धर्म, राजनीति और पैसे की तिकड़ी का खेल बड़ी तेजी से फल फूल रहा है, वैसे तो एक निराश, शोषित,परेशान और बिखरे समाज में बाबाओं का उभार कोई हैरानी की बात नहीं है लेकिन परेशानी तब पैदा होती है जब यह सियासत और राजनीति को अपने इशारों पर नचाने लगते हैं। आशाराम, गुरमीत, रामपाल, जैसे बाबाओं ने काफी सुर्खियाँ बटोरी हैं। सियासत को भी बाबा लोग खासे पसंद आते हैं और हों भी क्यों ना आखिर यह लोग एकमुश्त वोट बैंक उपलब्ध कराने की कुव्वत जो रखते हैं। ऐसा नहीं है कि सभी बाबा एक जैसे हैं। कुछ बाबाओं ने देश को एक नई पहचान भी दी है। बाबा रामदेव ने जहां योग के बल पर देश-विदेश में भारत का नाम रोशन किया है। वहीं श्री श्री रविशंकर ने भी दुनिया को आध्यात्म का पाठ पढ़ाया है। सियासत में भी इनका दखल कम नहीं है।
बाबा रामदेव
महेंद्रगढ़ जिले के गांव सैद अलीपुर के मूल निवासी योग गुरु बाबा रामदेव की राष्ट्रीय पहचान है। पिछले विधानसभा व लोस चुनावों में बाबा अपनी प्रत्यक्ष भूमिका दिखा चुके हैं। महेंद्रगढ़ जिले के गुरुकुल से अध्ययन के बाद बाबा रामदेव रेवाड़ी जिले के गांव घासेड़ा-किशनगढ़ स्थित गुरुकुल को अपनी कर्मस्थली बना चुके हैं। यह गुरुकुल आज भी बाबा के मार्गदर्शन में चल रहा है। पतंजलि व भारत स्वाभिमान ट्रस्ट जैसी उनकी संस्थाएं मतदाताओं से सीधा संपर्क साधती रही है। दिल्ली एनसीआर में ही नहीं बल्कि कई राज्यों तक इनका असर है।
चंद्रास्वामी कई वर्षों तक भारतीय राजनीति के केंद्र में रहे। उनकी शख्सियत कैसी थी, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक ओर तो उन्हें भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव का सबसे नज़दीकी सलाहकार माना जाता रहा तो दूसरी तरफ़ उन पर राजीव गांधी की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने का आरोप भी लगा। इन आरोपों के बीच कई देशों के शासनाध्यक्षों से मधुर संबंध, हथियारों की दलाली और हवाला का कारोबार, विदेशी मुद्रा अधिनियम का उल्लंघन जैसे कई संगीन आरोपों से भी चंद्रास्वामी सुर्खियों में रहे। कहा तो यह भी जाता है कि पीवी नरसिम्हाराव के पांच साल के प्रधानमंत्रित्व काल में चंद्रास्वामी को कभी प्रधानमंत्री से मिलने के लिए पहले से अप्वाइंटमेंट की ज़रूरत नहीं पड़ी। उनका जब भी मन होता था तो वह प्रधानमंत्री कार्यालय में बिना रोक टोक के जाते थे। बाद में सरकार तो बदल गई लेकिन चंद्रास्वामी का दबदबा कम नहीं हुआ। यह सिलसिला चंद्रशेखर के छोटे-से कार्यकाल के दौरान भी बना रहा। तब भी चंद्रास्वामी के दरबार में हाजिरी लगाने वाले नेताओं और नौकरशाही में कमी नहीं आयी।
आसाराम बापू उर्फ आसूमल थाऊमल सिरुमलानी 450 से अधिक छोटे-बड़े आश्रमों के संचालक हैं। उनके शिष्यों की संख्या करोड़ों में है। इनके दरबार में भी हाजिरी लगाने वाले नेताओं की लिस्ट बहुत लंबी है। नाबालिग लड़की का कथित यौन शोषण करने का आरोप लगने के बाद आरोपों की आँच उनके बेटे नारायण साईं तक भी पहुची। न्यायालय ने उन्हें 5 साल तक न्यायिक हिरासत में रखने के बाद 25 अप्रैल को नाबालिग से रेप के मामले में उम्रकैद की सजा का निर्णय लिया है। फ़िलहाल आसाराम जोधपुर जेल की सलाखों के पीछे कैद हैं।
गुरमीत राम-रहीम ने डेरा में रहते हुए ही फिल्मों व संगीत में भी हाथ आजमाया। वर्ष 2014 में उसका पहला म्यूजिक एलबम हाइवे लव चार्जर के नाम से रिलीज हुआ। इसके बाद उसने वर्ष 2015 में फिल्मों में भी प्रवेश किया और पांच फिल्मों का निर्माण किया जिनमें उसने खुद ही नायक की भूमिका निभाई। वह पीछे के रास्ते से राजनीति में उतरने की योजना बना रहा था। एक समारोह के दौरान उसने गुरु गोविंद सिंह का वेश भी धारण किया। सिख संगठनों ने विरोध किया तो उसने बाद में माफी मांग ली। हालांकि यौन शोषण के आरोपों ने अंत में उसे जेल पहुंचा दिया।
सतपाल महाराज व उनके प्रमुख शिष्य चुनावों के दौरान कई बार हरियाणा में आ चुके हैं तथा मतदाताओं को राष्ट्रीय हित में मतदान की अपील करते रहे हैं। कांग्रेस में रहते हुए सतपाल महाराज जहां केंद्र में मंत्री रहे वहीं भाजपा ने पहले उनकी पत्नी अमृता रावत व बाद में खुद महाराज को उत्तराखंड में मंत्री पद का जिम्मा सौंपा। फिलहाल भाजपा ने सतपाल महाराज को स्टार प्रचारकों की सूची में शामिल किया है।
