उत्तर प्रदेश में इस बार बीजेपी ने मिशन 80 का लक्ष्य रखा है। पूरब से पश्चिम तक वोट बैंक को साधने के लिए बीजेपी दूसरे दलों को साथ लाने में जुटी है। पूर्वांचल में तो ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा के साथ गठबंधन करके बीजेपी ने अपनी पकड़ और मजबूत कर ली है। वहीं, पश्चिमी यूपी के जाट लैंड में चर्चा है कि बीजेपी जयंत चौधरी को अपने साथ लाना चाहती है।
हालांकि जयंत चौधरी अभी I.N.D.I.A का हिस्सा हैं। लगातार वह बैठकों में शामिल भी हो रहे हैं। NDA की जो बैठक दिल्ली में हुई, उसमें 39 सहयोगी दल शामिल हुए। इस बात को लेकर भी खूब चर्चा रही कि जयंत चौधरी भी उसका हिस्सा बनेंगे। लेकिन अभी तक जयंत विपक्ष में हैं। लगातार बीजेपी को अलग-अलग मुद्दों पर घेर रहे हैं।
सवाल उठता है कि क्या आरएलडी, बीजेपी के लिए बहुत जरूरी है। अगर आंकड़ों की बात करें, तो यही इशारा मिलता है कि बड़े चुनाव में बीजेपी ने बिना आरएलडी के गठबंधन के हर बार जीत हासिल की।
आखिर किन वजहों के चलते बीजेपी फिलहाल जयंत चौधरी को लाने से पहले लंबा मंथन कर रही है। क्या जयंत चौधरी वाकई बीजेपी के लिए फायदेमंद हैं। क्या बीजेपी के लिए आरएलडी से ज्यादा मुफीद बसपा है…
उत्तर प्रदेश में 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी जोर-शोर से जुटी हुई थी। खास तौर से पूर्वांचल में कुर्मी वोट बैंक को साधने के लिए बीजेपी ने अपना दल के साथ गठबंधन कर लिया था। लेकिन उसकी परेशानी पश्चिम में जाट वोट बैंक की थी।
चर्चा हुई, आरएलडी को गठबंधन में साथ रखा जाए। कुछ बातचीत भी हुई, लेकिन आखिरकार उस वक्त के यूपी प्रभारी अमित शाह ने बिना आरएलडी के चुनाव लड़ने का फैसला लिया। परिणाम क्या हुआ यह तो जगजाहिर है। उस चुनाव में 6 बार बागपत की सीट से सांसद रहे स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह अपनी सीट नहीं बचा पाए थे।
इतना ही नहीं, उनके बेटे जयंत चौधरी को भी मथुरा में पहली बार चुनाव लड़ रहीं बीजेपी उम्मीदवार हेमा मालिनी ने मात दे दी। यानी बीजेपी की जाट वोट बैंक को लेकर जो टेंशन थी। वह चुनाव परिणाम आने के बाद दूर हो गई।
लोकसभा चुनाव 2019 के लिए उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा ने गठबंधन कर लिया था। आरएलडी भी उनके साथ थी। चर्चा यही थी कि ये गठबंधन बीजेपी के लिए काफी नुकसानदायक साबित होगा। लेकिन जब परिणाम आए तो सारे कयास धरे के धरे रह गए। आरएलडी को इस गठबंधन में कुल 3 सीटें मिली थी। उसे तीनों सीटों पर मात मिली।
स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह को मुजफ्फरनगर सीट पर संजीव बालियान ने चुनाव में पराजित किया था। तो वहीं बागपत सीट पर जो आरएलडी का गढ़ माना जाता है, जयंत चौधरी को बीजेपी के सांसद सत्यपाल सिंह ने मात दे दी थी। मथुरा की लोकसभा सीट पर आरएलडी के कुंवर नरेंद्र सिंह को हेमा मालिनी ने हरा दिया था। मार्जिन भी लगभग 3 लाख के आसपास था।
