क्या होता है फास्फोरस , जानिए इसके गुण तथा इसके उपयोग

Equator‎भास्वर (फ़ॉस्फ़ोरस) एक रासायनिक तत्व है जिसका संकेत या P है तथा परमाणु संख्या 15। यह शब्द ग्रीक (यूनानी) भाषा के फॉस (प्रकाश) तथा फोरस (धारक) से मिलकर बना है जिसका शाब्दिक अर्थ हुआ प्रकाश का धारक। ये फॉस्फेट चट्टानों में पाया जाता है। इसकी संयोजकता 1, 3 और 5 होती है। तत्वों की आवर्त सारणी में ये भूयाति के समूह में आता है।
‎फ़ॉस्फ़ोरस एक अभिक्रियाशील तत्व है इसकारण ये मुक्त अवस्था में नहीं पाया जाता है। कुछ खनिजों में धातुओं के फॉस्फेट मिलते हैं। पशुओं की हड्डियों में 56% कैल्शियम फॉस्फेट पाया जाता है। जन्तुओं तथा पौधों के लिए यह एक अनिवार्य तत्व है। इसका अस्तित्व कई जैव अवयवों में मिलता है। सन् 1669 में हैम्बुर्ग के व्यापारी हेनिंग ब्रांड ने फास्फोरस की खोज की थी।

अपररूप

फ़ॉस्फ़ोरस के कोई 5 अपररूप हैं –
श्वेत या पीला ‎फ़ॉस्फ़ोरस
लाल ‎फ़ॉस्फ़ोरस
सिंदूरी ‎फ़ॉस्फ़ोरस
काला ‎फ़ॉस्फ़ोरस
बैंगनी ‎फ़ॉस्फ़ोरस
श्वेत ‎फ़ॉस्फ़ोरस मोम जैसा मुलायम रवेदार पदार्थ होता है। इसमें लहसुन जैसी गंध होती है तथा प्रकाश में छोड़ देने पर यह धीरे धीरे पीला हो जाता है, इसीलिए इसे पीला ‎फ़ॉस्फ़ोरस भी कहते हैं। इसका द्रवनांक (गलनांक) 44.1 C है तथा क्वथनांक 280.5 C। यह जल में अविलेय तथा कार्वन डाई सल्फाईड (प्रा.ग२)(CS२) में विलेय होता है। यह एक जहरीला पदार्थ है।
श्वेत ‎फ़ॉस्फ़ोरस को नाइट्रोजन या कार्बन डाई ऑक्साईड गैस की उपस्थिति में 250 पर गर्म करने पर यह लाल ‎फ़ॉस्फ़ोरस में तब्दील हो जाता है। यह लाल रंग का रवेदास ठोस पदार्थ होता है जिसका घनत्व 2.5 तथा क्वथनांक 582 होता है। इसे 550 डिग्री सेंटीग्रेड पर ती२/N२ या प्रा.सा२/CO२ गैस की उपस्थिति में वाष्प बनाकर एकाएक ठंडा करने पर यह वापस श्वेत ‎फ़ॉस्फ़ोरस में परिणत हो जाता है।
इसके अतिरिक्त ‎फ़ॉस्फ़ोरस के अन्य अपररूप महत्वपूर्ण नहीं हैं।

प्राप्तिकरण
फॉस्फोराईट चूर्ण को बालू और कोक के साथ 1000°C पर विद्युत भट्ठी में गर्म करने पर तैयार किया जाता है। कैल्शियम सिलिकेट धातुमल बनकर बाहर आ जाता है –
Ca3(PO4)2 → 3CaSiO3 + P2O5
P2O5 + 5C → 2P+ 5CO
‎फ़ॉस्फ़ोरस के गुण
सांसवायु से अभिक्रिया करके यह दो प्रकार के ऑक्साईड बनाता है –
4P + 3O2 → 2P2O3
4P + 5O2 → 2P2O5
जो ये दर्शाता है कि ‎फ़ॉस्फ़ोरस 3 और 5 दोनों प्रकार की संयोजकता रखता है। इसी प्रकार क्लोरीन से अभिक्रिया करके भी यह दो प्रकार के क्लोराईड बनाता है –
2P + 3Cl2 → 2PCl3
2P + 5Cl2 → 2PCl5
श्वेत ‎फ़ॉस्फ़ोरस को कास्टिक सोडा (NaOH) के साथ गर्म करने पर फॉस्फीन गैस उत्पन्न होती है –
4P + 3NaOH → 3NaH2PO2 + PH3
श्वेत ‎फ़ॉस्फ़ोरस को किसी अंधेरे कमरे में रखने पर इससे निकलता हुआ प्रकाश देखा जा सकता है जो कि इसके हौले हौले दहन के फलस्वरूप निकलता है। इस गुण को स्फुरदीप्ति कहते हैं।

निर्माण
पहले जानवरों की अस्थियों से फ़ॉस्फ़ोरस प्राप्त किया जाता था। इस विधि में जिलेटिन रहित अथवा भुनी हुई अस्थियों को सल्फ्यूरिक अम्ल के साथ एक बड़े हौज में अभिक्रिया कराने के पश्चात् तरल पदार्थ को छानकर उसे वाष्पीकृत किया जाता है। और जब इस तरल पदार्थ का आपेक्षिक घनत्व 1.45 हो जाता है, तब इसमें 20% कोयला या जला हुआ पत्थर का कोयला (कोक) मिलाकर इसे छिछले कड़ाहों में गरम किया जाता। जब इसमें छह प्रतिशत आर्द्रता रह जाती है, तब इसे बंद मुँह के बरतनों में रखकर भट्टी में इतना गरम किया जाता है कि लाल हो जाए। इस प्रकार लगातार तीन चार दिनों तक गरम करते रहने से वर्तमान फ़ॉस्फ़ोरस आसुत होकर एक दूसरे बर्तन में पानी में एकत्र होता रहता है, जहाँ से इसे निकालकर पुनरासुत किया जाता है, तब शुद्ध फ़ॉस्फ़ोरस मिलता है। किंतु यह अत्यंत कष्टकारक विधि है। अधिक लागत पर भी इसमें फ़ॉस्फ़ोरस की अत्यंत अल्प प्राप्ति हो पाती है; इसलिए अब विद्युत् भट्टियों एवं वात्या-भट्टियों का प्रयोग होने लगा है और फ़ॉस्फ़ोरस का व्यापारिक निर्माण भी सुगम एवं सस्त हो गया है। इस नवीन प्रणाली में चट्टानीय फ़ॉस्फ़ेट, सिलिका तथा कार्बन (कोक) के मिश्रण को लेकर भट्टी में अपचायक वातावरण में पिघलाया जाता है और फिर फ़ॉस्फ़ोरस के वाष्प को एकत्र कर उसे नाना प्रकार के यौगिकों में परिवर्तित किया जाता है। इस विधि में सल्फ्यूरिक अम्ल की आवश्यकता नहीं पड़ती, साथ ही इससे अधिक फ़ॉस्फ़ोरस की प्राप्ति भी होती है।