शक्तिशाली हैं धर्मदेव
हरियाणा की राजनीति को कुछ हद तक प्रभावित करने वालों में रोहतक के अस्थल बोहर स्थित बाबा मस्तनाथ मठ के महंत बाबा बालकनाथ, गुरुग्राम के पटौदी स्थित हरि मंदिर आश्रम के संचालक स्वामी धर्मदेव व कुछ अन्य भी हैं। स्वामी धर्मदेव हालांकि एक बार चुनाव लड़ने के बाद प्रत्यक्ष राजनीति से तौबा कर चुके हैं, लेकिन उन्हें मार्गदर्शक मानने वाले नेताओं व भक्तों की कोई कमी नहीं है। बाबा बालकनाथ को तो भाजपा ने अलवर के लोकसभा चुनाव मैदान में उतार ही दिया है। इनके गुरु महंत चांदनाथ अलवर से लोकसभा सदस्य रह चुके थे। गत उनके निधन के बाद ही बालकनाथ ने गद्दी संभाली थी। सितंबर 2017 में जब उनका निधन हुआ था तब तीन राज्यों के मुख्यमंत्री उनके आश्रम में पहुंचे थे।
महंत बालकनाथ
बालकनाथ की भी उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ में पूरी आस्था है। इसके अलावा भी प्रदेश में ऐसे कई आश्रम व गुरुकुल हैं, जो राजनीति के मिजाज को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। बाबा के एक भक्त से जब सवाल किया तो जवाब आया-म्हारौ तो महाराज कहैगो उत बोट दयांगा।
गुरमीत ने किया बदनाम
अब बात गुरमीत राम-रहीम की। डेरा सच्चा सौदा-सिरसा का यह बाबा एक जमाने में बेहद प्रभावशाली था। डेरे में ही रहने वाली युवतियों के साथ दुष्कर्म के मामले में गिरफ्तारी के बाद इसका तिलिस्म टूटा तो है, लेकिन पूरी तरह नहीं। कैदी बनने के बाद भी ऐसे हजारों शिष्य हैं जो बाबा में भगवान देख रहे हैं। डेरा सच्चा सौदा के इस बाबा के सियासत में दखल को देखते हुए हरियाणा के अधिकांश राजनीतिक दल व वरिष्ठ नेता समय-समय पर सिरसा व अन्य स्थानों पर गुरमीत के आगे नतमस्तक रहे हैं। बदनाम होने वाले बाबाओं की सूची में कथावाचक आसाराम का नाम भी शामिल है। रामपाल को संत मानकर उनके इशारे पर चलने वाले आज भी मौजूद हैं। फिर भले ही ये बाबा जेल की सलाखों के पीछे हैं।
डेरों से निकलती सियासत
कहावत है कि हरियाणा और दिल्ली के आसपास की सियासत डेरों से भी चलती है। डेरों में नामदान व सेवा प्रकल्पों के माध्यम से शिष्यों की एक बड़ी फौज तैयार की जाती है। जो कहने को तो समाज को एक दिशा देने के लिए काम करती है, लेकिन असलियत इससे ठीक उलट है। डेरों व आश्रमों में श्रृद्धालुओं का यही संख्या बल बाबाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करता है। लोग डेरों में क्यों जाते हैं? किसी श्रद्धालु के डेरे जाने के आध्यात्मिक मूल्य को कमतर आंके बिना यह कहना गलत नहीं होगा कि इसके पीछे कुछ बेहद दुनियावी कारण हैं, जो कम अहमियत नहीं रखते।
वोट बैंक के रूप में करते इस्तेमाल
समान रूप से एक अहम कारण यह भी है कि डेरे के गुरु अपने अनुयायियों से एक आचरण संहिता का पालन करने की मांग करते है। लेकिन एक बार जब वे पर्याप्त ढंग से प्रभावित कर लिए जाते हैं, तो उन पर गुरु से ‘नाम’ लेने के लिए जोर डाला जाता है. नाम लेने का मतलब है कि श्रद्धालु को शपथ लेनी होती है कि उसे एक अनुशासित जीवन बिताना पड़ेगा। हरियाणा में कई डेरे व आश्रम ऐसे रहे हैं जहां राजनीति के दिग्गज आशीर्वाद लेने के साथ-साथ वोटों के लिए नतमस्तक रहे हैं। इसी तरह दिल्ली के रामलीला मैदान व अन्य स्थानों पर भक्तों की भीड़ जुटाकर में कई महाराज राजनीति में दम दिखाते रहे हैं। यह सच है की समय के साथ बाबाओं की भूमिका कम हुई है, लेकिन इनका दखल बंद नहीं हुआ है।
जय गुरुदेव के शिष्यों ने हिलाई थी उप्र की सत्ता
आध्यात्मिक गुरु रहे जयगुरुदेव का सियासत से रिश्ता जग जाहिर है। 18 मई 2012 को जय गुरुदेव के निधन के बाद उत्तराधिकार को लेकर घमासान हुआ था। एक तरफ उनके शिष्य उमाकांत तिवारी का दावा था, तो दूसरी तरफ गुरुदेव के साथ रहने वाले पंकज थे। मामला अदालत भी पहुंचा और उमाकांत तिवारी ने अपने समर्थकों सहित कई बार आश्रम आने की कोशिश की, मगर सफलता नहीं मिली।
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