यकीनन, आज हमारा देश दुनिया का सबसे युवा देश है. लेकिन ‘गुमी हुई आजादी’ को फिर से हासिल करने के लिए बलिदानों की घड़ी आई तो भी इसने खुद को कुछ कम युवा नहीं पाया था. कवयित्री सुभद्राकुमारी चैहान के अनुसार उस वक्त ‘बूढ़े भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी.’ ऐसी कि 24 अक्टूबर, 1775 को जन्मे देश के आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर घोर बुढ़ापे में भी जवान हो उठे थे. तब अनेक युवाओं ने, जिनमें आम भी थे और खास भी, अप्रतिम जोश और जज्बे से गोरे हुक्मरानों को अपने देशप्रेम का परिचय दिया था. पढ़िये इस परिचय के कुछ अचर्चित ऐतिहासिक वाकये:
आखिरी सांस तक साजिशों से मुकाबला
1857 में स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो अवध के बागियों ने पांच जुलाई को अपदस्थ नवाब वाजिद अली शाह और बेगम हजरतमहल के अवयस्क बेटे बिरजिस कदर को नया नवाब बनाया. उन्होंने लखनऊ में बिरजिस की ताजपोशी के जश्न में 21 तोपें दागीं ताकि सारी पस्तहिम्मती की छुट्टी कर दें. फिर तो बिरजिस ने बागियों में ऐसा जोश भरा कि उन्होंने अवध से अंग्रेजीराज का खात्मा ही कर डाला.लेकिन, आगे चलकर लखनऊ का पतन टाले नहीं टला तो बिरजिस को 15 मार्च, 1858 को सुबह मुंह अंधेरे उसे छोड़ देना पड़ा. उस वक्त उनकी उम्र चौदह साल से भी कम थी. फिर भी उन्होंने महारानी विक्टोरिया की ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन खत्म करके सत्ता अपने हाथ लेने और बागियों को ‘क्षमा’ करने की घोषणा सुनी तों अवधवासियों से सचेत करने से नहीं चूके कि वे महारानी से पूछें कि वे इतनी ही उदार हैं तो हमारा देश हमें क्यों नहीं वापस कर देतीं?
नेपाल में अपमानजनक शर्तों पर मिली शरण के बावजूद बिरजिस ने सुलह करके स्वदेश लौट आने और सम्मानजनक पेंशन लेने के अंग्रेजों के प्रस्ताव को दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया. अलबत्ता, 1879 में बेगम हजरतमहल और 1887 में वाजिद अली शाह नहीं रहे तो उनकी नियति उन्हें कल्कत्ता {अब कोलकाता} खींच ले गयी. लेकिन, साजिशें इस मोड़ पर भी उनसे खेल करने से नहीं चूकीं. 14 अगस्त, 1893 को अपने पिता की बन्द पेंशन पर अपने दावे की पैरवी हेतु लंदन रवाना होने से ऐन पहले एक दावत में साजिशन उन्हें सपरिवार जहर दे दिया गया. अवध में इसकी प्रतिक्रिया से डरे अंग्रेजों ने मटियाबुर्ज में दफन के वक्त कब्रिस्तान के दस्तावेजों में उनके इंतकाल की सही वजह तक दर्ज नहीं होने दी.
दादा ने खता की थी, पोते ने सजा पाई
‘ये जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई.’ लगता है, अंग्रेजों ने 1798 में 21 जनवरी को अवध के पांचवें नवाब वजीर अली खान को सत्ता संभालने के चौथे महीने में ही धोखेबाजी का इल्जाम लगाकर अपदस्थ कर दिया, तो मुजफ्फर रज्मी के इसी शेर को सार्थक कर रहे थे. भले ही तब तक यह रचा ही नहीं गया था.
दरअसल, न तीसरे नवाब शुजाउद्दौला 1773 में अवध में रेजीडेंट की नियुक्ति और ईस्ट इंडिया कम्पनी के सामरिक नियंत्रण का अंग्रेजों का प्रस्ताव स्वीकारने की खता करते, न अंग्रेज उनकी सत्ता का अतिक्रमण कर वास्तविक शासक होने की ओर अग्रसर हो पाते.
आगे चलकर उनकी यह खता पोते वजीर अली पर इतनी भारी पड़ी कि उसे सत्रह साल अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े. कैद में ही उसका देहांत हुआ तो अंग्रेजों ने अंतिम संस्कार पर सत्तर रुपये भी खर्च नहीं किये. वजीर अली की बदनसीबी कि आखिरी नवाब बिरजिस कदर की बगावत से 58 साल पहले ही अंग्रेजों से दो-दो हाथ करने के बावजूद इतिहास ने उसके साथ न्याय नहीं किया.
