अगर आप भोपाल गए हैं तो पुराने शहर में ‘पप्पू भाई चाय वाले’ की चाय जरूर पी होगी। तो फिर इसका टेस्ट भी आपको याद होगा। चीनी, दूध, मलाई के बीच हल्की नमकीन चाय हर भोपाली की जुबान पर रहती है।
मगर भोपाल की सबसे फेमस चाय ‘राजू टी स्टॉल’ की मानी जाती है। जिसकी शुरुआत फरीद कुरैशी ने 90 के दशक में की। मशहूर पेंटर एमएफ हुसैन, रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर बिमल जालान, राहुल गांधी, अन्नू कपूर, फिल्म डायरेक्टर मुज़फ्फर अली, प्रकाश झा और अनुराग बसु जैसी तमाम हस्तियां यहां आकर चाय का लुत्फ लेती रही हैं।
फरीद कुरैशी 22 फरवरी 2001 के दिन को अपनी लाइफ का टर्निंग पॉइंट मानते हैं। वह बताते हैं कि उस दिन आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर बिमल जालान भोपाल में थे। उनके लिए आरबीआई ऑफिस में मेरे यहां से चाय गई।
एक और चाय पीने के बाद बिमल साहब ने मुझे 100 रुपए का नोट थमाया। मैंने कहा, ‘साहब मैं टिप नहीं लेता।’ फिर जालान साहब ने सौ रुपए के उसी नोट पर सिग्नेचर कर मुझे वापस थमा दिया। ये वो नोट था जिस पर उनका नाम और सिग्नेचर पहले से प्रिंटेड था। इस ऑटोग्राफ वाले नोट को मैंने फ्रेम कराकर अब भी रखा हुआ है।
राजू टी स्टॉल की तरह देश के अमूमन हर शहर में ऐसी कोई न कोई एक कहानी जरूर मिल जाएगी। ऐसी कई कहानियां गरम चाय की एक प्याली से शुरू होकर सबसे सफल स्टार्टअप्स में तब्दील हो गईं।
भोपाल की तरह ही देश के बाकी हिस्सों में भी चाय की दीवानगी है। हम सिर्फ चाय पीने के ही शौकीन नहीं हैं, बल्कि चाय के प्रोडक्शन में भी दुनिया के टॉप 5 देशों में शामिल हैं।
भारत चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा चाय उत्पादक देश है। लेकिन जैसा कि आमतौर पर होता है भारत अपनी पैदावार की सबसे बेहतरीन चीजों की क्वालिटी को एक्सपोर्ट कर देता है, कहने को चाय आम है, लेकिन चाय का भी ‘आम’ जैसा हाल है।
बहरहाल, कुछ समय पहले ही एक नोट में ‘द सस्टनेबल ट्रेड इनिशिएटिव’ के कंट्री हेड जगजीत कंडाल ने बताया था कि भारत में दुनिया की 20 फीसदी चाय पैदा होती है। अमूमन हर भारतीय रोजाना दो कप चाय पीता है।
भारत में चाय का जितना उत्पादन होता है उसका करीब 90 फीसदी हिस्सा हम खुद ही पी जाते हैं। आप सुबह बेड टी के नाम पर कितने कप चाय पी लेते हैं? टी बोर्ड ऑफ इंडिया के 2018 के सर्वे में पाया गया कि 88 फीसदी भारतीय घरों में रोजाना चाय पी जाती है।
चाय हमारी जिंदगी में रिश्ते के बनने-बिगड़ने और टूटने के दर्द को बयां करने का जरिया भी बन गया है।
दिल टूटा तो ‘बेवफा चायवाले’ के नाम से खोली चाय की दुकान
बिहार में नवादा के मंटन कुमार को प्रेम में असफलता मिली तो उन्होंने ‘बेवफा चायवाले’ के नाम से न सिर्फ चाय की दुकान खोली बल्कि कपल्स को मुफ्त की चाय भी पिलाने लगे।
देहरादून के दिव्यांशु बत्रा ने अपनी टी शॉप का नाम ही ‘दिल टूटा आशिक, चायवाला’ रख हुआ। उनकी शॉप में ‘मान लो मेरी राय, इश्क से बेहतर है मेरी चाय’, ‘इश्क है तबाही, चाय है दवाई’ जैसे स्लोगन लिखे मिल जाएंगे।
अभी हम चाय की तलब और उसके पीने की बात कर रहे थे, लेकिन अब जानेंगे कि कैसे चाय ने स्टार्टअप इंडस्ट्री का रूप अख्तियार कर लिया।
भारत का पहला टी स्टार्टअप ‘टी पॉइंट’ 2010 में शुरू हुआ। लेकिन 2012-13 में शुरू हुए चायोज ने टी स्टार्टअप की दुनिया को नया रंग दिया, जिसके खुलने की कहानी में चाय के शौकीन नितिन सलूजा मुख्य कैरेक्टर बने।
नितिन सलूजा IIT बॉम्बे से ग्रेजुएशन करने के बाद अमेरिका चले गए। एक सुबह ब्रेकफास्ट के बाद उन्हें चाय पीने की तलब हुई। शॉप पर पहुंचे और अपनी मनपसंद अदरक चाय मांगी। लेकिन दुकानदार बोला कि सर, यहां चाय नहीं कॉफी मिल पाएगी।
फिर नितिन के दिमाग में यह सवाल उठा कि ऐसा क्यों नहीं होना चाहिए कि शहरों की भागती-दौड़ती जिंदगी जीने वालों के घर या दफ्तर के बाहर एक अच्छी चाय मिले। यह पहला मौका था जब नितिन के दिमाग में कौंधे इस सवाल ने आइडिये की शक्ल ली।
