अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में क्या बाइडेन से हार जायेंगे डोनाल्ड ट्रम्प

अमरीकी राष्ट्रपति पद के चुनावों की रेस में शामिल जो बाइडन को लेकर मेरी शुरुआती राय यही थी कि जिन कमज़ोरियों की वजह से बाइडन को डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी हासिल करने में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा था, वही कमज़ोरियां आख़िरकार उनके लिए राष्ट्रपति पद के चुनाव को जीतने में मदद करेगी.

ऐसे समय में, जब डेमोक्रेटिक पार्टी का झुकाव वामपंथ की ओर बढ़ता दिख रहा था, तब बाइडन का बीच का रास्ता निकालने वाला व्यवहारिक रुख़ पार्टी के लिए लाभकारी साबित होगा. अमरीका के रस्ट बेल्ट (इस्पात से जुड़े कारखानों और वहां रहने वाली श्रमिक वर्ग की आबादी के लिए मशहूर क्षेत्रों) के हार्ड हेट मतदाता (मुख्यत: श्रमिक समाज के मतदाता) और कुछ राज्यों के उपनगरों की स्टारबक्स कॉफ़ी हाउस में जाकर कॉफ़ी पीने की शौकीन मध्यवर्गीय महिलाओं को बाइडन नुक़सानदायक नहीं लेगेंगे. भीड़ को आंदोलित न कर पाने की उनकी कमी भी पूरी तरह से एक रुकावट नहीं है.

कई अमरीकी मतदाता चाहते हैं कि ट्रंप के आक्रामकता से भरे दौर के बाद एक ऐसा राष्ट्रपति आए जो अपने शांत स्वभाव के लिए जाना जाता हो.

बाइडन का दोस्ताना स्वभाव उनकी असली ताक़त रही है और उनकी मुस्कराहट एक तरह से उनकी फ़िलोसॉफ़ी रही है.

यहां एक ऐसा राजनीतिक माहौल है जिसमें मतदाता अक्सर इस आधार पर वोट देते हैं कि कौन सत्ता में आने के बाद कम नुक़सान करेगा. पार्टी के भीतर के उम्मीदवार के लिए समर्थन से अधिक प्रतिद्वंद्वी के प्रति नफ़रत रखने का भाव भी बाइ़डन की छवि के पक्ष में जा सकता है. ऐसे में बाइडन की छवि को एक नफ़रत करने वाले नेता की छवि कह पाना मुश्किल होगा.

शर्तिया तौर पर, ध्रुवीकरण के मामले में हिलेरी क्लिंटन से वो कोसों दूर हैं जिनके नकारात्मक पहलुओं के कारण ट्रंप के लिए साल 2016 में राष्ट्रपति बनना आसान रहा था.

भाषण देने के मामले में कमज़ोर

बाइडन की रैलियों में शिरकत करने के लिए मैं आयोवा और न्यू हैंपशायर गया था जहां मैं ये देखकर दंग रह गया कि 77 साल के बाइडन भाषण देने के मामले में क़तई सहज़ नहीं थे.

उनके भाषण लंबे-लंबे मोनोलॉग की शक्ल अख़्तियार कर लेते थे जो उनके सीनेट के दिनों की याद दिला रहे थे. कभी-कभार वह उप-राष्ट्रपति के अपने कार्यकाल के दौरान के अपने साथियों का नाम ले लिया करते थे. लेकिन उनके उदाहरणों और कहानियों से कोई भी राजनीतिक बात निकलकर नहीं आती थी.

जब वह अमरीका की आत्मा को बचाने की बात करते थे, तब उन्होंने कभी भी स्पष्ट रूप से ये नहीं बताया कि असल में उनका मतलब क्या होता है.

इसके बावजूद भी वह अपनी चिर-परिचित मुस्कान के साथ नज़र आया करते. लेकिन वह एक ऐसी शख़्सियत के रूप में सामने आते थे जो नकारात्मकता के दौर में आशा की किरण देख रहे थे.

मैं बीते 30 सालों से अमरीकी राजनीति पर रिपोर्टिंग कर रहा हूं लेकिन देश के सबसे बड़े पद की रेस में वह मुझे सबसे अधिक कमज़ोर उम्मीदवार लगे. वह साल 2016 में राष्ट्रपति पद की दौड़ से बाहर हुए जेब बुश से भी ज़्यादा ख़राब उम्मीदवार लगे.

फ़्लोरिडा के पूर्व गवर्नर जेब बुश कम से कम अपनी बात तो पूरी कर लेते थे चाहें उनकी बात ख़त्म होने के बाद कोई उनकी तारीफ़ करे या नहीं.

आयोवा और न्यू हैंपशायर कॉकस में चौथे और पाँचवे स्थान पर सिमटने के बाद कई लोगों ने ये सोचा था कि अब वह समय आ गया है जब जो बाइडन अपना जानामाना एविएटर चश्मा लगाकर राजनीतिक जीवन से विदा ले लेंगे.

