झूम की खेती-: जब जनसंख्या बढ़ने पर वनों से आहार जुटाना दुर्लभ हो गया तो आदिवासियों ने चलती फिरती खेती से भी आहार जुटाना आरंभ कर दिया जंगल के पेड़ काटकर लकड़ी का मकान बनाने और जलाने के लिए भंडारित कर ली तथा शेष डालें और पत्तियों को सुखाकर आग लगाकर उच्च कटे हुए वन क्षेत्र को घास पात से मुक्त करके उसमें खेती कर ली 3 या 4 वर्ष में भूमि की उर्वरा शक्ति कमजोर हो गई घास पात अधिक उगने लगे तो उक्त क्षेत्र को छोड़कर फिर कोई दूसरा जंगल काटकर वहां खेती करने लगे इस घुमक्कड़ जीवन की खेती को ही झूम की खेती कहते हैं आरंभ में एक बार जहां खेती कर ली उस क्षेत्र में दोबारा जंगल काटकर खेती करने की आवश्यकता किसी आदिवासी के जीवन काल में नहीं आती थी जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ झूम की खेती और जंगल उगने का चक्र छोटा होता चला गया 40 वर्ष पूर्व तक वह चक्र 25 वर्ष का था जो अब घटकर 15 वर्ष रह गया है ठीक से पेड़ बड़ा नहीं हो पाता कि काटने का काम आरंभ हो जाता है झूम की खेती के कारण लकड़ी का उत्पादन तो घटता ही है जंगल के कटने से भूमि का कटाव भी बहुत होता है झूम का पर्याप्त बड़ा क्षेत्रफल कटाव के कारण बेकार होता है 15 प्रदेशों और केंद्रीय शासित क्षेत्रों में झूम की खेती होती है सरकारी टास्क फोर्स के अनुसार अधिक संख्या में झूम की खेती करने वाले आदिवासियों के परिवारों की संख्या 1983 में 650000 थी बड़ी संख्या आंध्र प्रदेश में 23000 अरुणाचल में 54000 आसाम 58000 मणिपुर 70000 मेघालय 52300 मिजोरम 50,000 नागालैंड 116000 उड़ीसा 141000 त्रिपुरा 46000 परिवार थे यदि झूम परिवारों को स्थाई रूप से बसाने का कोई समुचित प्रयास नहीं किया गया तो झूम की खेती करने वाले परिवारों की संख्या बीसवीं शताब्दी के अंत तक 10 लाख तक पहुंच जाएगी सातवीं योजना के अनुसार केवल 25000 परिवारों को स्थाई रूप में बसने का प्रयास सरकार करेगी आदिवासियों की बिगड़ती दशा और बढ़ता असंतोष वनों पर बढ़ता हुआ खर्च और घटती आय आदि अनेक कारण हैं जो वनों के साथ आदिवासियों को जोड़कर एक नई वन नीति बनाने की मांग करते हैं।
नई व्यवस्था-: वृक्ष विहीन भूमि से सालाना 41 टन प्रति हेक्टेयर उर्वरा भूमि बह जाती है। वन लगाने और काटने की एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसके अंतर्गत आदिवासी तथा अन्य वन्य जीवन पसंद करने वाले लोगों को वन विभाग का अधिकांश कार्य सौंपा जा सके। इसका सबसे अच्छा उदाहरण चीन में देखने को मिलता है। चीनी सरकार ने अपने वन क्षेत्र को किसानों की सहकारी समितियां अथवा व्यक्तिगत परिवारों को ठेके पर दे दिया है। आवंटित क्षेत्र में पेड़ उगाना उनकी देखभाल करना वह किसान करेंगे और पेड़ों की बिक्री से होने वाला आय में 30% भाग इन किसानों का होगा। इस चीनी व्यवस्था को भारतीय परिवेश में संशोधित करके लागू