क्यों बॉलीवुड छोड़ा था शमशाद बेगम ने, कौन थी शमशाद बेगम

एक बहुत पुराना गाना है, लेकिन आपने कभी ना कभी सुना ही होगा। उसके बोल थे ‘सैयां दिल में आना रे, आ के फिर ना जाना रे’। ये गाना गाने वाली महिला थीं हिंदी सिनेमा की पहली प्लेबैक सिंगर शमशाद बेगम। पहले एक्टर्स अपने गाने खुद गाते थे और कैमरे के सामने ही गाते थे। शमशाद बेगम वो पहली गायिका थीं, जिन्होंने दूसरी एक्ट्रेसेस को अपनी आवाज दी।

करीब 4000 गीत गाने वाली शमशाद बेगम का वो रुतबा था कि शुरुआती दिनों में लता मंगेशकर और आशा भोसले से भी इन्हीं की तरह गाने को कहा जाता था। ये अपने जमाने की सबसे महंगी गायिका थीं। उन दिनों जब एक गाने के लिए सिंगर्स को 50 से 100 रुपए के बीच मिलते थे, उस दौर में शमशाद बेगम एक गाने के एक हजार रुपए लेती थीं। कई फिल्म मेकर्स तो उन्हें अपनी फिल्मों के लिए अफोर्ड ही नहीं कर पाते थे।

शमशाद बेगम एक कंजर्वेटिव मुस्लिम फैमिली से थीं। जब पिता को पता चला कि उन्हें किसी कंपोजर ने गाना गाने का ऑफर दिया है तो उन्होंने इनके सामने शर्त रख दी कि गाना बुर्का पहनकर ही गाना होगा। जहां गाएंगीं, वहां कोई कैमरा ना हो ताकि कोई उनकी फोटो ना खींच सकें।

यही कारण है कि शमशाद बेगम की जवानी के दिनों की कोई फोटो कहीं उपलब्ध ही नहीं है, क्योंकि ना उनके गाते हुए फोटो हैं ना किसी सेलिब्रिटी के साथ। शमशाद ने ताउम्र पिता की इन शर्तों के साथ काम किया और अपना एक मुकाम हासिल किया। उनके बचपन और सिंगिंग करियर के दौरान की तस्वीरें मौजूद नहीं हैं।

मजे की बात ये है कि इतने रूढ़िवादी परिवार से होने के बावजूद शमशाद अपनी शर्तों पर जीने का हुनर जानती थीं। पूरा परिवार इनकी शादी किसी मुस्लिम परिवार में करने की तैयारी कर रहा था, मगर इन्होंने उस हिंदू लड़के से शादी की, जिसे वे चाहती थीं। फिल्मी दुनिया में गंदगी बढ़ी तो उन्होंने 1965 में गायिकी छोड़ दी।

14 अप्रैल 1919, जलियांवाला बाग हत्याकांड के ठीक अगले दिन, दंगों का माहौल था, लोग मर रहे थे, इसी समय लाहौर के एक पंजाबी मुस्लिम परिवार में बेटी ने जन्म लिया। नाम रखा गया शमशाद बेगम। परिवार बेहद कंजर्वेटिव था, जहां शमशाद की परवरिश 8 भाई-बहनों के साथ हुई। पिता मियां हुसैन बख्श एक मामूली मैकेनिक थे और मां एक धार्मिक घरेलू महिला।
जैसे ही शमशाद का दाखिला स्कूल में करवाया गया तो उनकी गुनगुनाती आवाज स्कूल के प्रिंसिपल को भा गई। 5 साल की शमशाद को स्कूल प्रेयर में हेड सिंगर की जगह मिली। 10 साल की उम्र में उन्हें स्कूल के कल्चरल प्रोग्राम और शादियों में लोकगीत गाने का मौका मिलने लगा।

सुरीली आवाज और सुरों की ऐसी धनी थीं कि बिना किसी प्रोफेशनल ट्रेनिंग के भी इन्हें सुनने वालों की भीड़ लग जाया करती थी। एक साल तक लोगों की तालियों के बीच गाती बेटी पिता को खटकने लगी। पिता इनके सिंगिंग करियर के सख्त खिलाफ हो गए, लेकिन इन्होंने गाना जारी रखा।

