यूनिफॉर्म सिविल कोड पर ये स्पेशल सीरीज शुरू करने से पहले हमने एक छोटा सा सर्वे किया। लोगों से पूछा कि यूनिफॉर्म सिविल कोड की इतनी चर्चा है, इससे आखिर क्या बदल जाएगा? ज्यादातर के जवाब में एक बात कॉमन थी- इससे मुस्लिमों की 4 शादियों बंद हो जाएंगी।
क्या यही है यूनिफॉर्म सिविल कोड या कुछ और, सीरीज की पहली स्टोरी में बेसिक बातें जानना जरूरी है। मसलन- सिविल और क्रिमिनल कानून क्या होते हैं, अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग पर्सनल लॉ क्यों हैं, यूनिफॉर्म सिविल कोड क्या है और ये धर्मों के निजी मामलों में कितना दखल देगा?
ये किसी व्यक्ति बनाम स्टेट होते हैं। यानी अगर रमेश ने महेश को चाकू मार दिया तो महेश की तरफ से स्टेट केस लड़ेगा। क्योंकि वो हमला सिर्फ महेश पर नहीं हुआ, बल्कि समाज के एक नागरिक पर हुआ है जिसकी जिम्मेदारी स्टेट की है। ऐसे मामलों में सजा की डिमांड की जाती है। क्रिमिनल कानून आमतौर पर वही होगा जो स्टेट चाहेगा।
क्रिमिनल मामलों में सभी धर्मों या समुदायों के लिए एक ही तरह की कोर्ट, प्रोसेस और सजा का प्रावधान होता है। यानी कत्ल हिंदू ने किया है या मुसलमान ने या इस अपराध में जान गंवाने वाला हिंदू था या मुसलमान, इस बात से FIR, सुनवाई और सजा में कोई अंतर नहीं होता।
सिविल लॉ दो व्यक्तियों, संस्था या समूहों के बीच के विवाद पर लागू होता है। इसमें स्टेट यानी सरकार का ज्यादा दखल नहीं होता। मसलन दो लोगों के बीच प्रॉपर्टी का विवाद हो, किसी ने आपकी मानहानि की हो या पति-पत्नी के बीच कोई मसला हो।
मान लीजिए रमेश ने कोई जमीन खरीदी। कुछ दिनों बाद महेश भी उस जमीन पर दावा करने लगा कि ये मैंने भी खरीदी है। सिविल अदालत ये तय करेंगी कि ये जमीन असल में रमेश की है या महेश की। सिविल कानून में सजा दिलवाने की बजाय सेटलमेंट या मुआवजे पर जोर दिया जाता है।अलग-अलग धर्मों में शादी, परिवार और संपत्ति से जुड़े मामलों में रीति-रिवाज, संस्कृति और परंपराओं का खास महत्व है। इन्हीं के आधार पर धर्म या समुदाय विशेष के लिए अलग-अलग कानून भी हैं। यही वजह है कि इस तरह के कानूनों को हम पसर्नल लॉ भी कहते हैं।
जैसे- मुस्लिमों में शादी और संपत्ति का बंटवारा मुस्लिम पर्सनल लॉ के जरिए होता है। वहीं, हिंदुओं की शादी हिंदू मैरिज एक्ट के जरिए होती है। इसी तरह ईसाइयों के लिए क्राइस्ट एक्ट है। पारसियों के लिए पारसी एक्ट है।
मान लीजिए कि पुराने समय में कोई समाज था। युद्ध में बड़ी संख्या में वहां के पुरुष मारे गए। इससे जेंडर रेशियो बिगड़ गया यानी महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा हो गई। ऐसे में समाज ने एक पुरुष की तीन शादियों का कॉन्सेप्ट अपना लिया।
ऐसे ही किसी समाज में जमीन की कमी पड़ गई। आने वाली पीढ़ियों में जमीन के और छोटे टुकड़े न हो जाएं इसलिए समाज ने सभी भाइयों की शादी एक ही महिला से करनी शुरू कर दी।