अब 2022 के विधानसभा चुनाव की बात करते हैं। जहां सपा के गठबंधन में आरएलडी ने पश्चिम में कई सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे। पश्चिम में तकरीबन 136 सीटें आती हैं। यह चुनाव इसलिए भी महत्वपूर्ण था, क्योंकि किसान आंदोलन के बाद खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट वोट बैंक को लेकर एक तरीके से बीजेपी के भीतर भी चिंता थी। लेकिन जब चुनाव परिणाम आए, तो जीत बीजेपी के खाते में ही गई। जबकि सपा के साथ गठबंधन के बावजूद भी आरएलडी को 8 ही सीटों पर जीत मिली। उनके गठबंधन को कुल 43 सीटों पर जीत हासिल होता है। जबकि बीजेपी ने वहां 93 सीटों पर जीत हासिल की।
सूत्रों की अगर माने तो आरएलडी मुखिया जयंत चौधरी फिलहाल बीजेपी के साथ जाने से परहेज कर रहे हैं। हालांकि इसके पीछे तो चर्चा यह भी है कि जयंत लोकसभा की 5 सीटें बीजेपी से मांग रहे हैं। मुश्किल ये है कि जो सीटें जयंत चौधरी मांग रहे हैं वह सीटें बीजेपी 2014 से लेकर 2019 तक के लोकसभा चुनाव में अपने बलबूते जीतती चली आ रही है।
कहा जा रहा है कि जयंत चौधरी पश्चिम की बागपत, मुजफ्फरनगर, अलीगढ़, कैराना और मथुरा सीट अपने लिए गठबंधन में चाहते हैं। लेकिन बीजेपी इन सीटों पर 2014 और फिर 2019 में भी कामयाब रही थी। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी इनके अंतर्गत आने वाली विधानसभा सीटों में भी उसे कई पर जीत मिली। इसीलिए शायद बीजेपी इस बात पर मंथन कर रही है कि क्या जयंत चौधरी उसके लिए फायदेमंद साबित होंगे?
बीजेपी शायद इस बात पर भी जरूर मंथन कर रही होगी कि अगर जयंत चौधरी उन सीटों को अपने लिए मांगे जहां बीजेपी 2019 में चुनाव नहीं जीत पाई थी। तो शायद बीजेपी को यह सीटें जयंत चौधरी को गठबंधन में देने में कोई मुश्किल नहीं होगी। हो सकता है कि पार्टी संगठन ये भी चाहता हो कि जयंत मर्जर करें या फिर अपने सिंबल पर केवल एक या 2 सीट पर चुनाव लड़ें। बाकी वो अगर बीजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़ने को तैयार हो तो बीजेपी उन्हें 6 से 8 सीटें भी लोकसभा चुनाव में दे सकती है। हालांकि कितनी सीटों पर बात अटकी है, दोनों ही ओर से इस पर कोई भी कुछ कहने को तैयार नहीं है।
बीजेपी का ये भी मानना है कि नगीना, बिजनौर, सहारनपुर, रामपुर, संभल, अमरोहा ऐसी सीटें हैं। जहां पर वोटों का गणित बीजेपी के लिहाज से उतना मुफीद नहीं है। अगर इन सीटों पर जयंत चौधरी अपनी दावेदारी करें तो शायद बीजेपी को यह सीटें उन्हें देने में कोई ज्यादा दिक्कत नहीं आने वाली है।
लेकिन जयंत चौधरी को भी इस बात का अंदाजा होगा कि इन सीटों पर उनकी ताकत कितनी है। यह सीटें जीतना उनके लिए भी आसान नहीं होगा। शायद इसीलिए वह उन्हीं सीटों पर दावा ठोक रहे होंगे, जो पहले से ही बीजेपी के पास हैं। हो सकता है कि बातचीत अटकने के पीछे सबसे बड़ी वजह यही हो।
उत्तर प्रदेश में हाल ही में नगर निकायों के भी चुनाव हुए अगर बागपत की खेकड़ा नगर पालिका की बात करें तो यह सबसे पुरानी निकायों में शामिल है। इसे अंग्रेजी हुकूमत में आज़ादी से बहुत पहले ही 1884 में टाउन एरिया कमेटी बना दिया गया था, इस नगर पालिका में आधे से अधिक जाट समुदाय के वोटर हैं, लेकिन नगरपालिका के चुनाव में इस सीट पर बीजेपी ने जीत हासिल की यानी इस सीट पर जाट समाज का वोट बीजेपी के पक्ष में गया