एक इंटरव्यू में खुद शमशाद ने बताया था कि उनके परिवार में गाने गाना इतना बुरा माना जाता था कि जब भी वो घर में गुनगुनाती थीं तो उनके भाई उन्हें खूब मारते थे। कहते थे कि ये क्या फालतू काम करती हो।शमशाद के चाचा आमिर खान को गजलों और संगीत के बड़े दीवाने थे। वो जानते थे कि शमशाद के पास जो टैलेंट है वो आम बात नहीं है। उनके चाचा आमिर एक दिन घरवालों की नजर से छिपाते हुए उन्हें जेनोफोन म्यूजिक कंपनी ले गए, जहां उस समय ऑडिशन चल रहे थे। ये शमशाद का पहला ऑडिशन था।

उन्होंने इसके लिए बहादुर शाह जफर की गजल ‘मेरा यार मुझे मिले अगर’ गाना शुरू किया, सुनने वालों में उस जमाने के मशहूर म्यूजिक कंपोजर मास्टर गुलाम हैदर मौजूद थे। आवाज सुनते ही गुलाम हैदर ने उन्हें 12 गानों का कॉन्ट्रैक्ट थमा दिया। बात खुशी और जश्न की थी, लेकिन परिवार के लिए ये उनके सम्मान पर एक चोट थी।
जब शमशाद को गाने मिले तो चाचा खूब खुश हुए, लेकिन जैसे ही ये बात पिता मियां बक्श के कानों में पड़ी तो घर में हंगामा हो गया। पिता ने साफ इनकार कर दिया कि घर की लड़कियां बाहर जाकर गाने नहीं गाएंगीं। चाचा आमिर खान ने पिता को समझाया कि लड़की की आवाज गॉड गिफ्टेड है, इसे बर्बाद मत करो।

बात बन गई, लेकिन एक मुश्किल शर्त के साथ। शर्त थी कि शमशाद को बुर्का पहनकर ही गाना रिकॉर्ड करना होगा, किसी फंक्शन या पार्टी में शामिल नहीं होगी, जिससे कोई उसकी शक्ल न देखे। तस्वीरें क्लिक करवाने की भी पाबंदी थी, जिससे अखबारों में उसे कोई बुर्के के साथ भी न देखे। ये बात खुद शमशाद ने राइटर गजेंद्र खन्ना से बातचीत में साझा की थी।
गुलाम हैदर के लिए हर गाना रिकॉर्ड करने पर शमशाद को 15 रुपए मिलते थे। ऐसे में उन्हें 12 गानों के लिए 180 रुपए मिले। ये 1932 में ये एक बड़ी रकम थी। शमशाद ने इतनी खूबसूरती से गाने रिकॉर्ड किए कि उन्हें इनाम में ही 5 हजार रुपए मिले।

जेनोफोन म्यूजिक कंपनी ज्यादातर अपने गानों को हाई सोसाइटी के लोगों तक पहुंचाती थी, ऐसे में शमशाद को एलीट वर्ग के लोगों के बीच खूब पॉपुलैरिटी मिल गई

गाने के सिलसिले में शमशाद का बाहर आना-जाना लगा रहता था। आस-पड़ोस के लोग भी उनके गाने सुनते थे। इनके पड़ोस में रहना वाला गणपत लाल बट्टो भी इनका प्रशंसक था। एक दिन दोनों की बात शुरू हुई, फिर दोस्ती हो गई, बातचीत का सिलसिला बढ़ा और फिर मोहब्बत हो गई।

ये जानते हुए भी कि परिवार इसके लिए राजी नहीं होगा, शमशाद ने हिंदू गणपत से शादी करने का फैसला कर लिया। देश में पहले ही हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगे थे। सिर्फ धर्म ही नहीं बल्कि दोनों की उम्र में भी बड़ा फासला था। शमशाद महज 13 साल की थीं और गणपत लॉ की पढ़ाई करने वाला एक नौजवान।
ये वो दौर था जब 13-15 साल की लड़कियों की शादी करना आम बात थी। घरवालों ने शमशाद के लिए एक लड़का पसंद कर लिया और दोनों की शादी तय कर दी। कहीं और शादी करना शमशाद के लिए मुमकिन नहीं था। ऐसे में उन्होंने घरवालों के खिलाफ जाकर 15 साल की उम्र में 1934 में गणपत से शादी कर ली।