जो बाइडेन के लिए शुरुआती प्राइमरी के नतीजे उत्साहवर्धक नहीं रहे थे.
राजनीतिक दुनिया में नया जन्म

लेकिन विदा लेना तो दूर की बात थी, जो बाइडन दक्षिणी कैरोलाइना चले गए जहां डेमोक्रेटिक पार्टी के प्रभावशाली काले कांग्रेस सदस्य जिम क्लिबर्न और अफ़्रीकी-अमरीकी समाज के समर्थन ने उनके राजनीतिक जीवन में एक नई ज़िंदगी फूंक दी.

मध्यम स्तर के प्रतिद्वंदियों जैसे पीट बटीगिग और एमी क्लोबुचर ने रेस से बाहर जाते हुए ट्रंप का समर्थन किया क्योंकि उन्हें लगा कि ट्रंप, बर्नी सैंडर्स की ओर से आ रही चुनौतियों का सामना कर सकते हैं.

किसी दौर में समाजवादी रहे बर्नी सैंडर्स के डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बनने के ख़तरे को देखते हुए उन्होंने तुरंत क़दम उठाया और सोचा कि जो बाइडन, बर्नी सेंडर्स के सत्ता में आने के ख़तरे को टाल सकते हैं और एक मज़बूत नेता साबित हो सकते हैं.

इसके कुछ दिन बाद सुपर ट्यूज़्डे के मौके़ पर जो बाइडन के ख़ाते में कई सफलताएं आईं. कुछ राजनीतिक जानकारों ने इस पर आश्चर्य जताते हुए कहा कि बाइडन ने उन प्रांतों में भी जीत हासिल की है जहां उन्होंने चुनावी अभियान में हिस्सा तक नहीं लिया.

लेकिन शायद इस बात का उल्टा अर्थ ही सच था. ये संभव है कि बाइडन को जिन स्थानों पर सफलता मिली उसकी वजह शायद ये थी कि वह उन जगहों में अनुपस्थित रहे थे.

ज़्यादा क़रीबी नुक़सानदायक हो सकती थी

आयोवा और न्यू हैंपशायर से मुझे यहीं सीख मिली कि अमरीकी मतदाता उन्हें जितना ज़्यादा देखेंगे, उनको वोट करने की उनकी संभावना उतनी ही कम हो जाएगी.

इसके बाद कोविड-19 को कारण लगाया गया लॉकडाउन जैसे उनकी उम्मीदवारी के लिए वरदान साबित हुआ. बाइडन ने बीते कुछ महीने अपने डेलावर स्थित घर के बेसमेंट में बिताए हैं और इसने उन्हें एक तरह से लोगों के सामने से जैसे ग़ायब होने का वरदान दिया है.

कोरोना के कारण लगाए सोशल डिस्टेंसिंग नियमों ने उस एक विवाद को भी लगभग ख़त्म कर दिया जिसने उनके चुनावी अभियान पर बुरा असर डाला था. ये विवाद बाइडन के महिलाओं को ग़लत ढंग से छूने को लेकर था.

महत्वपूर्ण बात ये है कि कोरोना महामारी के दौर ने डेमोक्रेटिक पार्टी में जारी विचारधारा की जंग को एक तरह से थाम दिया है. वामपंथियों के लिए कोई रास्ता न छोड़ते हुए, बाइडन और बर्नी सेंडर्स के बीच एकता दिखने लगी है. इसके तहत नागरिकों से जो वादे किए जा रहे हैं उनमें यूनिवर्सल हेल्थकेयर, ग्रीन न्यू डील, और ध्रुवीकरण बढ़ाने वाले मुद्दे जैसे कि इमिग्रेशन एवं कस्टम इन्फोर्समेंट एजेंसी को बंद करना और अवैध ढंग से सीमा पार करने को अपराध की श्रेणी से बाहर करना शामिल हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बाइडन को प्रगतिवादी तबके के कुछ प्रतिशत वोट नहीं मिलेंगे, जिसमें विशेषत: युवा वर्ग शामिल है. लेकिन उनका कैंपेन चला रहे जानकारों का मानना है कि ये कमी बुज़ुर्गों से पूरी हो जाएगी जिनमें से अधिकतर रिटायर्ड हैं. इनमें से कई पहले ट्रंप के समर्थक रह चुके हैं.

बुज़ुर्गों का ये मतदाता समूह न सिर्फ़ अन्य आयु वर्ग की अपेक्षा अधिक वोट करता है, बल्कि कोरोना महामारी के कारण यही वर्ग सबसे ज़्यादा जोखिम में भी है.

