लेखक का पैसा : प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”

साहित्य के सब नहीं तो बहुतेरे आयोजन आज भी स्नेह-भाव से ही होते हैं। उसमें आयोजक कोई लाभ नहीं कमाता। उलटे खीसे की गांठ ढीली करके बंदोबस्त-तमाम करता है। मंच, माइक और माला का पैसा जेब से देता है। हिन्दी का लेखक भी कोई वैसा नक्षत्र नहीं, जिसे सुनने के लिए कोई टिकट ख़रीदकर सभागार में आता हो, जिस पर फिर यवनिका-पतन के बाद लेखक अपना दावा पेश करे और मुनाफ़े में हिस्सेदारी की मांग करे। बहुधा तो ये आयोजन साहित्यानुरागियों के द्वारा उत्साह और प्रेमवश करवाए जाते हैं, कुछ अपने पुरखों की स्मृति में यह परिपाटी चलाए रखते हैं, कुछ वैसे उद्यमी-आयोजनधर्मी होते हैं जिन्हें इसी दौड़धूप में सुख मिलता है, पर यह तो निश्चित है कि साहित्य-समारोहों के अनेक आयाम हैं और हरेक आयोजन किसी वैसे बड़े लिट-फ़ेस्ट के मानदण्ड पर नहीं कसा जा सकता, जहाँ बड़ी दौलत चमचमाती हो।
देश में ऐसे जाने कितने आयोजक हैं, जो किसी शासकीय या निजी संस्था से सम्बद्ध नहीं, जिनके पास बड़े संसाधन नहीं, वो जेब से पैसा लगाकर साहित्य-कार्यक्रम करवाते हैं। लेखक के रेलगाड़ी-टिकट, रहने-खाने का प्रबंध तो करते ही हैं, बहुधा उन्हें दिए जाने वाले स्मृतिचिह्न आदि पर भी व्यय करते हैं। पुरस्कार-समारोह हो तो लेखक को धनराशि भी दी जाती है। किंतु सम्भव है वो सदैव ही लेखक को कोई भुगतान नहीं कर पाते हों। इसके पीछे लेखक का शोषण करने या उसका उपयोग करने की भावना उनकी शायद ही रहती हो। फिर वैसा भी नहीं है कि लेखक वैसे किसी कार्यक्रम में उपस्थित होकर आयोजक पर उपकार करता हो। कदाचित् अपनी दैनन्दिन व्यस्तता से कुछ समय निकालना उसके लिए असुविधाजनक हो, लेकिन साहित्य के आयोजनों में लेखक को जितना मान मिलता है, अपनी बात कहने के लिए मंच मिलता है, नए पाठक, प्रशंसक, प्रियजन मिलते हैं, क्या इन सबका भी कोई मोल लगाया जा सकता है, जिसके ऐवज़ में उलटे लेखक को इस संचित-पूँजी के लिए आयोजक को कुछ चुकाना हो? साहित्य का प्रयोजन तो परस्पर-संवाद ही होता है। किसी गल्प-गोष्ठी के माध्यम से लेखक-पाठक के बीच एक कड़ी बनकर आयोजक इसका निमित्त बन जावे तो उसी में उसकी पूर्णता है। यह ज़रूरी नहीं कि उसमें हमेशा ही पैसे-कौड़ी की बात बीच में आवे।
महात्मा गाँधी तो लेखन में स्वत्वाधिकार के भी विरोधी थे। यही कारण है कि नवजीवन प्रकाशन मंदिर की पुस्तकें नो राइट्स रिज़र्व्ड के साथ छपती रही हैं और गांधी शांति प्रतिष्ठान की पुस्तकों पर यह लिखा होता है कि इस पुस्तक की सामग्री का किसी भी प्रकार उपयोग किया जा सकता है, स्रोत भर का उल्लेख कर देंगे तो अच्छा लगेगा। इसके पीछे वही ट्रस्टीशिप वाला सिद्धांत है कि हम सार्वजनिक-महत्व की किसी वस्तु के स्वामी नहीं न्यासी होते हैं। अब महात्माजी के जैसा आचरण आज के लेखकवृन्द बनावेंगे, उनसे यह अपेक्षा करना तो बहुत अधिक हो जावेगा, किंतु दृष्टान्त के रूप में वह मिसाल प्रस्तुत की है।
