क्यों मनोज कुमार ने किया था शाहरुख़ खान पर 100 करोड़ की मानहानि का केस

अपनी फिल्मों से लोगों में देशभक्ति का जुनून जगाने वाले भारत कुमार उर्फ मनोज कुमार आज 86 साल के हो चुके हैं। नेशनल अवॉर्ड, दादा साहेब फाल्के, पद्मश्री अवॉर्ड और 8 फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित हो चुके मनोज कुमार की शुरुआती जिंदगी मुश्किल रास्तों से होकर गुजरी। महज 10 साल की उम्र में मनोज कुमार ने भारत-पाकिस्तान के दंगों में अपनी आंखों के सामने बड़े भाई को खो दिया। पाकिस्तान छोड़कर भारत आए तो जिंदगी शून्य से शुरू करनी पड़ी। फिर एक दिन किस्मत टहलते हुए फिल्मों के सेट पर ले गई और मनोज कुमार बन गए हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर के सबसे हैंडसम एक्टर। हुनर ऐसा था कि इंदिरा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री जैसी बड़ी हस्तियां भी इनकी फिल्में देखना पसंद करते थीं। लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर ही मनोज कुमार ने फिल्म उपकार (1967) बनाई थी, लेकिन अफसोस शास्त्री जी उस फिल्म को देख नहीं सके।

मनोज कुमार वो शख्सियत हैं जिनकी फिल्म क्रांति 96 दिनों तक हाउसफुल रही थी। गोल्डन जुबली वाली इस फिल्म का क्रेज ऐसा था कि दुकानों में फिल्म के पोस्टर वाली टी-शर्ट, शर्ट, जैकेट और यहां तक की अंडरगारमेंट्स तक बिकने लगी थीं। ये फिल्म डेढ़ सालों तक सिनेमाघरों में थी

24 जुलाई 1937 को एबटाबाद, ब्रिटिश इंडिया (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) में मनोज कुमार का जन्म हुआ। वही एबटाबाद जहां 2 मई 2011 को ओसामा बिन लादेन को मार गिराया गया था। मनोज कुमार जब 10 साल के थे तब 1947 में उनके छोटे भाई कुक्कू का जन्म हुआ। तबीयत बिगड़ने पर 2 माह के भाई और मां को अस्पताल में भर्ती करवाया गया था कि तभी दंगे भड़क गए। हर तरफ अफरा-तफरी मची और अस्पताल का स्टाफ जान बचाकर भागने लगा।
जैसे ही सायरन बजता था तो जो डॉक्टर और नर्स बचे हुए थे वो अंडरग्राउंड हो जाया करते थे। ऐसे में सही इलाज ना मिल पाने के चलते मनोज कुमार के 2 माह के भाई ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया। मां की हालत भी उस समय गंभीर थी। वो तकलीफ में चिल्लाती रहती थीं, लेकिन कोई डॉक्टर या नर्स उनका इलाज नहीं करता था। एक दिन ये सब देखकर मनोज इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने लाठी उठाई और अंडरग्राउंड जाकर डॉक्टर्स और नर्स को पीटना शुरू कर दिया। मनोज तब सिर्फ 10 साल के थे, लेकिन उनसे मां की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी। पिता ने उन पर काबू पाया और परिवार ने जान बचाने के लिए पाकिस्तान छोड़ने का फैसला कर लिया।

उनका परिवार जंडियाला शेर खान से पलायन कर दिल्ली पहुंचा। यहां उन्होंने 2 महीने रिफ्यूजी कैंप में बिताए। समय बीता और दंगे कम होने लगे। पूरा परिवार जैसे-तैसे दिल्ली में बस गया, जहां मनोज की पढ़ाई हो सकी। उन्होंने स्कूल के बाद हिंदू कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरा किया और नौकरी की तलाश शुरू कर दी।