करना चाहिए। पहले यह निश्चय करना होगा कि सभी प्रकार की धरती पर कुल मिलाकर कितना क्षेत्रफल वनों के अंतर्गत आना चाहिए। भारत की लगभग 30 करोड़ हेक्टेयर भूमि में से लगभग 14 करोड़ हेक्टेयर भूमि में इस समय खेती हो रही है। इसमें से लगभग दो करोड़ हेक्टेयर ऐसी कृषि भूमि है जो अनिश्चित और अनुपजाऊ ही रहेगी। अतः उसमें वृक्ष उगाना लाभप्रद रहेगा। शेष 12 करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि में से भी 2 करोड़ हेक्टेयर कम उपजाऊ है। परंतु बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए उस 2 करोड़ हेक्टेयर को उपजाऊ बनाना होगा। इस प्रकार 30 करोड़ हेक्टेयर में से 12 करोड़ की कृषि भूमि रहेगी। 10 करोड़ हेक्टेयर भूमि कृषि के लिए बेकार अथवा अन्य सैकड़ों प्रकार के उपयोग में ली जा रही है। उसमें से 5 करोड़ हेक्टेयर बूकार भूम को भी के काम में लाया जा सकता है शेष 10 करोड़ भूमि में से 7 करोड़ पचास लाख हेक्टेयर वन भूमि है और 2 करोड़ पचास लाख हेक्टेयर वन भूमि है मिलाकर 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि वृक्षारोपण के काम में लाई जा सकती है जिसमें से तीन करोड़ हेक्टेयर भूमि तो भूमिहीन मजदूरों की इंसानी बस्ती बनाने के लिए जिसकी चर्चा आगे की जाएगी उपयोग में लाई जाए 15 करोड़ हेक्टेयर भूमि में वृक्षारोपण का कार्य मैदानी गांव की गरीब लोगों से कराया जाए तथा शेष सात करोड़ हेक्टेयर वन विभाग की भूमि आदिवासियों को प्राथमिकता के आधार पर ठेके पर दी जाए। एक हेक्टेयर प्रति परिवार कृषि भूमि देकर आदिवासी परिवारों को जो वन लगाने की भूमि आवंटित की जाए उसे प्रत्येक परिवार के प्लाट को 20 या 25 टुकड़ों में बांटा जाए कम व अधिक समय में कटने वाले वृक्षों के अनुसार इस प्रकार प्लाट के टुकड़े किए जाए जो प्रतिवर्ष एक टुकड़े के वृक्ष काटकर नए पेड़ लगाए जा सके। इस प्रकार आदिवासियों के प्रति परिवार एक अच्छी धनराज पेड़ों की बिक्री से मिल जाएगी और साधारण पारिवारिक खर्चा चलाने के लिए 1 हेक्टेयर का खेत होगा जंगल से लाख कत्था साल वृक्ष के तिलहन बीज बीड़ी बनाने के पत्ते शहतूत अर्जुन और साल के पत्तों पर पलने वाले रेशम के कीड़े जड़ी बूटियां पत्तों के थाली कटोरे आदि धंधे से उनको अतिरिक्त आय होगी। पशुपालन में गाय भैंस बकरी और मुर्गी के अतिरिक्त विशेषकर दक्षिण अमेरिका का लामा जानवर जंगलों में पाला जाना चाहिए अच्छी उन चमड़ा और मांस देने वाला लामा लंबी गर्दन लिए बकरी से 2 गुना बड़ा होता है। थोड़ा बुझा भी ले जाता है लामा की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह प्रत्येक पौधे को पचा लेता है एक बार मुंह नीचा करके चढ़ने लगता है तो जो कुछ सामने आता है चला जाता है और पेट भरकर ही मुंह ऊपर उठाता है। जंगल में नए लगाए पौधों के प्लांटों में तो थोड़ी खेती और भेड़ पालन हो सकता है