एक्ट्रेस जुबैदा बेगम कौन थीं, जानिये

परियों की कहानी हम सबने सुनी है, लेकिन 50 के दशक की एक एक्ट्रेस ऐसी थीं जिसने ये कहानियां जी थीं। उनके लिए घोड़े पर सवार एक राजा आया और उनका हाथ थाम लिया, इसके बावजूद कि वो एक बच्चे की मां और तलाकशुदा महिला थीं। ये कहानी है एक्ट्रेस जुबैदा बेगम की। बचपन से पिता के थोपे हुए फैसलों ने उन्हें आजादी से जीने नहीं दिया। हीरोइन बनीं, तो जबरदस्ती शादी करवा दी गई। एक बच्चा गोद में ही था कि पिता ने जबरदस्ती तलाक भी करवा दिया। मजबूरी में जब महफिलों में गानें लगीं तब जुबैदा पर जोधपुर के महाराजा हनवंत सिंह की नजर पड़ी और उनकी जिंदगी बदल गई।
महाराजा ने जुबैदा के लिए अपना शाही उम्मेद पैलेस छोड़ दिया और उन्हें जोधपुर में छोटी रानी का दर्जा दिलाया, लेकिन कुछ समय बाद ही दोनों की एक प्लेन क्रैश में रहस्यमयी हालात मौत हो गई। शाही परिवार बिखर गया और इसका इल्जाम लगा जुबैदा पर। कुछ सालों बाद जुबैदा के बेटे का सिर कलम कर उसकी लाश सड़क पर फेंक दी गई।
जुबैदा की मौत के 71 सालों बाद भी उनका जिक्र जोधपुर में आम है। स्थानीय लोगों के अनुसार जुबैदा की आत्मा आज भी उम्मेद भवन पैलेस के आस-पास भटकती है। कुछ सालों पहले पेलेस के पास बने एक शाही स्कूल के कमरों में उसकी आत्मा कथित रूप से कैद की गई थी। उस स्कूल के कई कमरे बड़े-बड़े तालों और तंत्र-मंत्र से बंद हैं।

जुबैदा बेगम का जन्म 1926 में बॉम्बे के बोहरा (शिया) मुस्लिम परिवार के एक रईस स्टूडियो मालिक श्री कासेमभाई मेहता के घर हुआ था। उनकी मां फयाजी बाई सिंगर थीं। वो अपने मां-बाप की इकलौती संतान थीं। पिता का हिंदी सिनेमा में इतना नाम और रुतबा था कि फिल्म इंडस्ट्री की कई हस्तियों का उनके घर आना-जाना लगा रहता था। उस जमाने की एक मशहूर अदाकारा से भी पिता के संबंध थे।
घर में तमाम बड़ी हस्तियों का आना-जाना था, जिन्हें देखकर जुबैदा के मन में भी एक्ट्रेस बनने का सपना पनपने लगा। कासेमभाई के स्टूडियो में आए दिन कई बड़ी फिल्मों की शूटिंग हुआ करती थी। चुलबुली जुबैदा भी स्कूल से फारिग होकर अक्सर स्टूडियो में वक्त बिताया करती थीं। वहां वो डांस मास्टर से डांस सीखती और खुद अभिनय करने की कोशिश किया करती थीं। जब दिन ढलता था तो पिता स्टूडियो के बाहर से ही हॉर्न बजाते थे और जुबैदा घर को निकल जाया करती थीं।

जिस एक्ट्रेस से जुबैदा के पिता का रिश्ता था वो बेहद ग्लैमरस, बेबाक और ऊंचे ख्यालों की हुआ करती थी। जुबैदा उन्हें आंटी बुलाया करती थीं। आंटी को देखते हुए जुबैदा ने हीरोइन बनने का पक्का मन बना लिया। एक दिन शूटिंग देखने पहुंची जुबैदा से एक डायरेक्टर ने फिल्म में हीरोइन बनने को कहा और वो झट से मान गईं। पिता बेहद सख्त मिजाज के थे तो जुबैदा ने उनसे इजाजत लेने के बजाए सीधे फिल्म की शूटिंग शुरू कर दी। आंटी भी जुबैदा के साथ उस शूटिंग में पहुंची थीं।
जुबैदा ने शूटिंग शुरू की ही थी कि पिता को भनक लग गई। बेटी को स्टूडियो में नाच-गाना करते देख पिता पिस्तौल लेकर पहुंच गए और शूटिंग रुकवा दी। फिल्म पूरी नहीं हो सकी। वो फिल्म बनी तो सही, लेकिन कासेमभाई के दबाव और दहशत में उसे कभी रिलीज नहीं किया गया।
