‘आँवला : मैं भारत का वासी हूं अब कहने लायक बचा नहीं।
यह राम लखन की धरती है अब ऐसा भारत बचा नहीं।।
बहुत हुआ सब सहन किया इन निर्मोही हत्यारों को।
लाखों बार निहारा हमने संसद की दीवारों को।
लाखों दीप जलाए हमने लाखों आंसू बहा दिए।
लाखों बार इंकलाब के नारे हमने लगा दिए।।
मैं पूछ रहा हूं इस भारत से जो गूंगा बनकर बैठा है।
बेटी नहीं सुरक्षित फिर भी किस अहंकार में ऐंठा है।।
जहां टियूंकल रोज निर्भया और मनीषा जल जाती हैं।
लाखों बेटी रेप के बाद जंगल में गल जाती हैं।।
उस देश का संविधान फिर क्यों गूंगा हो जाता है ।
क्यों चौराहों पर उन कुत्तों को जिंदा नहीं जलाता है।।
रोज मनीषा इस भारत में हमने मरती देखी हैं।
लाखों निर्भया दुष्टों के चंगुल में रोती देखी हैं।।
फिर भी न्याय व्यवस्था हमने गूंगी बहरी देखी है।
और भारत की संसद भी फिर हमने अंधी देखी है।।
उतर जाओ कुर्सी से वरना है ऐसा खेल दिखाएंगे।
सबसे पहले नेता को ही फांसी पर लटकाएंगे।।
कभी हाथरस, कभी अलीगढ़, कभी हैदराबाद हुआ।
72 साल बीत गये पर भारत नहीं आजाद हुआ।।
मेरी देश संसद की में भी ठीक नहीं संवाद हुआ।
इसी बजह से देश मेरा अपनों से बर्बाद हुआ।।
अब समय आ गया भगत सिंह की तरूणाई को याद करो।
हाथ जोड़कर विनती करता सबसे यही फरियाद करो।
या तो सहन करो दुष्टों को बेटी को ना याद करो।
या चौराहों पर दुष्टों को ही गोली मारो आजाद करो।।