परिवार वाले खूब नाराज हुए, लेकिन शमशाद अपनी मर्जी से जिंदगी जीना चाहती थीं। शादी के बाद दोनों ने अपने धर्मों के साथ ही जिंदगी जी। कुछ समय बाद शमशाद ने बेटी उषा को जन्म दिया।
1937 में शमशाद को लाहौर और पेशावर के ऑल इंडिया रेडियो में गाने का मौका मिला। हर घर तक इनकी सुरीली आवाज पहुंची और शमशाद फेमस होने लगीं।
फिल्म प्रोड्यूसर 30 के दशक के आखिर में शमशाद को अपनी फिल्म में हीरोइन बनाना चाहते थे। शमशाद को हीरोइन बनने के ऑफर से बेहद खुशी मिली, लेकिन फिर पिता इसके आड़े आ गए। पिता खूब नाराज हुए, घर में फिर हंगामे शुरू हो गए। जब शमशाद अड़ गईं तो पिता ने धमकी दी कि अगर फिल्मों में गईं तो उन्हें गाने की इजाजत भी नहीं दी जाएगी।

पिता ने वादा याद दिलाया कि वो कभी कैमरे के सामने नहीं आएंगीं। आखिरकार शमशाद को पांव पीछे खींचने पड़े। यही कारण रहा कि 1933 से 1970 के बीच शमशाद ने कोई तस्वीर क्लिक नहीं करवाई। इन्होंने पिता की शर्त पर बुर्का पहनकर ही रेडियो के लिए गाना जारी रखा।
40 के दशक में रेडियो पर शमशाद के गाने सुनकर प्रोड्यूसर महबूब खान इतना इम्प्रेस हुए कि इन्हें मुंबई लाने की ठान ली। जब उनसे मिलने लाहौर पहुंचे तो पहला सामना पति से हुआ। महबूब खान ने शमशाद के पति गणपत से कहा कि अगर शमशाद मुंबई आने के लिए मान जाती हैं तो वो उन्हें वहां आलीशान फ्लैट, कार, आने-जाने की सुविधा और हर जरूरी सामान देंगे।

इतना ही नहीं, अगर कुछ लोग उनके साथ आना चाहें तो उनका खर्च भी वो खुद उठाएंगे। पति तो राजी हो गए, लेकिन पिता फिर अड़ गए। महबूब ने कहा- कब तक बेटी को कुएं का मेंढक बनाकर रखेंगे, इसे समुद्र में छोड़िए। जब शमशाद ने भी जिद पकड़ ली तो पहली बार पिता को झुकना पड़ा।

शमशाद के गाने खजांची (1941), खानदान (1942) जैसी फिल्मों में इस्तेमाल हुए। खजांची में इन्होंने 8 गानों को आवाज दी थी। ‘चीनी विच पा के छल्ला’, ‘मेरा हाल वेख के’, ‘कानकां दियां फासला’ इनके सबसे ज्यादा पसंद किए गए शुरुआती गाने थे।
40 के दशक की बात है। सुरैया और मुबारक बेगम हिंदी सिनेमा में स्थापित गायिका थीं। वहीं, लता मंगेशकर और आशा भोसले अपना नाम बनाने की कोशिश में थीं। शमशाद इतनी आला दर्जे की सिंगर बनकर उभरीं कि दोनों से कहा जाता था कि इन्हीं की तरह गाओ। ये रिक्वेस्ट दोनों ने कई मौकों पर पूरी भी की है। गाना ‘आएगा, आएगा, आएगा आनेवाला’ लता मंगेशकर ने इन्हीं की स्टाइल में गाया है।

आशा भोसले द्वारा 1948 की फिल्म मुकद्दर का गाना “आती है याद हमको” भी बेगम की स्टाइल में गाया गया था। कहा तो ये भी जाता है कि शमशाद बेगम के ब्रेक लेने के बाद ही लता मंगेशकर टॉप सिंगर बन सकीं।
शमशाद बेगम अपने जमाने की हाईएस्ट पेड सिंगर रहीं। ये हर गाने के हजार रुपए लेती थीं, जबकि उस जमाने में लता मंगेशकर की फीस 100 रुपए से भी कम हुआ करती थी। कुछ प्रोड्यूसर्स तो ऐसे भी थे जो शमशाद की भारी फीस से डरकर आशा और लता को गाने दे दिया करते थे।

