आँवला – जिन महापुरुषों को ये देश भूलता जा रहा है और उनके देश-समाज के लिए किए उल्लेखनीय कार्यों को नजरअंदाज कर रहा है, उनमें डा0 सच्चिदानन्द सिन्हा भी शामिल हैं। उनकी अगुवाई में ही बंगाल से बिहार को अलग करने की मांग को लेकर चला था आंदोलन।
सच्चिदानंद का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे विधिवेत्ता, राजनेता, शिक्षाविद और प्रखर लेखक और पत्रकार भी थे। सच्चिदानंद सिन्हा का जन्म बिहार के भोजपुर जिले के मुरार गांव के एक कुलीन कायस्थ परिवार में हुआ था। उन्होंने लन्दन में कानून की शिक्षा प्राप्त की और बैरिस्टर बने। मात्र 21 वर्ष की आयु में बैरिस्टर बनकर लंदन से स्वदेश लौटने पर 1891-92 में उन्होंने अलग बिहार राज्य की माँग की और जोरदार आन्दोलन चलाया। आप समझ सकते हैं कि वे कितने मेधावी किस्म के इंसान रहे होंगे कि इतनी कम उम्र होने के बावजूद उन्होंने एक बड़े आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्हीं के नेतृत्व में चले आंदोलन के फलस्वरूप लगभग दो दषकों के आंदोलन के बाद 1912 में बंगाल से अलग हुआ बिहार। और, उसके बाद ही बिहार का तेजी से विकास प्रारंभ हुआ। जो आगे चलकर 1960 के दशक में अवरुद्ध हुआ, विभिन्न कारणों के चलते। डा0 सिन्हा मानते थे कि बंगाल का अंग रहने से बिहार को लाभ नहीं होगा। उसका चैतरफा विकास नहीं होगा। वे गांव-गांव घूमे अपनी मांग के समर्थन में। सैकड़ों लेख लिखे। उनके आंदोलन का असर ये हुआ कि ब्रिटिश सरकार को अंततः झुकना पड़ा। हालांकि, जब उन्होंने पृथक बिहार के लिए आंदोलन छेड़ा था तब उसको लेकर अवाम कोई बहुत उत्साहित नहीं था। लेकिन, वे तो मानते थे कि बंगाल से अलग हुए बगैर बिहार का कल्याण नहीं होगा। वे कांग्रेस में भी रहे और कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव भी बने।
देश के संविधान के निर्माण के लिए जब 1946 में संविधान सभा का गठन किया गया तो उनकी योग्यता का सम्मान करते हुए सच्चिदानंद सिन्हा को ही संविधान सभा का पहला अध्यक्ष बनाया गया। बाद में उनके अस्वस्थ रहने के कारण उनके शिष्य डा. राजेन्द्र प्रसाद इसके अध्यक्ष बने। इसी संविधान सभा ने देश के संविधान को तैयार किया था। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को संसद भवन के सेंट्रल हॉल में सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में ही हुई थी। दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के लिये संविधान निर्माण कोई आसान काम नहीं था, तभी इसके निर्माण में 2 साल 11 महीने और 17 दिन लगे। इस दौरान 165 दिनों के कुल 11 सत्र बुलाये गये। देश के संविधान को अंतिम रूप देते वक्त संविधान सभा की प्रारूप समिति के संयोजक बाबा साहेब अंबेडकर भी उनसे लगातार परामर्श करते रहते थे।
डा0 सच्चिदानंद सिन्हा को आधुनिक बिहार का पितामाह कहा जा सकता है। वे बिहार और उड़ीसा विधान परिषदों के पहले अध्यक्ष भी रहे। अफसोस कि इतनी बड़ी शख्सियत को लेकर अब आधा-अधकचरा ही ज्ञान बिहार के नेताओं को है। बिहार में नीतीश कुमार ने ‘‘बिहार-दिवस’’ मनाना शुरु किया तब उन्होंने भी राजनीतिक और जातीय (अगड़े-पिछड़े की गंदी राजनीति के कारण) ‘‘बिहार-निर्माता’’ को कहीं भी प्रमुखता नहीं दी।
डा0 सिन्हा और गांधी जी लंदन के लॉ कालेज में सन 1890 में सहपाठी थे । अपने बिहार दौरों के दौरान सच्चिदानंद सिन्हा कई बार गांधी जी के साथ ही रहे। बिहार को समझने में बापू को डा0 सच्चिदानंद सिन्हा से बहुत मदद मिली थी।