परंतु बड़े पेड़ों के नीचे खरपतवार को नियंत्रण करने के लिए लामा सबसे उपयोगी जानवर है। यदि बुद्धिमानी और लगन के साथ उपरोक्त वन नीति लागू की जाए तो वन विभाग का कार्य पेड़ों के हिसाब रखने और पौध तैयार करने तक ही रह जाएगा। प्रतीक आदिवासी गांव एक सहकारी दुकान हो जहां उत्पादन के स्रोतों से लाया गया सस्ता माल उपलब्ध हो सके। अनेक गांव के बीच एक विद्यालय में छात्रावास का प्रबन्ध रहे।वन विभाग की सेवाओं में उक्त आदिवासियों को ही प्राथमिकता दी जाए इस प्रकार वनों में रहने वाले आदिवासी मध्यमवर्गीय स्तर का जीवन जीते हुए अपने बच्चों को शिक्षित बनाने में भी सफल रहेंगे।
संरक्षित वन -: वर्तमान में कोई भी प्रदेश सरकार जहां चाहे मोक्षित वन घोषित करके उसमें चिड़िया घरों का काम लेती है। यह भोलि विहीन संरक्षित वन बहुत खचले और अलाभकर है संरक्षित वनों की देश व्यापी पति होनी चाहिये जिसमें निम्नलिखित दिशायें आवश्यक है।
- भारत के 14 जलवायु क्षेत्रों में 14 ही संरक्षित वन होने चाहिये। जहां पूरी पृथ्वी पर पाई जाने वाली वनस्पतियों और जीव जन्तु तथा पक्षी विदेशों से लाकर रक्षित किये जायें। वनस्पतियां विशेषकर उपाई जायें और दुर्लभ जीवों का प्रजनन और रक्षा कराई जाये। उन वनों का लक्ष्य बनस्पति और जीव विज्ञान की सेवा करना होना चाहिये।
- प्रत्येक संरक्षित वन का विवरण सहित, उसको क्षमता अनुसार नियोजन किया जाये ताकि यह हिसाब लगाया जा सके कि किस वन में कौन कौन से पशु पक्षी कितनी संख्या में रह सकते हैं। निर्धारित संख्या से ऊपर के पशु पक्षियों का बड़ी धनराशि लेकर पर्यटकों को शिकार कराया जाये अन्यथा घास पात खाने वाला हाथी भूखा होकर पड़ोसी खेतों में फसल नष्ट करेगा और शेर परभक्षी हो जायेगा। दुर्लभ पौधे और पशु पक्षियों की बिक्री भी होनी चाहिये। संरक्षण के साथ-साथ उक्त वन, आय का साधन भी बनने चाहिये।
- जीव हो या पौधा उसके बीच में संकरण होकर बदलाव द्वारा एक नई नस्ल का बीज या पौधा विकसित होता है। वर्तमान पौधा और जीवों के बीज में बदलाव करके वैज्ञानिक नई नस्ल के पौधे और जीव तो बचा सकते हैं परन्तु जो पौधे और जीव पृथ्वी पर लुप्त हो गये वह अब कभी पैदा नहीं किये जा सकते। भारत एक अनोखा देश है जो पृथ्वी के सभी पौधों और जीवों को संरक्षण देकर, उनका वश कढ़ाकर उन्हें लुप्त होने से रोक सकता है। स्वयं भारत में ही 45000 प्रकार के पौधे हैं। जिनमें से 200 समाप्ति के कगार पर हैं। 850 प्रकार के चौपायों में से 81 चौपायें लुप्त होने के लगभग है। 850 प्रकार के अण्डज और पक्षियों में से 47 पक्षी नाममात्र को बचे हैं। 15 बिना हड्डी के जीव भी लुप्त होने वाले हैं।
जब दुनिया भर के दुर्लभ पौधे और जीयों को भारत में बढ़ावा मिलेगा तो वनस्पति और जीव विज्ञान में उन्नति के अतिरिक्त भारी आय भी हो सकती है।