एक दिन मनोज कुमार काम की तलाश में फिल्म स्टूडियो में टहल रहे थे कि उन्हें एक सज्जन व्यक्ति दिख गया। मनोज ने बताया कि वो काम की तलाश कर रहे हैं, तो वो आदमी उन्हें साथ ले गया। उन्हें लाइट और फिल्म शूटिंग में लगने वाले दूसरे सामानों को ढोने का काम मिला। धीरे-धीरे मनोज के काम से खुश होकर उन्हें फिल्मों में सहायक के रूप में काम दिया जाने लगा।
फिल्मों के सेट पर बड़े-बड़े कलाकार अपना शॉट शुरू होने से बस चंद मिनट पहले पहुंचते थे। ऐसे में सेट में हीरो पर पड़ने वाली लाइट चैक करने के लिए मनोज कुमार को हीरो की जगह खड़ा कर दिया जाता था।
एक रोज की बात है, जब लाइट टेस्टिंग के लिए मनोज कुमार हीरो की जगह खड़े हुए थे। लाइट पड़ने पर उनका चेहरा कैमरे में इतना आकर्षक लग रहा था कि एक डायरेक्टर ने उन्हें 1957 में आई फिल्म फैशन में एक छोटा सा रोल दे दिया। वो रोल छोटा जरूर था, लेकिन मनोज कुमार कुछ मिनटों के अभिनय में अपनी गहरी छाप छोड़ने में कामयाब रहे। उसी रोल की बदौलत मनोज कुमार को फिल्म कांच की गुड़िया (1961) में लीड रोल दिया गया। पहली कामयाब फिल्म देने के बाद मनोज ने बैक-टू-बैक रेशमी रुमाल, चांद, बनारसी ठग, गृहस्ती, अपने हुए पराए, वो कौन थी जैसी कई फिल्में दीं
मनोज कुमार बचपन से ही दिलीप कुमार के बड़े प्रशंसक थे। दिलीप साहब की फिल्म शबनम (1949) मनोज कुमार को इतनी पसंद आई थी कि उन्होंने उसे कई बार देखा। इस फिल्म में दिलीप कुमार का नाम मनोज था। जब मनोज कुमार फिल्मों में आए तो उन्होंने दिलीप कुमार के नाम पर ही अपना नाम भी मनोज कुमार ही रख लिया। बता दें कि उनका असली नाम हरिकृष्ण गोस्वामी था।
1965 में मनोज कुमार देशभक्ति पर बनी फिल्म शहीद में स्वतंत्रता सेनानी शहीद भगत सिंह के रोल में नजर आए थे। फिल्म बड़ी हिट रही और इसके गाने ऐ वतन, ऐ वतन हमको तेरी कसम…, सरफरोशी की तमन्ना… और ओ मेरे रंग दे बसंती चोला… काफी पसंद किए गए
ये फिल्म लाल बहादुर शास्त्री को इतनी पसंद आई कि उन्होंने मनोज कुमार को अपने नारे ‘जय जवान जय किसान’ पर फिल्म बनाने की सलाह दी। सलाह मानते हुए मनोज कुमार ने फिल्म उपकार (1967) बनानी शुरू कर दी, हालांकि उन्हें फिल्म लेखन या डायरेक्शन का कोई अनुभव नहीं था।
एक दिन मनोज कुमार ने मुंबई से दिल्ली जाने के लिए राजधानी ट्रेन की टिकट खरीदी और ट्रेन में चढ़ गए। ट्रेन में बैठे-बैठे ही उन्होंने आधी फिल्म लिखी और दिल्ली से लौटते हुए आधी। इस फिल्म से उन्होंने बतौर डायरेक्टर करियर की दूसरी पारी शुरू की। आगे उन्होंने पूरब और पश्चिम, रोटी कपड़ा और मकान जैसी देशभक्ति पर कई फिल्में बनाईं।
उपकार उस साल की सबसे बड़ी फिल्म थी। फिल्म का गाना मेरे देश की धरती सोना उगले.. आज भी सबसे बेहतरीन देशभक्ति गानों में गिना जाता है। फिल्म में मनोज कुमार का नाम भारत था। फिल्म के गाने की पॉपुलैरिटी देखते हुए मनोज कुमार को मीडिया ने भारत कहना शुरू कर दिया और फिर उन्हें भारत कुमार कहा जाने लगा। कुछ सालों बाद कामयाब होकर मनोज कुमार ने अपने निर्देशन में बनी फिल्म क्रांति में दिलीप कुमार को डायरेक्ट किया था।