बाद के दिनों में जब दोनों समाज आपस में मिले तो एक कॉम्प्लेक्स सिचुएशन बन गई। यानी कुछ पुरुष कई शादियां कर सकते थे, वहीं कई पुरुषों की सिर्फ एक महिला से शादी होती थी। जबकि नए वक्त में ऐसे भेदभाव करने वाले पर्सनल लॉ की जरूरत ही नहीं बची।
यूनिफॉर्म सिविल कोड के जरिए देश में ऐसे ही पर्सनल लॉ को खत्म करके सभी के लिए एक जैसा कानून बनाए जाने की मांग की जा रही है। यानी भारत में रहने वाले हर नागरिक के लिए निजी मामलों में भी एक समान कानून, चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।
यूनिफॉर्म सिविल कोड यानी समान लोगों पर एक जैसे सिविल कानून। भारत में जो समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 में है, उसमें बार-बार ये कहा गया कि जो अनईक्वल हैं यानि जो असमान लोग हैं, उन पर एक समान कानून नहीं होगा। यानी समान लोगों पर ही समान कानून लागू हो सकता है।
जैसे- स्कूल में बच्चे यूनिफॉर्म पहनकर जाते हैं। उसमें पैंट, शर्ट और जूते का रंग एक जैसा होता है। जिससे अमीर-गरीब या ऊंच-नीच का भेद मिट जाए। लेकिन यूनिफॉर्म में भी सभी बच्चों के पैंट का साइज या जूते का साइज एक जैसा नहीं रखा जा सकता। वो उसकी लंबाई-चौड़ाई से तय होता है।
यूनिफॉर्म सिविल कोड का मकसद पर्सनल लॉ का रिफॉर्म होना चाहिए, लेकिन इसमें अपवाद रखने पड़ेंगे। यानी अगर हमने नगालैंड के नागाओं से वादा किया है कि हम उनके रीति-रिवाजों और परंपराओं में हस्तक्षेप नहीं करेंगे या आदिवासियों से वादा किया है तो हमें वो वादा निभाना होगा।
यूसीसी में रीति-रिवाजों और परंपराओं का ध्यान रखना जरूरी
यूसीसी तीन तरह से लाया जा सकता है। पहला- नया कानून बने, दूसरा- कानून में सुधार हो। तीसरा- कानूनों का आपस में तालमेल बढ़ा दें। सबसे अच्छा तरीका है कि इसे एकसाथ नहीं, किश्तों में लाया जाए। 21वें विधि आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिश की थी।
यूसीसी पर एक्सट्रीम पोजीशन लेना गलत है। यूसीसी के विरोधी बोलते हैं कि इसे बनाने से पहले सभी की सहमति हो। ये पिछले 75 सालों में नहीं बनी और आगे भी बनना मुश्किल है। यूसीसी के कट्टर समर्थक कहते हैं कि सबकुछ एक जैसा हो जाना चाहिए। जिस देश में कोस-कोस में पानी बदले चार कोस में वाणी, वहां सबकुछ एक जैसा कैसे हो पाएगा। इसलिए यूसीसी में रीति-रिवाजों और परंपराओं का ध्यान रखना बहुत जरूरी है।
किस समाज में किस तरह की और कैसे-कैसे रीति रिवाज हैं इसका कोई डॉक्यूमेंटेशन नहीं है। सरकार को पता भी नहीं है। हिंदू समाज में ही कहीं सप्तपदी होती है, कहीं पांच फेरे होते हैं और कहीं सिर्फ मालाओं की अदला-बदली से ही शादी हो जाती है। यूसीसी में रीति-रिवाजों को ध्यान में रखना चाहिए।
जो यूनिफॉर्म सिविल कोड आए तो उसमें बहुत बेसिक जरूरतें होनी चाहिए। जैसे- सभी शादियों का रजिस्ट्रेशन हो। हिंदू लॉ से हुई ज्यादातर शादियों का रजिस्ट्रेशन ही नहीं कराया जाता। इसी तरह तलाक के आधार हों। इस्लाम में खुला के जरिए मुस्लिम महिलाओं को तलाक का अधिकार है, लेकिन भारत में अभी तक ठीक तरीके से लागू ही नहीं किया जा सका।