पिता ने जुबैदा और उसकी हीरोइन बनने की जिद पर काबू पाने के लिए उनकी शादी अपने एक पुराने दोस्त के बेटे से तय कर दी। जुबैदा ने शादी करने से इनकार कर दिया तो उनकी जबरदस्ती शादी करवाई गई। कराची से आए जुबैदा के पति के पास बॉम्बे में कोई काम नहीं था तो पिता ने उसे घर जमाई बनाकर रखा।
बेटे के जन्म के कुछ दिनों बाद ही पति ने कराची लौटने की जिद पकड़ ली, लेकिन जुबैदा के पिता इसके खिलाफ थे। वो चाहते थे कि जुबैदा उनके साथ उन्हीं के घर पर रहे, लेकिन ससुर और पति इज्जत की खातिर रुकने के लिए राजी नहीं थे। कुछ समय बाद दोनों परिवारों की अनबन इतनी बढ़ गई कि जुबैदा के पिता ने जबरदस्ती उनका तलाक करवा दिया। पति और ससुर तलाक के बाद कराची लौट गए और जुबैदा बुरी तरह टूट गईं।

पति से अलग होने के बाद जुबैदा ज्यादातर समय अपने घर में बेटे खालिद की परवरिश में लगा दिया करती थीं। घर से बाहर जाना छूट चुका था। एक दिन जब पिता की गर्लफ्रेंड घर आईं तो उनसे जुबैदा की हालत देखी नहीं गई। वो जुबैदा की बेरंग जिंदगी बदलने के लिए उन्हें अपने साथ पार्टियों में ले जाने लगीं। वो जुबैदा के पिता से झूठ बोलकर इजाजत ले लिया करती थीं।
22 अप्रैल 1950 की बात है..जोधपुर राजघराने की बेटी राजेंद्र कुमारी की शादी थी। बड़ौदा (अब वडोदरा) से राजघराने के युवराज फतेह सिंह राव गायकवाड़ बारात लेकर जोधपुर पहुंचे। इस शाही शादी में जोधपुर और बड़ौदा से नाच-गाने के लिए कई बड़े कलाकारों को बुलाया गया।
उस महफिल में 24 साल की जुबैदा भी अपनी आंटी के साथ शामिल हुईं। महफिल शुरू हुई और मंच पर एक-एक कर कलाकार राजा-महाराजाओं के लिए नाच-गाना पेश कर रहे थे। अचानक जुबैदा भी मंच पर आईं और उन्होंने गाना शुरू कर दिया। हर किसी की नजर जुबैदा पर थी। एक तो सुंदर ऊपर से आवाज में वो मिठास जो हर किसी का ध्यान खींच ले। उस महफिल में मारवाड़ रियासत के महाराजा हनवंत सिंह भी शामिल हुए थे। जब उन्होंने जुबैदा का गाना सुना तो सुनते ही रहे।
महफिल खत्म होते-होते महाराजा, जुबैदा से बात करने में कामयाब रहे, लेकिन अगले दिन जुबैदा बारात के साथ बड़ौदा लौटने वाली थीं। जुबैदा बड़ौदा के लिए रवाना हुईं जरूर, लेकिन तबीयत नासाज होने पर अगले स्टेशन में ट्रेन से उतर गईं। उन्हें शाही मेहमान की तरह जोधपुर वापस बुला लिया गया। वापस लौटकर जुबैदा, महाराजा के विश्वासपात्र भारतेंद्र सिंह के बंगले में मेहमान बनकर रुकीं।
जुबैदा की मौजूदगी में भारतेंद्र सिंह ने शाम को बंगले में ही एक महफिल रखी, जिसमें महाराजा हनवंत सिंह मेहमान बनकर पहुंचे। राजस्थान के पॉपुलर राइटर अयोध्या प्रसाद ने अपनी बुक द रॉयल ब्लू में जुबैदा और महाराजा हनवंत सिंह के बीच हुई पहली बातचीत का जिक्र किया है।
महफिल खत्म होते ही महाराजा अपने महल लौटने को हुए। उनके महफिल छोड़ने से पहले ही जुबैदा ने हिम्मत की और कहा- कल आप जरूर आइएगा, आपको कुछ खास सुनाना है।
हनवंत सिंह- खास? मुझे तो आज और आज से पहले आपने जो भी सुनाया वो खास ही लगा।
जुबैदा ने शर्माते हुए कहा- ये आपकी मेहरबानी है। शायद यही वजह है कि हम बारात के साथ लौट नहीं सके और मजबूरी में हम पहली बार बीमार पड़े।
हनवंत सिंह ने चालाकी पकड़ते हुए कहा- मुझे भारतेंद्र ने आपकी तबीयत का बताया। बारात के रवाना होने के बाद बीमारी का नाटक। एकदम पगली हैं आप।
जुबैदा- अभी जो आपने बोला, वो एक शब्द मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत गाना था।
हनवंत सिंह ने तपाक से कहा- मैंने ऐसा क्या बोल दिया?
