एक्ट्रेस यामी गौतम के करियर में विक्की डोनर, बाला, उरी, काबिल जैसी सफल फिल्मों के अलावा वैसी फिल्में भी रही हैं, जो उनके कंधों पर टिकी थीं। अ थर्सडे, लॉस्ट और ‘चोर निकल के भागा’ जैसी फिल्मों के नाम शामिल हैं। यामी ने अपनी खुशी और आगे की रणनीति दैनिक भास्कर से साझा की।
देखिए जिन फिल्मों का आपने नाम लिया वो तो बहुत बड़ी फिल्में हैं। वैसी फिल्मों की व्युअर शिप के लिहाज से हमारी फिल्म का नाम जुड़ जाना बहुत बड़ी बात है।
नेटफ्लिक्स पर इंटरनेशनल यह सबसे ज्यादा देखी जाने वाली फिल्म बनी है। इसके अलावा जो मेरी ओटीटी रिलीज रही हैं ‘लॉस्ट’ या फिर ‘अ थर्सडे’ उन्हें भी काफी अच्छा रिस्पॉन्स मिला है। जो मेरी लास्ट थिएट्रिकल रिलीज ‘बाला’ थी, वह भी सफल रही थी। तो मेरी कोई शिकायत नहीं है।
आज की तारीख में चूंकि हर चीज का ही पार्ट2 अनाउंस हो रहा तो ये सवाल आ रहे। मेरा ये मानना है कि अगर स्टोरी आगे बढ़ती है और स्क्रिप्ट अच्छी हो तो क्यों नहीं, बिल्कुल करेंगे। हालांकि ये चीजें तो प्रोड्यूसर, राइटर और डायरेक्टर के हाथों मे हैं। थिएटर तक ऑडियंस को ला सकता है, मगर दो घंटे ऑडियंस को बैठाना कैसे है, वह तो स्क्रिप्ट ही तय करती है। तो हम चाहते हैं कि सिर्फ बड़ी ही नहीं, मिड बजट फिल्मों के भी पार्ट टू बने ताकि ऑडियंस सिनेमाघरों में आएं।
भले ओटीटी के लिए ही, क्योंकि वहां भी कई बार अच्छी फिल्में सेल नहीं हो रहीं। क्योंकि ओटीटी ने भी कुछ वैसी फिल्मों को बड़ी कीमतें दे दीं, जो उतने की हकदार नहीं थीं। तो ओटीटी प्लेटफॉर्म भी सावधानी बरत रहें हैं। जेनुइन फिल्मों को लेकर भी वो कहने लगे हैं कि अरे हमारे पास तो बजट नहीं हैं। अभी इंडस्ट्री में करेक्शन का फेज चल रहा है। यह अच्छा चेंज लेकर आएगा।
उम्मीद तो यही है। हालांकि फीस से लेकर बाकी मसलों पर किसने यह स्ट्रक्चर बनाया, वह मेरा भी सवाल होता है। अब जो लोग मोटी फीस दे रहे हैं, वो इनके नियम तय करते हैं। एक कॉर्पोरेट कल्चर है इन दिनों। वरना पहले एक दौर था, जब इंडिविजुअल प्रोड्यूसर होते थे।
वो घर तक गिरवी रखकर फिल्में बनाते थे। कुछ आईकॉनिक फिल्में ही वैसे बनी हैं। तब पैशन ही कुछ और होता था फिल्म मेकिंग का। बेशक एक्टर्स की फीस उतनी रियलिस्टिक तो होनी चाहिए ताकि वह फिल्मों के बजट को अफेक्ट न करे। कि नाम के लिए आपकी फिल्म हिट हो जाए, मगर प्रोड्यूसर के बजट की रिकवरी ही न हो, तो वो बात सही नहीं है।
वो क्राइटेरिया तो नहीं है। मेरी हाल की जिन भी फिल्मों ने बेटर परफॉर्मेंस दी हैं, वो मैंने इसलिए चुनी थीं कि उनकी स्क्रिप्ट मुझे बेहतर लगी थीं। सच कहूं तो उस तरह की फिल्में मुझे चार साल पहले से ही आनी शुरू हो गई थीं।
सुनने में जरूर अच्छा लगता है कि फिल्म तो यामी के कंधों पर है, पर फिल्म में वजन भी होना चाहिए। तो ये कभी पॉइंट नहीं रहा कि वैसी ही फिल्में करनी हैं। जैसे मेरी ‘धूमधाम’ एक फिल्म है। प्रतीक गांधी के साथ है। वह बड़ी अच्छी फिल्म है। उसका सुर ही बिल्कुल अलग है मेरी हालिया फिल्मों से।
दिल तो खैर उससे पहले भी धड़का था। मैं कोई आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जमात तो नहीं हूं। बहरहाल, उरी के प्रोमोशन के दौरान जस्ट एक दोस्ती हुई। उससे पहले शूट के दौरान तो बस प्रोफेशनली हम एक दूसरे के साथ थे। वो दूसरों के साथ बहुत अच्छे तरीके से पेश आते हैं।
हम एक्टर्स का तो सेट पर एक आंटोराज होता है। यानी हमारे हेयर मेकअप से लेकर बाकी क्रू मेंबर्स की टीम होती है। स्ट्रेसफुल शूट होने के बावजूद आदित्य कभी चिल्लाते हुए नजर नहीं आते थे।
वो भी वैसा कुछ नहीं था। फिल्मों ने ही ये इजहार-विजहार वाली चीजें खराब की हुई हैं। एक मेरे डीओपी रहें हैं। उन्होंने कहा कि उनके एक जानने वाले की वाइफ लंदन से हैं। वो मुझसे एक्सपेक्ट कर रहीं थीं कि फिल्मों में करवा चौथ कुछ तालाब के पास फिल्मी अंदाज में किया जाता है।
मैंने उन्हें समझाया कि ऐसा कुछ नहीं होता। उस तरह से सेलिब्रेशन नहीं होता। तो मेरे और आदित्य के बीच भी वैसा ही था। हम दोनों ने ही उस फिल्मी अंदाज में इजहार नहीं किया। बस हो गया। हम और हमारी फैमिली जानते थे एक दूसरे को। उनके लिए भी पहले फैमिली है और मेरे लिए भी फैमिली फर्स्ट। तो मुझे उनकी वह बात अच्छी लगी थी।