ऐसा लगता है कि उम्मीदवारी के लिए बाइडन की शुरूआत ज़रूर लड़खड़ाते हुए हुई थी लेकिन कोरोना वायरस महामारी ने एक तरह से उन्हें राजनीतिक एंटीबॉडीज़ दे दी हैं जो कि उन्ही की कमियों के ख़़िलाफ़ उनका बचाव कर सकती हैं.

1972 की इस तस्वीर में जो बाइडेन अपनी पहली पत्नी नीलिया और बेटे हन्टर के साथ
दुखभरे दौर में उनकी अपनी दुखभरी कहानी

दुख से भरे कोरोना के इस दौर में बाइडन की निजी ज़िंदगी की दुखभरी कहानी भी चुनाव के बीच जनता में चर्चा का विषय बन रही है. साल 1972 में सीनेट का चुनाव जीतने के तुरंत बाद बाइडन ने अपनी पत्नी नीलिया और अपनी 13 महीने की बच्ची नाओमी को एक कार एक्सीडेंट में खो दिया था.

कार एक्सीडेंट में बाइडन के बेटे बियू बच गए थे. साल 2015 में उनकी मौत एक दुर्लभ ब्रेन कैंसर से हो गई.

स्वाभाविक रूप से बाइडन सहानुभूति रखने वाले शख़्स हैं. उनकी अपनी ज़िंदगी को देखें तो पता चलता है कि वह उसी जगह पर हैं जहां अमरीका के एक लाख चालीस हज़ार दूसरे परिवार हैं जिन्होंने हाल ही में कोरोना वायरस की वजह से अपनों को खो दिया है.

अब तक ट्रंप के चुनावी अभियान में चलाए गए आक्रामक आरोपों जैसे – बुढ़ापे के दावे, चरम वामपंथ की ओर झुकाव के आरोप और बर्नी सैंडर्स से अच्छे संबंधों के लिए पुलिस के खर्च में कटौती पर सहमति के आरोप आदि अब तक बाइडन की रणनीति के लिए नुक़सानदेह साबित नहीं हो पाए हैं. वहीं बाइडेन लगातार ट्रंप के कार्यकाल और इस दौरान लिए गए फ़ैसलों पर अपना निशाना बनाए हुए हैं.

अमरीका में इन्कंबेंसी सामान्य रूप से सत्तारूढ़ दल के लिए फायदेमंद रही है. साल 1980 से सिर्फ एक राष्ट्रपति जॉर्ज हर्बर्ट वॉकर बुश दोबारा चुनाव जीतने में नाकाम रहे थे.

युद्ध काल के बाद के सालों यानी 1945 से 1980 के बीच भी ड्वाइट डी. आशनहॉवर एकमात्र राष्ट्रपति थे जिन्होंने अपने दोनों कार्यकाल पूरे किए थे. इस दौर में मतदाताओं ने जेरार्ड फोर्ड और जिमी कार्टर को भी सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था. लेकिन महामारी के दौरान राष्ट्रपति ट्रंप के बुरे प्रशासन ने उन्हें इनकम्बेंसी के फायदे से वंचित कर दिया है.

विकल्पों की तलाश जारी

इनकम्बेंसी और मजबूत अर्थव्यवस्था लगभग चुनावी जीत की गारंटी मानी जाती है.

साल 1992 में बुश सीनियर का चुनावी अभियान रिसेशन की ओर जाती अर्थव्यवस्था का शिकार हो गया क्योंकि चुनाव के दिन तक अर्थव्यवस्था पटरी पर नहीं लौट सकी. कोरोना महामारी ने भी अर्थव्यवस्था को बुरी तरह तबाह कर दिया है. जानकार मानते हैं कि इसकी वजह से अमरीका को द ग्रेट डिप्रेशन के बाद सबसे ज़्यादा बड़ा आर्थिक झटका लगा है.

अब तक जो मतदाता अपने फलते – फूलते 4 लाख के रिटायरमेंट प्लान्स की ओर इशारा करते हुए एक ऐसे राष्ट्रपति के प्रति अपने समर्थन को जायज़ ठहराते थे जिनके व्यवहार को वह नापसंद करते थे, वो भी इस समय विकल्पों की तलाश कर रहे हैं. चुनावी अनुमानों की मानें तो कई लोग पहले ही नए विकल्प तलाश चुके हैं

कथित रूप से कॉलेज की शिक्षा न पाने वाले गोरे मतदाता और ट्रंप के समर्थक उनका बड़ा वोटबैंक रहे हैं. ये समूह भी अब ट्रंप से किनारा करता दिख रहा है.

इन मतदाताओं के बीच साल की शुरूआत में ट्रंप 31 प्वॉइंट की बढ़त के साथ आगे दिख रहे थे लेकिन हाल में उन्हें दस अंकों का नुक़सान हुआ है. अनुमानों के मुताबिक़, जॉर्ज फ्लाएड की कथित हत्या के बाद हुए नस्लवाद विरोध प्रदर्शनों पर जिस तरह से प्रशासन ने कार्रवाई की उससे गोरे मतदाताओं की एक बड़ी संख्या सहमत नहीं हैं.

