रफाल करार में प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) समानांतर बातचीत कर रहा था, सबसे बड़ा सवाल यह पैदा होता है कि आखिर खुले हाथ से फ्रांस सरकार को इतनी सारी रियायतें देने से भारत को क्या फायदा हुआ?
फ्रेंच सरकार की ओर से भारत को संप्रभु गारंटी देने से इनकार करने के बाद ‘एस्क्रो अकाउंट’ का विकल्प देने वाले डिफेंस फाइनेंस के पूर्व सचिव सुधांशु मोहंती की दलील है कि केंद्र कीमतों को लेकर मोलभाव करने की एक फायदेमंद स्थिति में था क्योंकि यह एक तरह से रफाल फाइटर जेटों का इकलौता खरीददार था.
उसकी यह स्थिति इस कारण भी मजबूत हो रही थी क्योंकि यह बातचीत एक ऐसे समय में हो रही थी, जब ऑर्डरों की गिरती संख्या के चलते दासो एविएशन की वित्तीय सेहत बहुत अच्छी नहीं थी.
मोहंती का कहना है कि भारत की लगभग मोनोप्स्नी (monopsony) यानी एक खरीददार हैसियत से दासो की स्थिति कमजोर होनी चाहिए थी. लेकिन ऐसा लगता है कि हुआ इसका उल्टा और प्रधानमंत्री कार्यालय पीएमओ द्वारा की गई समानांतर बातचीत का नतीजा कई बिंदुओं पर फ्रांसीसी सरकार के सामने भारत के घुटने टेक देने के तौर पर निकला.
लंबी अवधि में कलपुर्जों, रखरखाव आदि के संबंध में फ्रांस से संप्रभु या बैंक गारंटी की भारत की मांग को नकार दिया गया और हमें अब यह पता चला है कि इंडियन निगोसिएशन टीम (आईएनटी) के प्रमुख एयर मार्शल एसबीपी सिन्हा को पीएमओ के एक ज्वाइंट सेक्रेटरी की तरफ से एक सीधा पत्र मिला जिसमें यह कहा गया कि फ्रांस ने संप्रभु गारंटी देने से इनकार कर दिया है. यहां तक कि फ्रांस ने एक बैंक गारंटी तक देने से इनकार कर दिया.
इसी तरह से जब मोहंती ने औपचारिक तौर संप्रभु या बैंक गारंटी के बदले में सिर्फ फ्रांसीसी सरकार द्वारा संचालित किए जानेवाले एस्क्रो अकाउंट का सुझाव दिया, तब शुरू में इसे स्वीकार कर लिया गया.
यहां तक कि अगस्त 2016 में इसे सुरक्षा पर कैबिनेट समिति द्वारा भी स्वीकार कर लिया गया, लेकिन पीएमओ के दबाव के चलते इस प्रावधान को आखिरी मौके पर हटा दिया गया.
रक्षा खरीद परिषद (डिफेंस एक्विजेशन काउंसिल) को इसे और साथ ही एक महीने पहले स्वीकार किये गए भ्रष्टाचार रोधी प्रावधानों को हटाने के लिए नए सिरे से बैठक करने के लिए कहा गया. यह वास्तव में अप्रत्याशित था.
इस दौरान पीएमओ किस दबाव में काम रहा था, इसको लेकर सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है. मोहंती ने द वायर से बात करते हुए कहा कि ‘ऐसा लगता है कि बाद में किए गए इन सभी संशोधनों का मकसद अंतरसरकारी करार के नाम पर दोनों तरफ की निजी कंपनियों (ऑफसेट पार्टनरों) को फायदा पहुंचाना था.’
जो भी हो, यह स्पष्ट है कि एक बिंदु के बाद पीएमओ एक तरह से रक्षा खरीद नीति या डिफेंस प्रोक्योरमेंट पॉलिसी (डीपीपी) 2013 के तहत रक्षा मंत्रालय द्वारा गठित आईएनटी को आदेश दे रहा था. रक्षा खरीद की इस तोड़ी न जा सकने वाली व्यवस्था को बार-बार भंग किया गया है, जैसा कि तत्कालीन रक्षा सचिव जी. मोहन कुमार सहित रक्षा मंत्रालय के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के पर्यवेक्षणों से साफ होता है.
पिछले हफ्ते कुमार ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि फाइलों पर उनकी टिप्पणी- कि पीएमओ रक्षा मंत्रालय की बातचीत करने की शक्ति को कमजोर कर रहा है- सिर्फ संप्रभु गारंटी के प्रावधान को कमजोर करने से संबंधित थी और इसका रफाल विमानों की कीमतों से कोई लेना-देना नहीं था.