इनका गाना ‘कजरा मोहब्बत वाला’ आज भी लोगों की जुबां पर रहता है। 1940-50 तक इन्होंने सी. रामचंद्र, नौशाद, ओ.पी. नैय्यर के साथ कई गाने दिए। तलत महमूद, के.एल. सहगल, मोहम्मद रफी के साथ भी इन्हें डुएट गानों में आवाज देने का मौका मिला।’

आर.डी. बर्मन स्ट्रगल के दिनों में ही शमशाद से मिल चुके थे। जब इन्हें पहली बड़ी फिल्म बहार (1941) में म्यूजिक कंपोज करने का मौका मिला तो वो सीधे शमशाद के ही पास पहुंचे। वे इतनी जमीनी शख्सियत थीं कि आर.डी. बर्मन के नए होने के बावजूद उन्होंने निःसंकोच गाने के लिए हामी भर दी। आरडी बर्मन के कंपोजिशन और शमशाद की आवाज से मिलकर गाना बना- सैंया दिल में आना रे, आके फिर न जाना रे। इस गाने की पॉपुलैरिटी किसी से छिपी नहीं है।
फिल्मिस्तान स्टूडियो में गाना गाते हुए एक बार शमशाद की मुलाकात किशोर कुमार से हुई। उस समय सब उन्हें अशोक कुमार के भाई के नाम से जानते थे। ढीले-ढाले कपड़े पहने किशोर ने जब गाना गाया तो इन्होंने बुलाकर कहा था, एक दिन तुम अपने भाई को भी पीछे छोड़ दोगे। हुआ भी यही।
शमशाद ऑल इंडिया रेडियो (लाहौर) की जानी-मानी सिंगर थीं, उस समय नौशाद वहीं पर ऑफिस बॉय थे। सिंगर्स का ख्याल रखते थे, हालांकि वो खुद भी संगीत के बड़े जानकार थे और पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। कुछ समय बाद नौशाद भी संगीतकार बन गए।

जब नौशाद को फिल्म मंगू में एक गाना कंपोज करने का मौका मिला तो वो सीधे शमशाद के पास पहुंच गए और उनसे गाने की गुजारिश की। पहचान पुरानी थी तो शमशाद मान गईं। फिल्म के गाने ‘मोहब्बत दिल के बस इतने से अफसाने’ और ‘जरा प्यार कर ले बाबू’ जबरदस्त थे। 1944 से 1955 तक शमशाद सबसे ज्यादा फीस लेने वाली प्लेबैक सिंगर थीं।

राज कपूर फिल्म आग में शमशाद बेगम से गवाना चाहते थे, लेकिन शमशाद की फीस ज्यादा थी तो वो उन्हें अफोर्ड नहीं कर सके। शमशाद और पृथ्वीराज कपूर अच्छे दोस्त थे तो शमशाद कम फीस में ही राजी हो गई थीं

1955 में शमशाद के पति गणपत लाल बट्टो एक रोड एक्सीडेंट में चल बसे। पति की मौत से शमशाद ऐसी टूट गईं कि उन्होंने हमेशा के लिए गाना छोड़ दिया। ये वही थे जिन्होंने इनका हर कदम पर साथ दिया था। शमशाद एक बड़ी हस्ती थीं, लेकिन उनकी पहली प्रायोरिटी उनका परिवार ही था।

