोक दिया।
फिर जब इमरजेंसी लगी, तो फिल्म को बैन कर दिया गया। कांग्रेस का मानना था कि इस फिल्म से उनकी पार्टी की छवि पर बुरा असर पड़ेगा। बैन के चलते फिल्म नेशनल टॉपिक बन गई थी। 1977 में जब कांग्रेस को हराकर जनता पार्टी सत्ता में आई, तो इस फिल्म का TV प्रीमियर किया गया था। ये सुचित्रा सेन के करियर की सबसे बेहतरीन फिल्मों में से है।
फिल्म आंधी के रिलीज होने के 2 साल बाद 1978 में सुचित्रा सेन बंगाली फिल्म प्रनय पाशा में नजर आई थीं। इस फिल्म का फ्लॉप होना सुचित्रा बर्दाश्त नहीं कर पाईं और उन्होंने तुरंत फिल्मों से रिटायरमेंट की अनाउंसमेंट कर दी। जबकि उस समय वो राजेश खन्ना के साथ नाती बिनोदिनी में काम कर रही थीं। उन्होंने फिल्म अधूरी छोड़ दी और फिल्मी दुनिया से सारे नाते तोड़ लिए।
फिल्में छोड़ते ही सुचित्रा सेन रामकृष्ण मिशन आश्रम से जुड़कर सात्विक जीवन जीने लगीं। चंद दिनों में ही उन्होंने घर के एक छोटे से कमरे में अपनी दुनिया बसा ली। इस दौरान भी उन्हें कई फिल्में मिलीं, लेकिन उन्होंने सारी फिल्में ठुकरा दीं। समय बीतता गया और एक समय ऐसा आया, जब वो कमरे में ही कैद रहने लगीं। उनके परिवार वालों को भी उनसे मिलने की इजाजत नहीं थी।
बायोग्राफी ‘अमर बोंधु सुचित्रा सेन’ लिखने वाले राइटर अमिताभ चौधरी से सुचित्रा ने कहा था, ‘मैं अकेले रहना पसंद करती हूं। मैंने अपनी बहन की बेटी रुना की शादी भी अटेंड नहीं की। मैं जहां भी जाती थी लोग मुझे डिस्टर्ब करते थे। मुझे कई लेटर आते थे, लेकिन मैंने न उन्हें खोला, न किसी का जवाब दिया। मैं इस तरह ही खुश हूं।’
साल 2005 में सुचित्रा सेन को दादासाहेब फाल्के अवॉर्ड दिया जाने वाला था। हालांकि जब उन्हें कॉल कर इसकी खबर दी गई, तो उन्होंने ये कहते हुए अवॉर्ड ठुकरा दिया कि वह अब लोगों के सामने नहीं आएंगी, अगर अवॉर्ड देना है तो घर आना पड़ेगा।
24 दिसंबर 2013 को सुचित्रा सेन को लंग इन्फेक्शन के चलते अस्पताल में भर्ती करवाया गया था। प्राइवेसी के चलते इस बात को पूरी तरह से राज रखा गया था। 17 जनवरी 2014 को सुचित्रा को अस्पताल में हार्ट अटैक आया, जिससे उनका निधन हो गया।
82 साल की सुचित्रा की आखिरी ख्वाहिश थी कि मौत के बाद भी उनका चेहरा किसी को न दिखाया जाए। यही वजह रही कि उनकी मौत के महज 5 घंटे बाद ही उनके परिवार ने कोलकाता के काइओरातोला श्मशान घाट में उनका अंतिम संस्कार कर दिया। आखिरी ख्वाहिश के मुताबिक उनका चेहरा ढंककर रखा गया था, जबकि उन्हें अंतिम विदाई देने हजारों चाहने वाले पहुंचे थे।
अगले शनिवार, 13 अप्रैल को पढ़िए कहानी दादा साहेब तोर्ने की कहानी। 1912 में भारत में पहली फिल्म बनाने के बावजूद उन्हें फिल्मों के जनक का दर्जा नहीं दिया गया। सालों बाद भी उनका परिवार उन्हें क्रेडिट दिलवाने की जद्दोजहद कर रहा है।