यह फिल्म भले ही लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर बनी थी, लेकिन अफसोस वो इसे देख नहीं सके। 1966 में शास्त्री जी ताशकंद, उज्बेकिस्तान की यात्रा पर निकले थे। वो लौटने के बाद फिल्म उपकार देखते, लेकिन ताशकंद में ही इंडो-पाकिस्तान वॉर में शांति पत्र साइन करने के अगले दिन 11 जनवरी 1966 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के एक साल बाद 11 अगस्त 1967 को फिल्म रिलीज हुई। मनोज कुमार को ताउम्र लाल बहादुर शास्त्री को फिल्म न दिखा पाने का अफसोस रहा।
एक इंडस्ट्री का हिस्सा रहते हुए मनोज कुमार और राज कपूर अच्छे दोस्त थे। एक बार जब राज कपूर ने मनोज कुमार के घर कॉल किया तो नौकर ने फोन उठाकर कह दिया कि ये रॉन्ग नंबर है। दरअसल उस समय वो घर पर नहीं थे। राज कपूर इससे नाराज तो हुए, लेकिन कुछ समय बाद दोनों ने बात कर ये गलतफहमी दूर कर ली।
जब मनोज कुमार ने अनाउंस किया कि वो उपकार फिल्म से डायरेक्शन में कदम रखने जा रहे हैं, तो राज कपूर ने उन्हें तीखे शब्दों में सलाह दी, या तो एक्टिंग कर लो या डायरेक्शन, क्योंकि हर कोई राज कपूर नहीं है, जो हर काम एक साथ कर ले।
जब उपकार फिल्म जबरदस्त हिट रही तो राज कपूर ने अपनी कही बात पर पछतावा करते हुए मनोज कुमार से कहा था,
मुझे लगता था कि सिर्फ मैं ही अपना कॉम्पिटिशन हूं, लेकिन अब मुझसे मुकाबला करने के लिए तुम आ गए हो।
राज कपूर के निर्देशन में बनी फिल्म मेरा नाम जोकर (1970) में मनोज कुमार ने काम किया। ये फिल्म बुरी तरह फ्लॉप हो गई, तो मनोज कुमार ने राज कपूर को समझाया कि फिल्म की लेखनी बेहद कमजोर थी। अगर स्क्रिप्ट पर काम होता तो ये फिल्म हिट होती। राज कपूर ने भी इस बात को कबूल कर लिया।
1966 की फिल्म दो बदन में मनोज कुमार ने पहली बार प्राण के साथ काम किया और दोनों दोस्त बन गए। फिल्मों के मशहूर विलेन प्राण को हमेशा नेगेटिव रोल ही मिलते थे। ऐसे में उनकी छवि बदलने के लिए मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म आह में पॉजिटिव रोल दिया। ये फिल्म फ्लॉप रही और लोगों ने प्राण को नापसंद किया। लेकिन मनोज कुमार ने तब भी हार नहीं मानी। उसी समय मनोज उपकार फिल्म में काम कर रहे थे। उन्होंने इस फिल्म में प्राण को मलंग बाबा का पॉजिटिव रोल देने का फैसला किया। इस सिलसिले में दोनों की मुलाकात हुई।
वो मनोज कुमार को पंडित जी ही कहते थे। स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद उन्होंने कहा, पंडित, फिल्म की स्क्रिप्ट और मलंग का किरदार दोनों बहुत खूबसूरत हैं, लेकिन एक बार सोच लो, क्योंकि मेरी छवि खूंखार, शराबी, जुआरी और बलात्कारी की है। क्या दर्शक मुझे किसी साधू बाबा के रोल में अपना सकेंगे।
इरादों के पक्के मनोज कुमार ने उन्हें वो रोल दिया और शूटिंग शुरू कर दी। प्राण साहब समय के बेहद पाबंद थे। एक दिन वो सेट पर पहुंचे तो मनोज कुमार को लगा कि वो बीमार हैं।
उन्होंने पास जाकर पूछा- आपकी तबीयत तो ठीक है ना?