कुछ साल पहले सच्चिदानंद बाबू के जन्म दिन को बिहार दिवस के रूप में मनाने की घोषणा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने की थी। हालांकि उस पर वे कायदे से अमल करना तक भूल गए। यानी आप अँदाजा लगा सकते हैं कि बिहार किस तरह से अपने ‘‘निर्माता’’ को ही भूल गया।
लंदन से शिक्षा ग्रहण करने के बाद वापस स्वदेश आने पर वे कलकता हाई कोर्ट में वकालत करने लगे। उनके ज्ञान और तर्कशक्ति की देखते-देखते धूम गई। सब उनके ज्ञान का लोहा मानने लगे। उनसे सलाह-मशविरा के लिए मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, पी0आर0दास और सी0आर0 दास जैसे मशहूर वकील भी पटना पहुंचते थे।
सच्चिदानंद सिन्हा बिहार के जाति के कोढ़ से घिरे समाज से आने के बावजूद जाति पर यकीन नहीं करते थे। उन्होंने लाहौर (अब पाकिस्तान में) की एक कन्या राधिका से विवाह किया था। उस दौर में अंतरजातीय विवाह करना कोई मामूली बात नहीं थी। इसके चलते उनका अपने कायस्थ समाज में विरोध हुआ था। इससे बेपरवाह डा0 सिन्हा ने अपनी पत्नी और अपनी संस्कृति को कभी नहीं छोड़ा।
उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर राधिका सिन्हा इंस्टीट्यूट और सिन्हा लाइब्रेयरी की 1924 में पटना में स्थापना की। ये बिहार की सबसे समृद्ध लाइब्रेरी मानी जाती है। इस लाइब्रेरी को ही बिहार की ‘‘सेंटल-लाइब्रेरी’’ की मान्यता दी गई है। डा0 सिन्हा ने बिहार के अवाम के बौद्धिक और शैक्षणिक विकास के लिए इसकी स्थापना की थी। तब से यह लाइब्रेरी छात्रों, शोधार्थियों और पुस्तक प्रेमियों के बीच ज्ञान का प्रकाश फैला रही है। शब्दों के लाखों शैदाइयों ने इस लाइब्रेरी का लाभ उठाया है। इसमें करीब दो लाख किताबें हैं। प्रतिदिन करीब 15 अखबार और हर महीने 27 पत्रिकाएं आती हैं। इसमें कभी पंडित जवाहर लाल नेहरू, डॉ0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ0 श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे चर्चित नाम भी इस लाइब्रेरी में आया करते थे। लाइब्रेरी में दशकों पुराने अखबारों का विशाल संग्रह है। इस लाइब्रेरी में पढ़कर सैकड़ों बिहारी युवक आई0ए0एस0, आई0पी0एस0 और केन्द्रीय सेवाओं में चुने गए।
डा0 सच्चिदानंद युगदृष्टा थे। वे मानते थे कि बिना देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के देश आगे नहीं बढ़ सकता। उन्होंने ही पटना यूनिवर्सिटी की स्थापना के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। वे इसके 1936 से लेकर 1944 तक पटना विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर भी रहे। इस दौरान पटना यूनिवर्सिटी देश की सर्वश्रेष्ठ यूनिवर्सिटी मानी जाती थी। उन्होंने वकालत के दिनों के दौरान जो कुछ भी अर्जित किया उसे आगे चलकर सामाजिक कार्यों के लिए दान दे दिया। पटना एयरपोर्ट, विधान सभा और विधान परिशद् उन्हीं की जमीन पर बना है। उनका जो पटना आवास था, उसमें आज बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का कार्यालय है।
सच्चिदानंद सिन्हा कलम के भी धनी थे। उन्होंने बिहार और देश के अपने कई नेताओं के ऊपर अलग से लेख लिखे। आज भी ‘‘सिन्हा लाइब्रेरी’’ में डा0 सिन की पढ़ी हुई हजारों ऐसी पुस्तकें हैं जिन्हें डा0 सिन्हा ने न केवल अध्ययन किया, बल्कि, उसे ‘‘अंडरलाइन’’ और ‘‘साइडताइन’’ भी कर रखा है।
उन्होंने ‘‘हिन्दुस्तान रिव्यू’’ नाम से एक अखबार भी निकाला। वे ‘‘इंडियन नेशन’’ अखबार के प्रथम प्रकाशक भी थे। डा0 सच्चिदानंद सिन्हा सामाजिक समरसता का सपना तब देख रहे थे, जब इस संबंध में कोई दूर-दूर नहीं सोच रहा था। वे बिहार में सभी जातियों के बीच में बेहतर संबंध स्थापित करने के पक्षधर थे।