जवाब मिला- आपने मुझे पगली कहा।
हनवंत सिंह- अगर तुम्हें ये पसंद आया तो अब मैं तुम्हें पगली ही कहूंगा।
बातचीत में दोनों भांप गए कि उनका ये रिश्ता लंबे समय तक कायम रहने वाला है। कुछ दिनों बाद जुबैदा ने जोधपुर से बॉम्बे लौटने का मन बना लिया। महाराजा ने उन्हें अपने पास रोकने की खूब कोशिशें कीं, लेकिन सख्त पिता और उनकी इजाजत न होने पर उन्होंने लौटना ही ठीक समझा।
जुबैदा के बॉम्बे लौटते ही महाराजा हनवंत सिंह बेचैन रहने लगे। वो जुबैदा से मिलने के लिए ऐसे उतावले हुए कि उन्होंने अपनी करीबी खुशवंत सिंह को जुबैदा को खोजने बॉम्बे भेज दिया। खुशवंत सिंह कामयाब हुआ और सही पता जानते ही महाराजा खुद बॉम्बे पहुंच गए।

महाराजा हनवंत सिंह मुंबई आकर चर्च गेट के पास स्थित एस्टोरिया होटल में ठहरे। आखिरकार उन्होंने अपने करीबी की मदद से जुबैदा को मिलने बुला ही लिया। मुलाकातें हुईं और दोनों ने एक-दूसरे के साथ जिंदगी गुजारने का फैसला कर लिया, लेकिन ऐसा होना आसान नहीं था। हनवंत सिंह जोधपुर के राजा थे और जुबैदा मुस्लिम एक्ट्रेस।
महाराजा हनवंत सिंह जोधपुर के राजा उम्मेद सिंह के बेटे थे। 12 जून 1923 को उनका जन्म जोधपुर में हुआ। शाही रीति-रिवाजों के अनुसार महज 20 साल की उम्र में 1943 में महाराजा हनवंत सिंह की शादी ध्रांगध्रा की राजकुमारी कृष्णा कुमारी से हुई थी। 4 साल बाद 1947 में महाराजा हनवंत सिंह जोधपुर रियासत के राजा बने। 1948 में उन्होंने 19 साल की उम्र की स्कॉटिश नर्स सैंड्रा से दूसरी शादी की। शादी से पहले उन्होंने सैंड्रा का धर्म परिवर्तन करवाया और उसे शांता देवी नाम दिया।
डेढ़ साल बाद जब सैंड्रा इंग्लैंड लौट गईं तो महाराजा ने उन्हें मनाकर लाने की कई कोशिशें की लेकिन वो लौटी ही नहीं। महाराजा अपनी पहली पत्नी महारानी कृष्णा कुमारी के साथ उम्मेद भवन पैलेस में रहते थे।

वहीं दूसरी तरफ जुबैदा के पिता भी सख्त मिजाज के आदमी थे, जो उनकी जिंदगी का हर फैसला खुद लिया करते थे। दोनों के रिश्ते का खुलासा तब हुआ जब महाराजा के भेजे जा रहे कीमती तोहफों की भनक जुबैदा की मां फयाजी बेगम को लगी। मां को मनाने के लिए एक दिन जुबैदा ने महाराजा को घर बुला लिया। मुलाकात में मां फयाजी ने महाराजा को साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कह दिया कि हम मुस्लिम हैं और बेटी न धर्म बदलेगी ना दूसरी औरतों के साथ सौतन बनकर रहेगी। महाराजा ने उन्हें आश्वासन दिया कि उनका प्यार कोई दिखावा नहीं है और वो ताउम्र जुबैदा का साथ निभाएंगे। मां का मन बदला तो जरूर, लेकिन उन्होंने जुबैदा के सामने एक मुश्किल शर्त रख दी।
शर्त ये थी कि अगर जुबैदा महाराजा से शादी करना चाहती हैं तो उन्हें अपने 2 साल के बेटे खालिद को छोड़कर जाना होगा। जुबैदा अड़ गईं कि वो किसी भी हाल में अपने बेटे को नहीं छोड़ेंगी, लेकिन मां ने कहा कि जुबैदा के शादी कर हिंदू बनने के बाद उनकी अपनी कोई संतान नहीं होगी, ऐसे में खालिद की परवरिश वो खुद करेंगी, जो उनका सहारा बनेगा।