जवाब मिला- हां, मैं एकदम फिट हूं।
उस दिन दोनों ने एक्शन सीन शूट किए। जब पैकअप हुआ तो फिर मनोज ने गौर किया कि प्राण साहब कुछ ठीक नहीं लग रहे।
वो तुरंत मेकअप रूम में पहुंचे और कहा- आप कुछ छिपा रहे हैं। आज आप मुझे ठीक नहीं लग रहे। अगर कुछ बात है तो बताइए।
जवाब में प्राण साहब ने कहा- नहीं कुछ नहीं, दरअसल कल शाम को मेरी बड़ी बहन की अचानक मौत हो गई। उस चक्कर में मैं रात भर सो नहीं पाया।
ये सुनकर मनोज कुमार दंग रह गए कि अपनी जान से प्यारी बड़ी बहन को खोने पर भी प्राण सेट पर पहुंच गए।
मनोज ने फिर कहा- अगर ऐसा कुछ था तो आपने मुझे फोन करके बताया क्यों नहीं, मैं आज की शूटिंग कैंसिल कर देता।
जवाब मिला- मैं हरगिज ऐसा नहीं चाहता था कि मेरी वजह से आपकी फिल्म का शेड्यूल खराब हो। वैसे भी आपने बहुत मुश्किल से इतने सारे कलाकारों को एक साथ जुटाया है। मेरी वजह से फिल्म को किसी भी तरह का नुकसान नहीं होना चाहिए।
इसके बाद से ही दोनों की दोस्ती हर फिल्म के साथ गहरी होती चली गई। जब 12 जुलाई 2013 को मनोज कुमार ने प्राण साहब के निधन की खबर सुनी तो सदमे में चले गए। उन्होंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और बातचीत करनी बंद कर दी। कई दिनों तक मनोज कुमार ने ना किसी से मुलाकात की ना ही कुछ बोले।
मनोज कुमार के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अच्छे ताल्लुकात थे, लेकिन जब इमरजेंसी की घोषणा हुई तो मनोज कुमार ने इसका जमकर विरोध किया। विरोध करने वाले कई सितारों की फिल्मों को बैन कर दिया गया, जिनमें मनोज कुमार की फिल्में भी शामिल हुईं। उनकी फिल्म दस नंबरी को फिल्म सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने बैन कर दिया। वहीं उनकी फिल्म शोर सिनेमाघरों में रिलीज होने से 2 हफ्ते पहले ही दूरदर्शन पर दिखा दी गई। ऐसा दूसरी किसी फिल्म के साथ नहीं हुआ था। जब फिल्म सिनेमाघरों में लगी तो ये फ्लॉप हो गई।
जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म शोर को बैन कर दिया तो मनोज कुमार कोर्ट तक जा पहुंचे। कई हफ्तों तक कोर्ट के चक्कर लगाने के बाद कोर्ट ने मनोज के पक्ष में फैसला सुनाया। वो देश के इकलौते फिल्ममेकर हैं जो सरकार से केस जीते।
एक दिन मनोज कुमार के पास इन्फॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्ट की तरफ से कॉल आया, जिसमें उनसे पूछा गया कि क्या वो इमरजेंसी पर बन रही डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन करेंगे। मनोज ने साफ तौर पर इनकार कर दिया। जब उन्हें पता चला कि इस डॉक्यूमेंट्री को मशहूर राइटर अमृता प्रीतम लिख रही हैं, तो उन्होंने तुरंत अमृता प्रीतम को कॉल मिलाया और पूछा कि क्या तुम बिक चुकी हो। मनोज की बात सुनकर अमृता प्रीतम भी उदास हो गईं। आगे उन्होंने अमृता से कहा कि उन्हें इस डॉक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट फाड़ देनी चाहिए
