क्या यूपी में प्रियंका की एंट्री और राहुल की न्याय योजना करेगी कमाल?

लोकसभा चुनाव के नतीजों से पहले आए सभी एग्जिट के अनुमान इस बात पर सहमत नजर आ रहे हैं कि यूपी में कांग्रेस की स्थिति जस की तस बनी हुई है. सभी चैनल्‍स के एग्जिट पोल ने कांग्रेस को महज दो से तीन सीटें ही देते नजर आ रहे हैं. अगर एग्जिट पोल के अनुमान नतीजे में तब्दील होते हैं तो एक बार फिर कांग्रेस अमेठी और रायबरेली तक ही सीमित रह सकती है.

दरअसल, यूपी में सपा, बसपा और रालोद गठबंधन में शामिल न होकर कांग्रेस ने अकेले चुनाव लड़ा. हालांकि, राहुल गांधी ने प्रियंका गांधी को सक्रिय राजनीति में उतारते हुए उन्‍हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंप दी. साथ ही राहुल गांधी ने यूपी में फ्रंटफुट पर खेलने का ऐलान कर कार्यकर्ताओं में जोश भी फूंका, लेकिन एग्जिट पोल के नतीजों पर इसका असर शिफर ही दिख रहा है. अब 23 मई को ही तस्वीर साफ होगी कि भाई-बहन की जोड़ी ने यूपी में क्या कमाल किया?

तीन राज्यों में जीत और प्रियंका की एंट्री के बाद पॉलिटिकल पंडितों की राय थी कि यूपी में कांग्रेस मुकाबले को दिलचस्प बना सकती है. लेकिन, एग्जिट पोल के अनुमानों से यही स्पष्ट हो रहा है कि मुकाबला बीजेपी और गठबंधन के बीच ही रहा. हालांकि, जानकारों का मानना है कि प्रियंका संगठन में जोश फूंकने में जरूर कामयाब रहीं.

प्रियंका की इंदिरा से तुलना कांग्रेस की अपरिपक्व रणनीति?


हालांकि, प्रियंका गांधी ने यूपी चुनाव प्रचार की पूरी कमान संभाली. उन्होंने यहां 40 रैलियां और इतने के करीब ही रोड शो कर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की. उनके रोड शो में भीड़ भी जुटी, लेकिन क्या वह वोट में तब्दील हुई? इसका पता 23 मई को आने वाले चुनाव परिणाम से ही चल सकेगा.

प्रियंका की सियासी एंट्री और कांग्रेस के प्रदर्शन को लेकर वरिष्ठ पत्रकार रतनमणि लाल कहते हैं इसके चार अहम पहलु हैं. उन्होंने कहा कि प्रियंका को सक्रिय राजनीति में उतारना राहुल गांधी की जरूरत तो थी ही, साथ मजबूरी भी थी. उनकी मानें तो कांग्रेस के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं था, जिसके बल पर चुनाव लड़ा जाए. इसके अलावा प्रदेश कांग्रेस कमेटी के वरिष्ठ नेताओं का चुनाव प्रचार को लेकर उदासीन रवैया भी प्रियंका गांधी वाड्रा को मैदान में उतारने की वजह बनी.

उन्होंने कहा, ‘कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी है. उसके लिए अन्य राज्य भी अहम हैं. इसके लिए यह भी महत्वपूर्ण है कि उसे स्टेट यूनिट से पूरा सपोर्ट मिले. इसलिए क्या यूपीसीसी से उसे समर्थन मिला? जवाब है बिल्‍कुल नहीं. क्या प्रदेश स्तरीय कांग्रेस के नेता ने प्रचार किया? जवाब है नहीं. प्रमोद तिवारी, निर्मल खत्री, आरपीएन सिंह, श्रीप्रकाश जायसवाल, सलमान खुर्शीद जैसे तमाम नेता प्रचार से दूर रहे. लिहाजा, राहुल के सामने प्रियंका को उतारना रणनीति भी थी और मजबूरी भी.’रतनमणि ने बताया कि प्रियंका को लॉन्च करने के बाद एक सन्देश ये गया कि उनकी एंट्री अनैच्छिक है. इसकी वजह ये है कि 23 जनवरी को पद दिया गया लेकिन वह लखनऊ 11 फ़रवरी को पहुंचीं. इस बीच कई बार उनके आने की ख़बरें आईं, लेकिन वह घर पर ही रहीं. इसके बाद एक सन्देश गया कि क्या वह अभी जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं हैं? भले ही यह सच न हो, लकिन ऐसी धारणा बनी.

रतनमणि लाल कहते हैं तीसरी गलती ये हुई कि कांग्रेस के पीआर ने यह बात फैलाई कि उनकी शक्ल इंदिरा गांधी से मिलती है और वह उन्हीं की तरह बोलती हैं. लिहाजा जो भी भीड़ उनके रोड शो और रैलियों में आई वह उन्हें सुनने कम और देखने के लिए ज्यादा थी. लोग इसलिए गए कि क्या वाकई में उनकी शक्ल इंदिरा गांधी से मिलती है? तो आपका पदार्पण ही राजनीतिक कारण की वजह से न होकर आपके लुक्स की वजह से हुआ तो आपकी आधी गंभीरता तो वहीं खत्म हो गई.

चौथी गलती थी प्रियंका के तीन बयान- पहला बयान कि कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव नहीं 2022 विधानसभा की तैयारी करें. दूसरा बयान था कांग्रेस बीजेपी के वोट काट रही है. तीसरा सबसे अहम बयान क्या मैं बनारस से लड़ूं? इन बयानों में गभीरता नहीं दिखी.

उधर, वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर पांडेय का भी मानना है कि प्रियंका की एंट्री लेट हुई. उन्होंने कहा कि जब कोई लीडरशिप आता है तो उसका करिश्मा बिना संगठन के नहीं चलता. प्रियंका ऐसे कांग्रेस को संभालने आई जिसका संगठन ही लुंजपुंज था. प्रियंका को वह संगठन मिला जो चुनाव के लिए तैयार ही नहीं था. ऐसे में प्रियंका ने मेहनत तो की, जिसका असर ये देखने को मिलेगा कि वोटिंग परसेंटेज बढ़ेगा और कई सीटों पर पार्टी लड़ती नजर आएगी. इसे कांग्रेस की उपलब्धि कह सकते हैं. वर्ष 2022 में कांग्रेस एक नई ताकत के तौर पर उभर सकती है. शर्त ये है कि अगर लगातार मेहनत की जाए.

न्याय योजना की जगह राफेल पर ज्यादा फोकस
राहुल गांधी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र में न्याय योजना, रोजगार और किसानों के कर्जमाफी का वादा कर कांग्रेस के पक्ष में हवा बनाने की कोशिश की. राहुल गांधी अपनी हर रैली में ‘अब होगा न्याय’ का प्रचार भी करते दिखे. रामेश्वर पांडेय का कहना है कि न्याय योजना गेम चेंजर योजना हो सकती थी, लेकिन राहुल ने रणनीति वही अपनाई जो बीजेपी को सूट करती है. ये पूरा चुनाव ‘मोदी हराओ या मोदी हटाओ’ के इर्द-गिर्द ही घूमता नजर आया. यहां मुद्दे दूर होते चले गए. दूसरी तरफ खुद राहुल राफेल पर ज्यादा जोर देते रहे और न्याय योजना सेकेंडरी रह गई. इसके अलावा संगठन कमजोर होने की वजह से न्याय योजना को समझाने में भी असमर्थ रहे.