बरेली-आज संघमित्रा दिवस मनाया जाएगा,बौद्ध भिक्षुणी के रूप में किया था,बौद्ध धर्म का प्रचार


250 ई.पू. मगध की राजधानी पाटलिपुत्र में तीसरी बौद्ध संगीति (कॉन्फ्रेंस) हुई जिसमें सम्राट अशोक ने जंबूद्वीप (भारत) से बाहर नौ दिशाओं में धम्म प्रचार के लिए धम्मदूत भेजे. ताम्रपर्णी द्विप (सिंहल देश/ लंका) में अपनी इच्छा के अनुसार अशोक के पुत्र भिक्षु महेंद्र गए थे. संघमित्रा का पुत्र भी साथ गया.
महेंद्र का सिंहल देश जाना ऐतिहासिक घटना थी. वह अनुराधापुर पहुंचे तो वहां के राजा देवनामप्रिय तिस्स ने अद्भुत स्वागत किया. हजारों लोग धम्म की शरण आकर भिक्षु के रूप मे प्रचार करने लगे.
लेकिन भिक्षुणी कोई नहीं थी इसलिए राजकुमारी अनुला ने इच्छा जाहिर की कि वहां भिक्षुणी संघ भी हो. सम्राट अशोक को पत्र लिखा कि कोई भिक्खुणी भी भेजे और साथ में बोधिवृक्ष की टहनी भी.
सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र में जब यह बताया तो भिक्खुणी संघमित्रा इसके लिए उत्सुकता से तैयार हो गई. हजारों किलोमीटर दूर खतरनाक समुद्री यात्रा को पार कर ऐसे अनजान द्वीप तक जाना एक भिक्षुणी के लिए बहुत मुश्किल था लेकिन संघमित्रा धम्म के प्रति पूरी तरह समर्पित थी.
बत्तीस वर्ष की युवा भिक्षुणी अर्हत संघमित्ता धम्म प्रचार के लिए पाटलिपुत्र से ताम्रपर्णी द्वीप के लिए रवाना हुई. उनके साथ राज परिवार के कुछ पुरुष सदस्य व भिक्खुणियों का समूह था. लेकिन साथ थी सबसे अनमोल, बौद्धगया के बोधि वृक्ष की एक शाखा.
सम्राट अशोक ने सोने के बड़े पात्र में शाखा को लगाया. भारी जनसमूह के बीच श्रद्धा के साथ पूजा वंदन कर पात्र को सिर पर लिया और गंगा के पानी में गले तक उतर कर नाव में पुत्री को सौंपा. रास्ते में नाग राजाओं ने जगह जगह शाखा की पूजा वंदना की.
बंगाल की खाड़ी से होते हुए दुर्गम समुद्री मार्ग को पार कर सातवें दिन संघमित्रा अनुराधापुर पहुंची. राजपरिवार के साथ भारी धाम्मिक जनसमूह उनके स्वागत में पलक पावडे़ बिछाए खड़ा था. वहां के महामेघवन में बोधिवृक्ष की शाखा को वंदन कर लगाया गया जो आज भी विशाल वृक्ष के रुप में मौजूद है.
संघमित्रा के आगमन के दिन राजकुमारी अनुला सहित पांच सौ कन्याओं और सात सौ स्त्रियों ने प्रवृज्या (दीक्षा) ली और भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई. इसी के बाद अन्य देशों में भी भिक्षुणी संघ की स्थापना हुई.
दोनों भाई बहनों द्वारा धम्म प्रचार से लंका का सामाजिक, सांस्कृतिक व धाम्मिक परिदृश्य ही बदल गया. बुद्ध व धम्म के प्रति पूरा देश एकाकार हो गया. इनसे पहले वहां बुद्ध का कोई नामलेवा भी नहीं था.
आज सिरीलंका में महेंद्र व संघमित्रा को उतना ही सम्मान दिया जाता है जितना भगवान बुद्ध को. इस प्रकार प्रेम, करुणा व मैत्री की बुद्ध वाणी के धम्म का प्रचार करते हुए महाथेर महेंदा का 80 साल और महाथेरी संघमित्रा का 79 साल की उम्र में परिनिर्वाण हुआ.
उनके सम्मान में विशाल स्तूप बनवाए गये. हर साल माघ शीर्ष पूर्णिमा (full moon day) को ‘संघमित्रा दिवस’ बड़े उत्सव के रूप में मनाया जाता है दुनिया भर से लोग आते हैं.
यह कितना महान है कि ऐसे सम्राट के पुत्र और पुत्री ने राजसी जीवन त्यागकर भारत से बाहर सात समंदर पार लंका में आजीवन मानवतावादी धम्म का प्रचार किया. वंदन है उनके महान योगदान को.
सबका मंगल हो…. सभी प्राणी सुखी हो…सभी निरोगी हो
प्रस्तुति : डॉ एम एल परिहार, जयपुर