संरक्षित वनों का लक्ष्य वनस्पति और जीव विज्ञान की सेवा करना होना चाहिये। पर्यटक भी वहां आयें परन्तु उनसे पर्याप्त आय होनी चाहिये तथा वनस्पति और जीवों के संरक्षण में कोई बाधा नहीं पहुंचनी चाहिये।
इन्सानी बस्तियाँ-: ग्रामीण कुटीर उद्योग समाप्त हो जाने से, अधिकांश कारीगर खेत, मजदूर बन गये। बढ़ती जनसंख्या और परिवार के बंटवारे ने, लाखों छोटे किसानों को भी भूमिहीन बना दिया। एक ओर तो खेत मजदूरों की संख्या बढ़ती गयी दूसरी ओर, बड़े किसान छोटे बनते गये खेत मजदूरों की मांग घटती गयी। जिन तथाकथित ऊँची जात के किसानों में स्वयं खेती करना नीची बात मानी जाती थी, उनमें से कुछ तो मजबूर होकर श्रम करने लगे और शेष बेगार लेना या कम मजदूरी देकर काम कराना चाहने लगे। फलस्वरूप खेत मजदूरों की करोड़ों की संख्या में, एक विशाल भीड़ असंतोष के कारण उत्तेजित होती चली गयी।
राजनीति ने भूमिहीनों का यश लेने का नाटक किया और सरकारी सहायता तथा प्रचार के साथ भूदान आन्दोलन आरम्भ हुआ। सरकारी आंकड़ों के आधार पर 42 लाख एकड़ भूमि भूदान में प्राप्त हुई। एक हैक्टर में लगभग ढाई एकड़ होता है। अधिकांश भूमि तो मौके पर नदी, मरघट आदि अन्य कार्यों से घिरी, मुकदमे में फंसी अथवा यश लूटने के लिये झूठी घोषणा की भूमि थी। इसलिये केवल तेरह लाख एकड़ भूमि ही बंट पाई। इस तेरह लाख में भी, ऊसर, बंजर आदि अनुपजाऊ भूमि ही अधिक है। तीन करोड़ से अधिक भूमिहीन किसानों में भूदान की भूमि, ऊंट के मुंह में जीरा सिद्ध हुआ और भूदान आन्दोलन समाप्त हो गया। प्रदेश सरकारों द्वारा हिसाब लगाया गया कि भूमि की कितनी हदबन्दी करके, कितनी फालतू भूमि बड़े किसानों से प्राप्त हो सकती है और अनेक बार भूमि की हदबन्दी की गयी।
उत्तर प्रदेश में पहिले 40 एकड़ फिर 18 एकड़ और निकट भविष्य में शायद 12 एकड़ अधिकतम कृषि भूमि रखने की हदबन्दी की जायेगी। सरकारी अनुमान के अनुसार हदबन्दी से 70-71 में तीन करोड़ एकड़ भूमि मिलनी चाहिये थी, 76-77 में वह अनुमान घटकर दो करोड़ एकड़ रह गया और प्राप्त हुई केवल 72 लाख एकड़ भूमि उसमें से पर्याप्त भूमि तो प्रदेश सरकार और उद्योगों ने ले ली, भूमिहीनों में बांटने के लिये केवल 44 लाख एकड़ भूमि ही बच पाई। भूमिहीनों की समस्या बढ़ती जनसंख्या और महंगाई के कारण लगातार जटिल होती गयी।
भूमिहीनों की समस्या का समाधान भी, आदिवासी समाधान से मिलता जुलता है। पाठक पढ़ चुके हैं कि वन विभाग की, परती किन्तु उपजाऊ भूमि में से 3 करोड़ हेक्टर भूमि भूमिहीनों को दी जा सकती है।
उक्त तीन करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचित कृषि भूमि बनाने के लिये, लाखों भूमिहीनों की एक विशाल भूमि सेना बनाई जाये जो नहर बांध बनाने से लेकर भूमि समतल करने और बसने वालों के लिये प्रति परिवार एक कमरा रसोई तथा बड़े आंगन के बनाने का भी कार्य कर सकें। उसी सेना के कर्मचारियों के प्रति परिवार एक मकान और एक हैक्टर सिंचित भूमि फलदार वृक्ष लगाने के लिये दी जाये। तीन करोड़ परिवारों के लगभग एक लाख नये गांव बसाने होंगे। इन नये गांवों में किसी को, जाति के आधार पर निरादर करने या सहने की आज्ञा नहीं होगी। उक्त गांव जाति की नहीं, इंसानों की बस्ती होंगे। एक हैक्टर भूमि में जब तक फलदार वृक्ष बड़े हों, खेती की जायेगी। उक्त परिवार उस वन भूमि का प्रयोग तो पीढ़ी दर पीढ़ी कर सकेंगे। परन्तु सम्पत्ति वह वन विभाग के पास रहेगी और कभी नहीं बेची जा सकेगी। उक्त एक हैक्टर भूमि से कोई परिवार सुखी नहीं हो सकता। अतः उक्त प्रत्येक परिवार के बच्चों को, हजारों प्रकार की आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं के पुर्जे बनाने की शिक्षा देनी होगी। बैंक ऋण द्वारा पुर्जे बनाने की मशीन खरीदना, सरकार द्वारा कच्चा माल देकर पुर्जे खरीदना और पुर्जों को जोड़कर वस्तुयें बनाते हुये सरकार द्वारा ही देश विदेश में बेचने की व्यवस्था करनी होगी।
जापान की भांति पुर्जे घरों में बनेंगे और उत्पादन आधुनिक उपभोक्ता वस्तुओं का होगा जो किसी भी देश को बेचा जा सकता है। इस प्रकार तीन करोड़ भूमिहीन अथवा एक एकड़ तक के छोटे किसानों की मुख्य आय पुर्जे बनाकर होगी और सब एक हैक्टर फलदार बगीचे के स्वामी भी होंगे। निरादर और दरिद्रता का एक साथ नाश करते हुये वर्तमान कृषि से 15 करोड़ जनसंख्या हट जायेगी और वन विभाग की तीन करोड़ हैक्टर भूमि में फलदान वृक्षों का वन लग जायेगा तथा तीन करोड़ मध्य वर्ग के नये परिवार तैयार हो जायेंगे।
इस प्रकार तीस करोड़ भूमि में से बारह करोड़ हैक्टर में खेती, पांच करोड़ हैक्टर भूमि अन्य कार्यों में और शेष तेरह करोड़ हैक्टर वृक्ष उगाने में प्रयोग हो सकेगी। एक तिहाई से अधिक भूमि में वृक्ष होंगे। पांच करोड़ हैक्टर जो बेकार भूमि है वह नदियों के कटाव, ऊसर गर्की, दलदल आदि की भूमि है और साधारण उक्त बेकार भूमि के आस-पास गांव भी बसे हुये हैं। अधिकांश भूमिहीनों तो मध्यम वर्ग का जीवन बिताने के लिये नये एक लाख इन्सानी बस्तियों में चले जायेंगे। अतः उक्त पांच करोड़ हैक्टर बेकार भूमि को, कारगर बनाकर वृक्षारोपण के काम में लाने के लिये भूमि की भौतिक दशा सुधारने का कार्य तो सरकार को करना होगा। सम्पत्ति वह ग्राम सभाओं की रहेगी और वृक्ष उगाने का काम अलाभकर छोटे किसान और शेष बचे भूमिहीनों का होना चाहिये। आदिवासियों की भांति, वृक्षों की आय का सत्तर प्रतिशत ग्राम सभा को और तीस प्रतिशत वृक्ष गाने वाले किसानों को मिलना चाहिये। उक्त भूमि में मांग के अनुसार वृक्षों की किस्म लगाई जा सकती है। औद्योगिक वृक्ष प्रकलिप्टिस, पोपलार आदि इमारती लकड़ी अथवा ईधन चारे के पेड़, उक्त पांच करोड़ हैक्टर वन क्षेत्र में उगाकर छोटे किसानों को लाभ पहुंचाते हुये ग्रामीण पर्यावरण को भी सुन्दर बना सकते हैं।
-इंजी अलप भाई पटेल