आखिरकार जुबैदा को मां की शर्त माननी पड़ी। हालांकि पिता इन सब बातों से अनजान थे। एक दिन मौका पाते ही महाराजा हनवंत सिंह, जुबैदा को अपने साथ जोधपुर ले गए।
23 साल की जुबैदा ने 17 दिसंबर 1950 को ब्यावर के आर्य समाज के रीति-रिवाजों के साथ महाराजा हनवंत सिंह से शादी की और हिंदू धर्म अपना लिया। धर्म बदलने पर जुबैदा का नाम विद्या रानी रखा गया। धर्म-परिवर्तन के लिए मंदिर में हवन भी करवाया गया था, जिसका सबूत आज भी ब्यावर के मंदिर में दर्ज है।
जब महाराजा, जुबैदा को लेकर जोधपुर के महल उम्मेद भवन गए तो शाही घराने ने एक मुस्लिम एक्ट्रेस को बहू के रूप में अपनाने से साफ इनकार कर दिया। ऐसे में महाराजा ने उन्हें मेहरानगढ़ के किले में रखा।
जुबैदा को महाराजा ने शादी के बाद छोटी रानी का दर्जा तो दिया, लेकिन राजघराने और राजपूत समाज ने उन्हें कभी अपनाया ही नहीं। जुबैदा को उम्मेद पैलेस भवन में होने वाली किसी भी चर्चा में शामिल होने की अनुमति नहीं थी। उन्हें कभी शाही सलाहकारों में शामिल नहीं किया गया। जबकि महाराजा की पहली पत्नी कृष्णा कुमारी को आगे जाकर राजमाता की उपाधि दी गई और सभी शाही फैसले उनसे सलाह-मशवरा के बाद ही लिए जाते थे। ये बात जुबैदा को भी खटकती थी, हालांकि वो और बड़ी रानी कृष्णा कुमारी अच्छी दोस्त बन चुकी थीं।
समय बीतता गया और जुबैदा न चाहते हुए शाही रीति-रिवाजों को अपनाने लगीं। शादी के एक साल बाद 2 अगस्त 1951 को जुबैदा ने महाराजा हनवंत सिंह के बेटे राव राजा हुकुम सिंह को जन्म दिया। राजा हुकुम सिंह को टुटु बन्ना कहा जाता था।
महाराजा, जुबैदा को समय- समय पर उनके परिवार से मिलने बॉम्बे ले जाया करते थे, हालांकि वो चंद मिनटों के लिए ही अपने पहले बेटे खालिद मोहम्मद से मिल पाती थीं।
इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता के मुताबिक जुबैदा और हनवंत सिंह ने कभी शादी नहीं की। कुछ महीनों पहले आर्य समाज से जुड़े ओम मुनि ने दैनिक भास्कर को बताया था कि मंदिर में सिर्फ धर्म परिवर्तन के प्रमाण हैं, शादी के नहीं। शादी पर सवाल इसलिए भी उठाया गया क्योंकि आर्य समाज के नियमों के अनुसार एक पत्नी के होते हुए दूसरी शादी करना संभव नहीं था। एक इंटरव्यू में जोधपुर घराने के पूर्व मुखिया गज सिंह ने बताया था कि जुबैदा उनकी महारानी नहीं, बल्कि सिर्फ परयादत थीं। परयादत यानी ऐसी महिलाएं जिन्हें राजा-महाराजा अपने लिए नजरबंद करके रखते थे।
भारत को आजादी मिलने के बाद राजशाही खत्म की जा रही थी और सरकार बन रही थी। 1949 में राजस्थान राज्य बना और वहां के मुख्यमंत्री कांग्रेस के जयनारायण व्यास चुने गए। जोधपुर में अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए 1952 में महाराजा हनवंत सिंह ने अखिल भारतीय रामराज्य परिषद पार्टी बनाई और खुद चुनाव में उतरे। उन्होंने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में पूरे मारवाड़ से अपने प्रत्याशी खड़े किए और लगभग सभी सीटों पर कांग्रेस के खिलाफ जीत हासिल की। हनवंत सिंह खुद सरदारपुरा की विधानसभा सीट के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री जयनारायण के सामने खड़े हुए और जीते।