जब दिलीप कुमार ने 4 सालों तक फिल्मों से दूरी बनाए रखी तब मनोज कुमार ने उन्हें अपनी फिल्म क्रांति में जगह दी। इस फिल्म के डायरेक्टर और प्रोड्यूसर मनोज कुमार ही थे, जिन्होंने फिल्म में पानी की तरह पैसे बहाए थे।

ये उस साल की सबसे बड़ी हिट होने के साथ-साथ शोले के बाद भारत की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म भी बनी थी। यह देश के 26 सेंटर में 25 हफ्तों से ज्यादा चली थी। फिल्म मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) और जूनागढ़ (गुजरात) में भी सिल्वर जुबली रही, जहां कोई फिल्म टिकती नहीं थी।
करीब डेढ़ सालों तक सिनेमाघरों में चली ये फिल्म 96 दिनों तक हाउसफुल रही थी। फिल्म का क्रेज ऐसा था कि दिल्ली, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तो इस फिल्म के पोस्टर वाली टी-शर्ट, शर्ट, जैकेट और अंडरगारमेंट्स तक बिकने लगे थे।
क्रांति फिल्म के एक सीन में दिलीप कुमार को लोहे की जंजीरें पहनाकर राज दरबार में पेश किया जाना था। बार-बार टेक हुआ, लेकिन दिलीप कुमार भारी-भरकम जंजीरों में सही शॉट नहीं दे पाए। एक समय दिलीप साहब झुंझला गए और डायरेक्टर मनोज कुमार से कहा- तुमने मुझे ये जंजीरों वाला जवाहरात पहना दिया है, इसका वजन शरीर पर आ रहा है। पहले इसे हल्का करवाओ। अब वो जमाना गया जब हम 15 किलो वजन के साथ एक्टिंग करते थे। ये सुनते ही मनोज कुमार ने तुरंत शूटिंग रुकवा दी। उन्होंने रबर की जंजीरें बनवाईं और ऐसी पेंट करवाईं कि वो असली लगें। उन हल्की जंजीरों के साथ ही फिर दिलीप साहब ने शूटिंग की।
बतौर एक्टर मनोज कुमार आखिरी बार के.सी.बोकाडिया की फिल्म मैदान-ए-जंग (1995) में नजर आए थे। साल 1992 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। साथ ही उन्हें 8 बार फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। मनोज कुमार साईं बाबा के इतने बड़े भक्त हैं कि शिरडी के ट्रस्ट ने शिरडी की पिंपलवाड़ी रोड को मनोज कुमार के नाम पर मनोज कुमार गोस्वामी रोड नाम दिया है।
2007 की फिल्म ओम शांति ओम के एक सीन में शाहरुख खान ने मनोज कुमार की नकल उतारी थी। मनोज कुमार की मिमिक्री करते हुए उन्होंने उनका सिग्नेचर पोज भी किया था, जिसमें वो अपने हाथों को चेहरे के सामने लाते थे।
फिल्म में अपना मजाक बनता देख मनोज कुमार इस कदर नाराज हुए कि उन्होंने शाहरुख खान और ईरोज पर 100 करोड़ रुपए की मानहानि का मुकदमा कर दिया। मामला बढ़ता देख शाहरुख खान ने ई-मेल के जरिए मनोज कुमार से माफी मांगी थी। मनोज कुमार ने शाहरुख को माफ कर दिया और कोर्ट ने भी फिल्ममेकर्स को उस सीन को फिल्म से हटाने के आदेश दे दिए।
भारत के बाद जब जापान में ये फिल्म रिलीज हुई तब भी उस सीन को नहीं हटाया गया। इस बात से नाराज होकर मनोज ने कहा था, मैं शाहरुख को कभी माफ नहीं करूंगा, उसने मेरी और कोर्ट के आदेश की इंसल्ट की है। हालांकि समय के साथ ये मामला खत्म हो चुका है। बता दें कि ये मामला कोर्ट के बाहर ही सेटल हो गया था।