बुरी तरह टूट चुकीं शमशाद ने ज्यादातर लोगों से मिलना-जुलना छोड़ दिया और पूरा ध्यान बेटी की परवरिश में लगाया। गाने के जो भी ऑफर घर आते थे, शमशाद उन्हें ठुकरा देती थीं। नतीजा ये रहा कि इनके ठुकराए गाने लता मंगेशकर के पास जाने लगे, जिससे उन्हें स्टार सिंगर्स में जगह मिली थी।
एक साल तक शमशाद दुनिया की नजरों से दूर रहीं, लेकिन जब महबूब खान को खुली आवाज वाली सबसे बेहतरीन फीमेल सिंगर की जरूरत पड़ी तो वो बिना कुछ सोचे सीधे उनके पास ही पहुंचे थे। 1957 की फिल्म मदर इंडिया के लिए महबूब को नरगिस पर जमने वाली आवाज चाहिए थी।
शमशाद ने खूब इनकार किया, लेकिन जीत महबूब को मिली। जब शमशाद ने करीब डेढ़ साल बाद सफेद साड़ी में पहुंचकर गाना ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’ गाना रिकॉर्ड किया तो रिकॉर्डिंग स्टूडियो में मौजूद हर शख्स की आंखें नम थीं। इस पर शमशाद ने कहा था- मैं एक आर्टिस्ट हूं, रोने के लिए तो सारा दिन, सारी रात पड़ी है।
इस फिल्म के गाने ‘दुख भरे दिन बीते रे भैया’, ‘होली आई रे’, ‘पी के घर आज प्यारी दुल्हनिया चली’ बड़े हिट साबित हुए। इन्होंने अपने सिंगिंग करियर में करीब 6 हजार गाने गाए। फिल्म मुगल-ए-आजम में गाया हुआ इनका गाना ‘तेरी महफिल में’ भी खूब पॉपुलर हुआ था।
मुगल-ए-आजम फिल्म के गाने ‘तेरी महफिल में किस्मत आजमां के हम भी देखेंगे’ को शमशाद बेगम और लता मंगेशकर ने मिलकर आवाज दी है।
अपने आखिरी इंटरव्यू में शमशाद ने कहा था- मैंने कभी किसी से काम नहीं मांगा। जब मैंने न्यूकमर्स की मदद की तो मैं नहीं कहती थी कि मुझे ही अपने हर गाने देना। मेरा यकीन है कि गाने सिर्फ भगवान देता है, कंपोजर्स नहीं। हर कोई अपनी तकदीर लेकर पैदा हुआ है। (फिल्मफेयर मैगजीन)
1965 में शमशाद ने हमेशा के लिए फिल्म इंडस्ट्री को अलविदा कह दिया। ऑफिशियली रिटायर होने के बावजूद कई कंपोजर इनके घर पहुंच जाया करते थे। ये मुंबई के सबसे पॉश इलाके में बेटी उषा और दामाद लेफ्टिनेंट कर्नल योगेश रत्र के साथ रहती थीं। सालों बाद जब फिल्मफेयर मैगजीन ने इनसे फिल्म इंडस्ट्री छोड़ने का कारण पूछा तो जवाब मिला था- इंडस्ट्री में बहुत गंद हो गई थी।
शमशाद की बेटी उषा हमेशा से एक सिंगर बनना चाहती थीं, लेकिन शमशाद इंडस्ट्री को इतना गलत समझती थीं कि उन्होंने कभी बेटी को गाने की इजाजत नहीं दी। कई मौकों पर शमशाद ने इंडस्ट्री के खिलाफ बयान भी दिए थे। ये बात खुद उनकी बेटी उषा ने एक इंटरव्यू में बताई थी।
1998 में खबर आई कि सिंगर शमशाद बेगम गुजर गईं। इसके बाद सबसे ज्यादा इनका नाम तब इस्तेमाल हुआ जब 2004 में खबर आई कि जिसे 1998 में लोगों ने मरा हुआ मान लिया था, वो शमशाद अभी जिंदा है। पहले जिस शमशाद बेगम का इंतकाल हुआ था, वो सायरा बानो की दादी थीं।
शमशाद इतने एकांत में रहा करती थीं कि इनकी असल खबर मिल पाना भी मुश्किल थी। हुआ भी यही, जब 2013 में इनका असल में निधन हुआ तो कम लोगों की मौजूदगी में ही इनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।
इनकी मौत पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने कहा था- उन्होंने अपनी मोहक आवाज से सभी संगीत प्रेमियों का दिल जीता है। वो एक्स्ट्राऑर्डिनरी टैलेंट और योग्यताओं वाली आर्टिस्ट थीं, जो गाने वो पीछे छोड़े जा रही हैं वो सालों साल याद रखे जाएंगे।