हालांकि मोहंती यह तर्क देते हैं कि संप्रभु गारंटी या बैंक गारंटी जैसे मसलों को कीमत से अलग रखकर नहीं देखा जा सकता क्योंकि ये फैसले, जिनमें भ्रष्टाचार विरोधी प्रावधान को हटाना भी शामिल है, करार से जुड़े जोखिमों में बड़ा बदलाव लाते हैं.
यह एक माना हुआ व्यावसायिक और बाजार का सिद्धांत है कि जोखिम के ज्यादा या कम होने से किसी उत्पाद की कीमतों में उसी अनुपात में बदलाव आता है. मिसाल के लिए, संप्रभु गारंटी के प्रावधान को हटाए जाने का सीधा असर रफाल जेट की कीमत में कमी के तौर पर निकलना चाहिए क्योंकि इससे भविष्य में भारत के जोखिम बढ़ेंगे.
दूसरी तरफ बैंक गारंटी के शामिल होने से कीमत में बढ़ोतरी होती है. इसलिए असली सवाल यह बनता है कि डीपीपी दस्तावेज से इन सभी बेहद अहम प्रावधानों को हटाने से भारत को क्या फायदा हुआ?
खासकर एक ऐसे सौदे में जिसमें भारत लगभग मोनोप्स्नी की स्थिति में था. साधारण समझदारी यह कहती है कि एक तरह से इकलौता खरीददार होने की लाभकारी स्थिति के चलते भारत कीमतों में मामूली वृद्धि के साथ फ्रांस को इन सारी शर्तों को मानने के लिए मजबूर कर सकता था.
यह एक असली पहेली है, जिसका हल निकाला जाना बेहद जरूरी है.
कानून मंत्रालय की सलाह के खिलाफ फ्रांसीसियों को एक और रियायत देते हुए भारत यूएनसीआईटीआरएएल (UNCITRAL) नियमों के तहत जिनेवा में मध्यस्थता की प्रक्रिया के लिए तैयार हो गया.
मई, 2017 में द वायर ने पहली बार यह खबर दी थी कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पीएमओ को एक अत्यावश्यक नोट भेज कर यह कहा था कि भारत को अंतरराष्ट्रीय फ्रेमवर्क के तहत मध्यस्थता के चलते वैश्विक कंपनियों के खिलाफ जरूरत से ज्यादा मामलों में हार का सामना करना पड़ रहा है.
वित्त मंत्रालय की सलाह थी कि भारत को ज्यादा मुस्तैदी दिखाने और ऐसी व्यवस्था ईजाद करने की जरूरत है ताकि भारतीय न्यायाधीश भी मध्यस्थता पीठों का हिस्सा हो सकें.
रफाल के संदर्भ में कानून मंत्रालय का भी यह कहना था कि मध्यस्थता की प्रक्रिया स्विट्जरलैंड में नहीं, भारत में चलनी चाहिए. ये चिंताएं सिर्फ सैद्धांतिक नहीं हैं: 2017 के अंत में ही मध्यस्थता के द्वारा दासो और ताइवान के बीच हथियार बिक्री के एक 20 साल पुराने विवाद का निपटारा हुआ. इसमें फ्रांसीसी कंपनी पर 135 मिलियन यूरो का जुर्माना लगाया गया.
इस तरह से देखें तो, रफाल करार में मध्यस्थता वाला प्रावधान वित्त मंत्रालय द्वारा पीएमओ को भेजे गए नोट और कानून मंत्रालय के सुझाव के ख़िलाफ़ है. आखिर भारत ने जिनेवा में मध्यस्थता को क्यों स्वीकार कर लिया, वह भी संप्रभु गारंट, बैंक गारंटी जैसे दूसरे सुरक्षा कवचों की गैरहाजिरी में?
ज्यादातर विशेषज्ञों की राय में दासो द्वारा भविष्य के प्रदर्शन को लेकिर दिया गया महज लेटर ऑफ कंफर्ट, कानूनी तौर पर एक काफी कमजोर वैकल्पिक उपाय है.
इसलिए यह बुनियादी सवाल बना रहता है कि आखिर भारत डीपीपी 2013 का उल्लंघन करते हुए इतनी सारी रियायतें देने के लिए क्यों तैयार हो गया, जबकि यह इकलौता खरीददार होने की स्थिति के कारण एक वैश्विक स्तर पर ऑर्डरों के लिए तरस रही एक कंपनी के सामने स्पष्ट तौर पर काफी मजबूत स्थिति में था.
स्रोत : द हिन्दू और द वायर
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