चुनाव जीतने के लिए महाराजा हनवंत सिंह ज्यादातर समय अपनी पहली पत्नी महारानी कृष्णा कुमारी के साथ चुनाव प्रचार-प्रसार करते हुए बिताते थे। ऐसे में जुबैदा और उनके बीच दूरियां बढ़ने लगीं। जुबैदा को चुनावी मामलातों से दूर रखा जाता था, क्योंकि मुस्लिम जुबैदा के चलते उनके राजपूताना वोटर कम हो सकते थे। इन सब दायरों ने जुबैदा को अकेलेपन में ढकेल दिया
वो 26 जनवरी 1952 का दिन था, चुनाव के नतीजे आने में बस कुछ ही दिन बचे थे। महाराजा हनवंत सिंह, बड़ी महारानी कृष्णा के साथ हड़बड़ी में एक शहर के लिए रवाना होने वाले थे कि जुबैदा ने खुद साथ जाने की जिद पकड़ ली। महाराजा हनवंत सिंह समझाते रहे कि उनका साथ जाना ठीक नहीं होगा, लेकिन जुबैदा नहीं मानीं और एयरक्राफ्ट की सीट पर जाकर बैठ गईं। उस एयरक्राफ्ट में सिर्फ दो ही सीट थीं, ऐसे में कृष्णा कुमारी को जोधपुर में ही रुकना पड़ा। उड़ान भरने के कुछ समय बाद ही सुमेरपुर के पास प्लेनक्रैश हुआ जिसमें 26 साल की जुबैदा और 28 साल के महाराजा हनवंत सिंह की मौत हो गई।
कई लोगों ने महाराजा की मौत के लिए जुबैदा की जिद को जिम्मेदार ठहराया, वहीं कुछ लोगों का कहना था कि महाराजा महज 4 घंटे की नींद लेकर प्लेन उड़ा रहे थे, जिससे हादसा हुआ। कुछ लोगों का ये भी मानना था कि महाराजा को चुनाव में जीतते देख अपोजिशन ने उनकी मौत की साजिश रची।
जुबैदा पर बनी साल 2001 में रिलीज हुई फिल्म जुबैदा के अनुसार, जुबैदा नहीं चाहती थीं कि महाराजा उनसे दूर रहें, इसलिए उन्होंने महाराजा के साथ आत्महत्या कर ली। उस फिल्म का स्क्रीनप्ले जुबैदा की पहली शादी से हुए बेटे खालिद मोहम्मद ने लिखा था। खालिद की परवरिश उनके नाना-नानी ने की।
खालिद मोहम्मद फिल्म जुबैदा, मम्मो और सरदारी बेगम के स्क्रीनराइटर होने के साथ-साथ फिजा, सिलसिले और तहजीब जैसी फिल्में डायरेक्ट कर चुके हैं।
जुबैदा की मौत के समय उनका बेटा टुटु बन्ना महज 4 महीने का था, जिसकी परवरिश राजमाता कृष्णा कुमारी ने की। टूटू बन्ना की शादी अलवर के राव राजा दलजीत सिंह की बेटी राव रानी राजेश्वरी कुमारी राठोड़ से हुई। इनका एक बेटा परीक्षित और एक बेटी जयनंदिनी हुई।
17 अप्रैल 1981 को टुटु बन्ना का सिर कटा शरीर जोधपुर की सड़क पर मिला। उन्हें उन्हीं की तलवार से मारा गया था और शरीर पर 20 गहरे जख्म थे। उनकी हत्या आज भी अनसुलझी है
आज भी जोधपुर के स्थानीय लोगों का मानना है कि जुबैदा कि आत्मा उम्मेद भवन पैलेस और रॉयल फैमिली के स्कूल में भटकती है। स्कूल के कई कमरे बड़े-बड़े तालों और तंत्र-मंत्र से बंद कर दिए गए हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि ऐसा उसकी रूह को कैद करने के लिए किया गया है।