मृतक आश्रितों की नियुक्ति क्यों नहीं हो रही, परिवहन विभाग को निजी हाथों में देने की भी सुगबुगाहट

अभी के पिता यूपी परिवहन निगम में बस कंडक्टर थे। रिटायरमेंट के पहले ही मौत हो गई। जिसके बाद अभी को नौकरी मिलनी थी। 4 साल बीत गए लेकिन नियुक्ति नहीं मिली।
ऐसा सिर्फ अभी पटेल के साथ नहीं बल्कि 815 लोगों के साथ है। ये सभी उन बस ड्राइवर और कंडक्टर के बच्चे हैं जिनके पिता की नौकरी के दौरान ही मौत हो गई। नियुक्ति की मांग को लेकर ये सभी प्रदर्शन कर चुके हैं। परिवहन मंत्री दयाशंकर सिंह से मिल चुके हैं। विभाग के अधिकारियों से मिल चुके हैं। लेकिन सिवाय आश्वासन के अभी तक कुछ नहीं मिला।
सरकार के वादे और अब तक के स्टेटस को देखा। मंत्री के बयानों को देखा। साथ ही परिवहन विभाग में चल रहे निजीकरण को समझा। आइए सभी बातों को एक-एक करके समझते हैं। सबसे पहले बात इन्हीं 815 मृतक आश्रित अभ्यर्थियों की।
हाथरस के शिवम शर्मा ने सरकार को पत्र लिखा है। उन्होंने कहा, “मेरे पिता अलीगढ़ क्षेत्र में कार्यरत थे। कोरोना आया तब सबसे पहले 2 सितंबर 2020 को मेरी बहन की मौत हुई। 15 अप्रैल 2021 को मेरे पापा और 16 अप्रैल को मेरी दादी की भी मौत हो गई। मैं खुद कोरोना संक्रमित रहा। अब मेरे परिवार में मैं और मेरी मां ही हैं।” इसके आगे उन्होंने पत्र के जरिए सरकार से नौकरी की मांग की।
मृत सरकारी सेवकों के आश्रितों की भर्ती नियमावली-1974 के अनुसार होती है। पिछली बार परिवहन विभाग में 4 साल पहले 588 पदों पर भर्ती की गई थी। इसके बाद विभाग डेटा इकट्ठा करता रहा। लेकिन किसी की नियुक्ति नहीं हुई। मृतक आश्रितों की कुल संख्या अब 815 हो गई है। इनमें ज्यादातर उन ड्राइवर और कंडक्टर के बच्चे हैं जिनकी मौत एक्सीडेंट में हुई है।।
2019 में मृतक आश्रित नौकरी के लिए उस वक्त के परिवहन मंत्री अशोक कटारिया के पास पहुंचे। कटारिया ने विभाग को आदेश दिया कि सारे डेटा इकट्ठा करके सरकार के पास भेजे जाएं। विभाग ने आंकड़े भेजने में करीब 2 साल लगा दिए। 2021 में सरकार के पास मृतक आश्रितों का पूरा डेटा मौजूद था। 5 जनवरी 2022 को कैबिनेट में इनकी नियुक्ति को लेकर फैसला होना था लेकिन आचार संहिता के चलते फैसला ही नहीं हो पाया।
11 जुलाई के एक शासनादेश का हवाला देते हु यूपी कैबिनेट ने मृतक आश्रितों की भर्ती वाली फाइल विभाग को वापस कर दिया। इस तरह से तुरंत नियुक्ति किसी संभावना पर ब्रेक लग गया। तब परिवहन मंत्री दयाशंकर ने कहा था, हमने नियुक्ति के लिए प्रमुख सचिव और सीएम योगी से आग्रह किया लेकिन हम उस वक्त निरुत्तर हो गए जब तर्क दिया गया कि परिवहन निगम घाटे में चल रहा। 11 जुलाई 2003 को बने एक शासनादेश का हवाला दिया गया, जिसके मुताबिक कोई विभाग घाटे में होगा तो नियुक्ति नहीं दे सकता।

हमने इस सिलसिले में रोडवेज कर्मचारी संयुक्त परिषद के महामंत्री गिरीश चंद्र मिश्र से बात की। उन्होंने कहा, फिलहाल अभी नियुक्ति को लेकर किसी तरह की बात नहीं हो रही। जैसे ही किसी तरह की संभावना होगी हम बताएंगे।।
परिवहन विभाग पिछले 5 साल से लगातार फायदे में है। विभाग से ही प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 2017-18 में 122.10 करोड़ का फायदा हुआ। 2018-19 में 98 करोड़ का फायदा हुआ। 2019-20 के सत्र में सबसे अधिक 142 करोड़ रुपए का फायदा हुआ। 15 और 16 अक्टूबर 2022 को UPSSSC ने पेट की परीक्षा करवाई थी। इन दो दिनों में ही विभाग को 11 करोड़ रुपए का फायदा हुआ था। ऐसे में विभाग के घाटे में होने की बात सही नजर नहीं आती।
विभाग ने सभी क्षेत्रीय प्रबंधकों से बस अड्डे की जमीन का खतरा-खतौनी मांगा है। साथ ही सर्किल रेट की भी जानकारी मांगी है। ठीक इसी तरह से रेलवे अपनी जमीन पर मॉल और अन्य प्रतिष्ठानों को बनाकर उसकी जिम्मेदारी निजी हाथों में सौंपता है। आशंका है कि परिवहन विभाग भी यही तरीका अपनाएगा।
यूपी परिवहन विभाग के पास 23 जोन में 45 हजार करोड़ की संपत्ति है। लखनऊ में विभाग की कुल 8 हजार करोड़ की संपत्ति है। गोरखपुर में 1900 करोड़ और वाराणसी में कुल 1600 करोड़ की संपत्ति है। पिछले महीने विभाग के प्रमुख सचिव एम वेंकटेश्वर लू ने कहा था, रोडवेज की 75% सेवाएं अनुबंध पर होंगी, विभाग सिर्फ 25% सेवाओं को ही चलाएगा। ऐसे में इस बात की आशंका को और बल मिलता है कि रोडवेज को भी निजी हाथों में सौंपा जाएगा।
लखनऊ, गोरखपुर, प्रयागराज, आगरा, कानपुर सहित 14 जिलों में 583 इलेक्ट्रिक बसें चल रही हैं। ये सभी पहले से ही निजी हाथों में हैं। सरकार ने इन्हें 315 करोड़ रुपए की सब्सिडी दी है। सरकार का टारगेट है कि आने वाले दिनों में बसों की संख्या 700 से अधिक की जाए। मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र दावा कर चुके हैं कि चर्जिंग स्टेशन बनाकर सभी 75 जिलों में इलेक्ट्रिक बसे चलाई जाएंगी।
परिवहन विभाग से जुड़े करीब 55 हजार कर्मचारी निजीकरण की आशंकाओं से डरे हुए हैं। इसमें 17 हजार नियमित कर्मचारी हैं और 38 हजार संविदा पर रखे गए हैं। अगर बसें निजी हाथों में सौंपी जाती हैं तो संविदा पर काम कर रहे कर्मचारियों को दिक्कत हो सकती है। दूसरी तरफ सरकार की तरफ से नई भर्तियों की संभावना भी कम होगी। मृतक आश्रितों को नौकरी मिलने की संभावना खत्म होगी।