वे इस दौरान ट्रंप के सख़्त क़ानून-व्यवस्था वाले रुख से भी सहमत नहीं हैं. ट्रंप का ये रुख़ रिचर्ड निक्सन के साल 1968 के चुनावी अभियान की तरह दिखता है जिसके पहले भी नस्लीय हिंसा का दौर रहा था.

हो सकता है कि ट्रंप ने उस दौर और आज के वक्त के बीच एक बड़े फ़र्क़ की बात को नज़रअंदाज कर दिया हो. 1968 में निक्सन राष्ट्रपति नहीं थे.

साल 2015 की इस तस्वीर में जो बाइडेन अपने बेटे बियू के साथ. बियू की कैंसर से मौत हो गई थी.
चुनावों को अक्सर एक ऐसे विकल्प के रूप में पेश किया जाता है जिसमें से आपको बदलाव या निरंतरता में से किसी एक को चुनना होता है. लेकिन बाइडन के मामले में ऐसा है कि वह मतदाताओं के सामने इन दोनों विकल्पों का एक साझा मेल पेश करते हैं.

पोल्स में हिस्सा लेने वाले दस में से आठ अमरीकी मानते हैं कि देश ग़लत दिशा में जा रहा है और बाइडन उसे सही रास्ते पर लाने का वादा कर रहे हैं. इसलिए बाइडन ख़ुद को बदलाव के वाहक के रूप में पेश कर रहे हैं.

लेकिन एक पारंपरिक राष्ट्रपति के रूप में काम करने का वादा करके वह उन नियमों का पालन करने की बात करते हैं जिनका पिछले राष्ट्रपतियों ने भी पालन किया है. इस तरह वे निरंतरता के वाहक के रूप में भी खुद को पेश कर रहे हैं. वह खुद को उस श्रृंखला में सुधार की तरह पेश कर रहे हैं जिसे ट्रंप तोड़ रहे हैं.

संभल कर चल रहे हैं राजनीतिक जानकार

चुनावों को लेकर साल 2016 में की गई ग़लत भविष्यवाणियों से सीख लेकर राजनीतिक जानकार इस बार किसी तरह के कयास लगाने से बचना चाहते हैं. वो राष्ट्रपति का समय पूरा होने या न होने की भविष्यवाणी नहीं कर रहे हैं क्योंकि वो नहीं चाहते कि आकलन ग़लत साबित हो जाए. कुछ हद तक ये सावधानी ठीक भी है.

बाइडन जैसे ही अपने बेसमेंट से बाहर निकलेंगे और लोगों से सीधे मुलाक़ातें करेंगे उन पर लोगों की पैनी निगाहें होंगी. ‘मुश्किल में ट्रंप’ जैसी रिपोर्टें लिख-लिखकर थक चुके चुनावी अभियानों के बारे में लिखने वाले रिपोर्टर्स, बाइडन के एक ग़लत कदम को नाटकीय और मनोरंजक अंदाज़ में पेश करने से पीछे नहीं हटेंगे.

इसके बाद इलेक्टोरल कॉलेज की मुश्किलें भी हैं जिनका मतलब ये है कि पॉपुलर वोट गंवाने बाद भी डोनाल्ड ट्रंप को दूसरा कार्यकाल मिल सकता है, जैसा कि साल 2016 में हुआ था. हम इस संभावना से भी इनकार नहीं कर सकते कि चुनाव विवादित हो सकते हैं और कोर्ट के दरवाज़े तक पहुंच सकते हैं.

अमरीका में राष्ट्रपति चुनावों में उम्मीदवारों को सीधे जनता चुनती है लेकिन राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति को जनता सीधे नहीं चुनती. उन्हें इलेक्टोरल कॉलेज नाम की एक प्रक्रिया के तहत चुना जाता है जिसमें चुने इलेक्टर्स की एक समूह चुनता है.

निश्चित रूप से, ट्रंप को आसानी से दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि वह एक ऐसे राष्ट्रपति हैं जो कि किसी भी अन्य राष्ट्रपति की तुलना में सबसे ज़्यादा बार दुर्घटनाओं से बचकर निकले हैं.

हालांकि बीते चार सालों में उनके जख़्म गहरे हो चले हैं और इस महामारी ने उनके लिए और भी अधिक चुनौतियां पेश कर दी हैं. इसके अलावा ऐसे लोग जो अब तक ट्रंप का समर्थन करते रहे थे, वे भी अब उनके मुश्किलों से बचकर निकलने के तरीक़ों, दावों, सच को तोड़मरोड़ कर पेश करने और अपमान करने की आदतों से थक चुके हैं.