यूपी के दलित वोट बैंक की लड़ाई का असर बिहार विधानसभा चुनाव पर भी दिख रहा है। इसी लड़ाई ने राज्य में नए बने दो चुनावी गठबंधनों को एक नहीं होने दिया। बसपा के वीटो के चलते यहां रालोसपा प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा और जाप के अध्यक्ष पप्पू यादव के बीच बातचीत का कोई परिणाम नहीं निकला। दरअसल उपेंद्र की पार्टी का गठबंधन बसपा तो पप्पू यादव का चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी से है। इन दोनों दलों के बीच यूपी में छत्तीस का आंकड़ा है। अब चंद्रशेखर की नजर बिहार में बसपा के वोट बैंक पर है।
बसपा सुप्रीमो मायावती की बीते दो दशक से अधिक समय से यूपी के दलित वोट बैंक पर धाक रही है। इसी के बूते दूसरी जातियों संग सोशल इंजीनियरिंग से मायावती कई बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। भीम आर्मी बनाकर चर्चा में आए चंद्रशेखर आजाद ने बीते कुछ समय में उनके सामने चुनौती पेश की है। चंद्रशेखर को लोग रावण उपनाम से भी जानते हैं। करीब सालभर पहले राजनीतिक दल बनाकर राजनीति में उतरे चंद्रशेखर ने बिहार चुनाव में भी दस्तक दे दी है। उनके लिए यह चुनाव 2022 के यूपी के संग्राम से पहले का लिटमस टेस्ट साबित होगा।
इन दोनों की कड़ी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ही रालोसपा और जाप की अगुवाई वाले दोनों गठबंधन की दोस्ती में गांठ बन गई। रालोसपा और जाप के नेताओं के बीच कई दौर की बातचीत बेनतीजा रही। जिस दिन उपेंद्र कुशवाहा ने बसपा संग नए गठबंधन की घोषणा की थी, उससे ठीक पहले भी बंद कमरे में उनकी पप्पू यादव से काफी देर बात हुई थी। दरअसल बसपा किसी भी सूरत में ऐसे किसी गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार नहीं है, जिससे चंद्रशेखर का जुड़ाव हो। उधर, चंद्रशेखर भी बसपा सुप्रीमो मायावती को घेरने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते।
1.65 करोड़ से अधिक है बिहार में दलितों की आबादी
वर्ष 2011 की जनसंख्या को आधार मानें तो राज्य में अनुसूचित जाति के वोटरों की संख्या एक करोड़ 65 लाख से अधिक है। हालांकि अब इस संख्या में काफी इजाफा हो चुका है। बिहार में 23 अनुसूचित जातियां हैं। इनकी आबादी तकरीबन 16 प्रतिशत है। बीते दो-तीन दशक में जातीय राजनीति करने वाले दलों की संख्या भी बिहार में काफी बढ़ी है। जीत-हार के गणित में दलित और महादलित में बंटे इन मतदाताओं की भूमिका खासी महत्वपूर्ण है।