वजीर अली ने सोलह साल की उम्र में नवाब बनते ही अपने अंग्रेजपरस्त वजीरों का दर्जा घटाना और स्वायत्तता की ओर बढ़ना शुरू कर दिया था. इससे खफा अंग्रेज साजिशें रचने पर उतरे तो उसने बेचारगी में डेढ़ लाख रुपये सालाना पेंशन और बनारस के रामनगर में नजरबन्दी स्वीकार कर ली थी, फिर भी उसकी जगह गद्दीनशीन चाचा सआदत अली खान को उसके पलटवार के अंदेशे परेशान करते रहते थे. अंततः उन्होंने अंग्रेजों से मिलकर तय किया कि वजीर अली को कोलकाता भेज दिया जाये.
वजीर अली ने बनारस स्थित अंग्रेज कमांडर जार्ज फ्रेडरिक चेरी को संदेश भिजवाया कि वह उससे मिलकर इसका प्रतिवाद करना चाहता है. फिर 14 जनवरी, 1799 को अपने सिपहसालारों इज्जत अली व वारिस अली के साथ उसके ‘मिंट हाउस’ जा धमका, जहां उसके लश्कर ने न सिर्फ कमांडर चेरी बल्कि कैप्टन कानवे, रोबर्ट ग्राहम, कैप्टन ग्रेग इवांस व सात अंग्रेज सिपाहियों को भी मार डाला.
इस लश्कर का अगला निशाना नदेसर स्थित मजिस्ट्रेट एम. डेविस का घर बना और वहां भी उसने कई संतरियों को मौत के घाट पहुंचा दिया. लेकिन बाद में अंग्रेजों की फौज लाशें बिछाने लगी तो उसके पांव उखड़ गये. यह लश्कर जैसे-तैसे राजस्थान के बुटवल पहुंचा तो वजीर अली को जयपुर के राजा के यहां शरण मिल गई. लेकिन अंग्रेज उसे इस शर्त पर कब्जे में लेने में सफल रहे कि न फांसी देंगे, न बेड़ियों में जकड़ेंगे. शर्त के मुताबिक उन्होंने उसको कोलकाता की फोर्ट विलियम जेल भेज दिया. 15 मई, 1817 को वहीं उसकी मौत हो गयी तो उसे कैसिया बागान कब्रिस्तान में दफनाया गया.
गोरे जनरल की कटार उसी के सीने में भोंक दी!
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के उतार के बाद भी गोरखपुर-लखनऊ राजमार्ग पर फैजाबाद व बस्ती के मध्य स्थित अमोढ़ा रियासत ने अंग्रेजों की नाक में दम कर रखा था. उसने अपने क्षेत्र में नदी जल परिवहन ठप करा दिया तो अंग्रेजों को उसकी बहाली के लिए नौसेना तैनात करनी और छावनी बनानी पड़ी.
17 अप्रैल, 1858 को निकटवर्ती रामगढ़ गांव में बागियों व राजे-रजवाड़ों की बैठक शुरू भी नहीं हो पाई थी कि जनरल हगवेड फोर्ट ने भारी लावलश्कर के साथ धावा बोल दिया. बागियों के नेता धर्मराज सिंह पकड़ में आ गये तो उनके शरीर में कंटीले तार और रस्सी बंधवाई, फिर खुद घोड़े पर बैठकर रस्सी के सहारे घसीटते हुए ले जाने लगा.
लेकिन तभी कमर में खुंसी उसकी कटार नीचे गिर गयी. उसने फौरन घोड़ा रोका और उस पर बैठे-बैठे ही पीछे घिसट रहे धर्मराज को हुक्म दिया-कटार उठाओ!
तब तक धर्मराज अचेत होने लगे थे. लेकिन हुक्म सुनकर उनकी मुंदती आंखों में बिजली-सी कौंध गई. वे उठे, कटार उठाई और फोर्ट के सीने में भोंक-भांककर उसको धराशायी कर दिया. अलबत्ता, बाद में गारे सैनिकों ने धर्मराज की जान भी नहीं बख्शी.
जनरल फोर्ट के शव को छावनी में ही दफन किया गया, जहां ग्रामीणों ने अंग्रेजों द्वारा उसकी कब्र पर लगाये गये शिलालेख के समानांतर धर्मराज की शहादत का शिलालेख भी लगा दिया है.