इन पंक्तियों के अकिंचन लेखक को भी छठे-छमासे किसी साहित्य-समारोह का न्योता मिल ही जाता है। अपनी मनोगत-रूढ़ियों और संकोची-स्वभाव के कारण वह हाँ नहीं कह पाता। बहुधा आयोजकगण इस पर यह समझ बैठते हैं कि लेखक आर्थिक कारणों से इनकार कर रहा है। उनके द्वारा संसाधनों के अभाव की दुविधा प्रकट करने पर इन पंक्तियों का लेखक शर्म से गड़ जाता है और तुरंत सफ़ाई देता हुआ उन्हें आश्वस्त करता है कि पैसों की तो बात ही नहीं है, स्वभाव से ही किन्हीं सार्वजनिक समारोहों में जाता नहीं। उनके निमंत्रण-पत्रों, ब्रोशर, मोनोग्राफ़ वग़ैरा का निरीक्षण करने पर पाया जाता है कि वे बड़े सीमित संसाधनों के साथ ये कार्यक्रम करवाते हैं, जिसके मूल में स्नेह-भावना ही होती है। इससे लाभ कमाने का प्रश्न नहीं होता। सभी आयोजक संसाधनहीन होते हों, तब वैसा भी नहीं है। किंतु जो होते हैं, उनसे पैसों की माँग करना तो अरुचिकर है।
पिछले दिन देखा कि अनेक चर्चित लेखकों ने एक अभियान के तहत यह बात कही कि वो बिना पैसा लिए किसी कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं होंगे। इतने लेखकों ने यह बात कही है तो ठीक ही कही होगी। कुछ सोचकर ही बोला होगा, अनुभव से बात रखी होगी। फिर भी सुनकर ऐसा लगा कि लेखक का जो क़द होता है या होना चाहिए, उसकी तुलना में यह बात बौनी रह गई। उसका डौल नहीं जमा। वज़्न नहीं आया। कि बात में नमक की मिकदार कम पड़ गई। वैसे निश्चय सार्वजनिक घोषणाओं और संकल्पों का विषय नहीं होते, देशकाल-परिस्थिति के अधीन रहते हैं। वैसे निर्णय समूहगत भी नहीं होते, वैयक्तिक ही हो सकते हैं, क्योंकि हर लेखक का मिज़ाज, दुनिया-जहान से उसके नाते-रिश्ते, उसकी मूल्य-प्रणाली फ़र्क़ होती है। कभी किसी लेखक को लगे कि किन्हीं उत्साहीजनों ने किसी गांव-खेड़े-क़स्बे से न्योता भेजा है और वो वहाँ पर सहज ही जा सकता है तो उसको वैसा करने से स्वयं को रोकना नहीं चाहिए। “कितना रुपिया दोगे?” कहकर अपनी तासीर नहीं घटानी चाहिए। सरस्वती का उपासक यों निर्द्वंद्व होकर लक्ष्मी का चाकर बन जावे तो भला नहीं लगता। ईश्वर ने जो प्रतिभा दी है, उसके प्रति अगर भरसक निर्वैयक्तिक-भाव रख सके तो शुभकर। 
मन में दुविधा हो तो यही याद रख लें कि भारत के सबसे बड़े गायक रफ़ी साहब बिना पैसा लिए किन्हीं लक्ष्मी-प्यारे की पहली पिक्चर के लिए गा आते थे और विश्वकप जीतने के बाद भी डिएगो माराडोना नेपल्स के गली-कूचों में किन्हीं नियति-वंचितों के लिए चैरिटी फ़ुटबॉल खेल आता था और एक कौड़ी नहीं माँगता था। हिन्दी के नवान्कुर तो इन महानायकों की तुलना में खद्योत-सम भी नहीं। इति!

प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम”युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकारलखनऊ, उत्तर प्रदेशसचलभाष/व्हाट्सअप : 6392189466ईमेल : prafulsingh90@gmail.com