2019 के लोकसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने सपा के साथ गठबंधन किया और लोकसभा की 10 सीट पर उसकी जीत हुई। खासतौर से उन सीटों पर उसे जीत मिली, जहां पर जाटव और मुस्लिम वोट बैंक अच्छी खासी संख्या में है। बहुजन समाज पार्टी का फोकस मुस्लिम वोट बैंक को अपने साथ लाने पर है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में जब निकाय के चुनाव हुए तो मेयर के 17 में से 11 में उम्मीदवार बसपा ने मुस्लिम समाज के लोगों को ही बनाया।
वर्तमान में बसपा के 10 सांसद हैं। बिजनौर, नगीना, अमरोहा, सहारनपुर, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती, लालगंज, घोसी और गाजीपुर के साथ-साथ जौनपुर की लोकसभा सीट बसपा के खाते में है। इसमें अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों को देखें तो यहां बसपा अपने कोर वोट बैंक जाटव और मुस्लिम समाज के सहारे दूसरे दलों के लिए सबसे बड़ी मुश्किल खड़ी कर सकती है।
हम यह इसलिए कह रहे हैं कि बीजेपी के लिए बसपा आरएलडी से बहुत ज्यादा मुफीद है। क्योंकि बीजेपी जहां पर कमजोर है। बसपा वहां बेहद मजबूत।
अगर बसपा बीजेपी के साथ आती है। उसका फायदा ना केवल उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर मिलेगा। बल्कि देश के कई ऐसे राज्य हैं, जहां पर बसपा का अपना वोट बैंक है। अपना जनाधार है। उसका फायदा भी बीजेपी को मिल सकता है। इनमें पंजाब, तेलंगाना, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश शामिल है।
हालांकि बसपा सुप्रीमो मायावती लगातार यही कह रही हैं कि वह 2024 का लोकसभा चुनाव अकेले अपने दम पर लड़ेंगी। किसी के साथ कोई गठबंधन नहीं करेंगी। लेकिन मान लीजिए बीजेपी के साथ बसपा की कोई बात अगर बनती है तो बीजेपी को नगीना, बिजनौर, सहारनपुर, रामपुर, संभल,अमरोहा जैसी सीटों को बसपा को देने में कोई भी परेशानी नहीं होगी। बसपा भी इन सीटों को लेने में नहीं हिचकेगी।
हालांकि 2019 में बीजेपी ने पूर्वांचल की जो सीटें हारी थी उसे इस बार 2024 में जीतने के लिए उसने ओमप्रकाश राजभर के साथ गठबंधन कर लिया है। दारा सिंह चौहान भी साथ आ गए लेकिन खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर उसके लिए सबसे ज्यादा मुफीद बहुजन समाज पार्टी ही नजर आ रही है। क्योंकि उसकी वजह से ही बीजेपी को इन सीटों पर 2019 में मात मिली थी।
राजनीति में किसी भी संभावना से कभी भी इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन बीजेपी जैसी बड़ी पार्टी हर एक चीज को बहुत बारीकी से समझती है। अल्पकालिक लाभ के लिए नहीं, बल्कि बीजेपी दीर्घकालिक लाभ के लिए बड़े फैसले लेने से भी नहीं हिचकती है। हालांकि चुनाव में अब लगभग 8 महीने का ही वक्त बचा है। अगस्त के बाद उत्तर प्रदेश में चुनावी घमासान बढ़ जाएगा। ऐसे में हो सकता है कि कुछ नए सियासी समीकरण भी उत्तर प्रदेश में बनते दिखे
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने शनिवार को नई टीम का ऐलान किया। इसमें UP के 8 बड़े नेताओं को भी शामिल किया गया। राजनीतिक जानकारों की मानें, तो भाजपा की लिस्ट में 2024 के लोकसभा चुनावों को देखते हुए 3 समीकरणों का ध्यान रखा गया है।
पहला- मुस्लिम वोटर। दूसरा- गुर्जर समाज। तीसरा- कुर्मी समाज। ये ऐसा वोट बैंक है, जो सपा-बसपा-कांग्रेस और भाजपा में बंटा हुआ है। ऐसे में भाजपा इस वोट बैंक को साधने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती।