लंबित मामलों के बोझ तले दबा सुप्रीम कोर्ट अब 20-20 के मूड में आ गया है। शीर्ष अदालत के कई जजों ने अब वकीलों को लिखित दस्तावेज संक्षिप्त में देने और बहस से लिए समय निर्धारित करने की कवायद शुरू कर दी है। जल्द ही इसके लिए नियम बनाया जा सकता है। हाल के दिनों ने कई न्यायाधीशों ने वकीलों को दलीलों का संक्षिप्त सार, बहस से पूर्व देने के लिए कहना शुरू कर दिया है।
पिछले दिनों जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि भारत के सुप्रीम कोर्ट में ही ऐसा होता है जहां वकीलों घंटों और दिनों तक बहस करते हैं और एक के बाद एक सैकड़ों पन्नों का दस्तावेज पेश करते रहते हैं। पीठ ने कहा कि इससे न्यायालय का बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। जस्टिस कौल ने कहा कि अब समय आ गया है जब वकीलों को अपनी मानसिकता बदलनी होगी। पीठ ने कहा कि मोटे दस्तावेज और घटों तक बहस चलने से उन अपीलों के साथ हम कैसे न्याय कर पाएंगे जो 10 वर्षों से अधिक समय से लंबित हैं।
पीठ ने यह कहते हुए गुजरात के वकील यतीन ओझा के मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी और अरविंद दातार को अपनी बहस पूरी करने के लिए 30-30 मिनट का समय दिया। ओझा की वरिष्ठ वकील की पदवी छीन ली गई है। मामले में दोनों पीठ कीइस बात से सहमत भी दिखे। सुप्रीम कोर्ट के दूसरे जज भी वकीलों को संक्षिप्त बहस और चार-पांच पन्नों का लिखित सार प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। जस्टिस विनीत शरण और जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की पीठ भी वकीलों को न केवल बहस को बल्कि लिखित दस्तावेजों को संक्षिप्त पेश करने का आग्रह कर रहे हैं।
संक्षिप्त में कहें तो अक्षरों का आकार छोटा कर देते हैं
पिछले दिनों एक मामले में जस्टिस दिनेश माहेश्वरी ने कहा कि जब हम वकीलों को संक्षेप में लिखित सार रखने के लिए कहते हैं तो अक्षरों का आकार छोटा हो जाता है। कभी-कभी यह दवा के पत्तों पर लिखे अक्षर जैसा हो जाता है, जिन्हें पढ़ना संभव नहीं। जस्टिस माहेश्वरी फोंट साइज छोटा होने के लेकर आपत्ति जता चुके हैं।
सुप्रीम कोर्ट खुद में ला रहा बदलाव: ऐसा नहीं है कि वकीलों को ही समय की दुहाई दी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट खुद भी अपने फैसलों को स्पष्ट और छोटा लिखने का प्रयास कर रहा जा। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्य एक पीठ ने अपने फैसले में यह कहा है कि जजों को प्रयास करना चाहिए कि फैसले स्पष्ट और छोटे हो जिससे कि आम आदमी उसे समझ सके।
69,212 मुकदमे लंबित हैं सुप्रीम कोर्ट में: सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के मुताबिक, दो जुलाई 2021 तक सुप्रीम कोर्ट में 69,212 मुकदमे लंबित है। इनमें से 442 मामले संविधान पीठ के समक्ष लंबित हैं।
कई बार अदालत के भीतर और बाहर मांग उठती रही है कि सुप्रीम कोर्ट को सांविधानिक कोर्ट ही रहने दिया जाए। वहां सिर्फ सांविधानिक मसलों पर भी सुनवाई की जाए, जबकि अन्य मामलों की सुनवाई सर्किट ब्रांच में की जाए। हालांकि, अब तक इस संबंध में अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है।
अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में वकीलों को बहस के लिए मिलते हैं 25 मिनट
दुनिया के कई देशों के सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की बहस की समयसीमा तय है। अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट में वकीलों की बहस के लिए 25 मिनट का वक्त तय है। इसी तय समय सीमा के अंदर उन्हें अपनी सारी बातें रखनी होती है।
‘हिंदुओं-सिखों को भी मिले धार्मिक स्थलों के रखरखाव का हक’
सुप्रीम कोर्ट में एक नई जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती के लिए समान नियम की मांग की गई है। याचिका में कहा गया है कि देश के हिंदू मंदिरों पर अथॉरिटी का नियंत्रण है, जबकि अन्य समूहों को अपने संस्थानों का प्रबंधन करने की अनुमति है। याचिका में यह निर्देश देने की मांग की गई है कि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को भी मुस्लिम, पारसी और ईसाइयों की तरह धार्मिक स्थलों की स्थापना, प्रबंधन और रखरखाव के समान अधिकार है।
स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती द्वारा दायर इस याचिका में यह घोषित करने की भी मांग की गई है कि हिंदुओं, जैनियों, बौद्धों और सिखों को मुस्लिम, ईसाई और पारसियों जैसे अपने धार्मिक स्थानों की चल-अचल संपत्ति के स्वामित्व, अधिग्रहण और प्रशासन के समान अधिकार हैं।
जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य केवल कुछ धार्मिक संप्रदायों जैसे हिंदुओं और सिखों के धार्मिक स्थानों को नियंत्रित करके धार्मिक मामलों के प्रबंधन के मामले में भेदभाव कर रहे हैं।
अनुच्छेद 26 व 27 धार्मिक मामलों के प्रबंधन के मामले में धर्मों के बीच किसी तरह के भेदभाव की गुंजाइश नहीं छोड़ता। इससे पहले, इसी तरह की एक याचिका वकील व भाजपा नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर की गई थी, जिसमें धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती के लिए समान संहिता की मांग की गई थी और देशभर के हिंदू मंदिरों पर अथॉरिटी के नियंत्रण का हवाला दिया गया था।