नितिन इंडिया लौटकर वापस आए और फिर चायोज शुरू किया। लेकिन इससे पहले उन्होंने अपने स्टार्टअप को लेकर बकायदा प्लान तैयार किया। इस प्लान में था कि वो टी स्टार्टअप को ऑफिसेस के कैम्पस या उसके आसपास खोलेंगे।
फिर ऐसे में कोई कैफे में क्यों बैठना चाहेगा। लेकिन नितिन का मानना था कि मनपसंद चाय सबको चाहिए और यही वो आइडिया था जो काम कर गया और सफल भी रहा।
चायोज ऐसा पहला टी स्टार्टअप था जिसने चाय का ‘मेरी वाली चाय’ जैसा पर्सनलाइज्ड कॉन्सेप्ट दिया। चायोज के आउटलेट्स पर आप अपनी फेवरेट फ्लेवर की चाय ऑर्डर कर पी सकते हैं।
चायोज ने 2013 में गुरुग्राम के गैलेरिया मार्केट में अपना पहला स्टोर खोला। 2015 में कंपनी ने रेडी टू ड्रिंक गर्मागरम चाय की होम डिलीवरी तक शुरू कर दी, मुमकिन है कि MBA चायवाला से आप समझ रहे होंगे कि चाय बेचने वाले ने एमबीए की डिग्री ली है। मगर इस नाम के फेमस होने की एक अलग ही इंट्रेस्टिंग स्टोरी है।
मध्यप्रदेश के धार में 1996 में जन्मे MBA चायवाला के सीईओ प्रफुल्ल बिल्लौर ने बीकॉम करने के बाद एक कॉलेज में एमबीए में दाखिला लिया। लेकिन एडमिशन के सातवें दिन उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया।
इसके बाद प्रफुल्ल एक कंपनी में सेल्समैन की जॉब करने लगे। हालांकि इस नौकरी से वह संतुष्ट नहीं थे। वह अपना बिजनेस शुरू करना चाहते थे, और फिर उन्हें चाय बेचने का आइडिया सूझा।
मजेदार बात ये हुई कि जिस संस्थान आईआईएम अहमदाबाद से उनका एमबीए करने का सपना था, उसी के सामने चाय बेचनी शुरू कर दी।
अब आप सोच रहे होंगे कि इसमें हमने आपको ‘MBA चायवाला’ इस नाम के बारे में तो कुछ नहीं बताया। चलिए यह भी बताते हैं…
एमबीए करने की चाहत रखने वाले प्रफुल्ल आईआईएम अहमदाबाद से डिग्री तो नहीं ले पाए, लेकिन अब वह अहमदाबाद के स्थायी रिहायशी हो गए हैं। इस शहर और अपने नाम को मिलाकर उन्होंने एक मजेदार मसाला चाय तैयार की।
ये चाय ऐसी बनी कि चुस्की लेने वाले को भी उस चाय में क्या पड़ा है, फौरी तौर पर पता नहीं चल पाता। ‘मिस्टर बिल्लौर अहमदाबाद चायवाले’ यानी ‘MBA चायवाला’ प्रफुल्ल ने अपने स्टार्टअप का नाम ही रख लिया। है न इस चाय की कहानी मसाला चाय के माफिक?
अभी तक हमने भारतीयों में चाय की दीवानगी, भारत में टी स्टार्टअप्स के शुरू होने और उनके कारोबार के बारे में पढ़ा, लेकिन अब हम जानेंगे कि वास्तव में भारतीयों की जुबान को चाय का चस्का कैसे लगा।
महान वैज्ञानिक सर आइजक न्यूटन के सिर पर पेड़ से टूटकर सेब का एक फल क्या गिरा, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी ही खोज निकाली। लेकिन कमाल की बात ये है कि न्यूटन की इस थ्योरी से प्रेरित होकर एक अमेरिकी अर्थशास्त्री और कारोबारी ने मंदी की भविष्यवाणी कर दी जिसने लोगों को घोर निराशा में धकेल दिया।
वो अर्थशास्त्री थे रोजर बाबसन, जिनकी इंजीनियरिंग की पढ़ाई-लिखाई अमेरिका के मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (MIT) से हुई। इंजीनियरिंग में उनकी डिग्री ने उन्हें यह सिद्ध करने में मदद की कि न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के तीसरे नियम क्रिया-प्रतिक्रिया की तरह ही उतार-चढ़ाव शेयर बाजार की नियति है।
असल में, रोजर बाबसन ने 5 सितंबर 1929 को एक भाषण में बाजार के धाराशायी होने की आशंका जाहिर की, और यकीन मानिए उनकी भविष्यवाणी ‘तीर का तुक्का’ नहीं बल्कि सटीक साबित हुई। मार्केट के साथ वही हुआ जो उन्होंने कहा था।
दुनिया को 1929 की महामंदी से रूबरू होना पड़ा। दुनिया के मार्केट क्रैश कर गए। 20वीं सदी में जिन चीजों की बड़ी डिमांड थी, उनमें अचानक गिरावट आ गई।
मजेदार बात ये हुई कि 20वीं सदी की उस मंदी से उबरने में भी चाय की ही अहम भूमिका रही जिसकी मांग में भारी गिरावट देखी गई, और इसी चाय ने भारतीयों की प्याली में मिठास भर दी
दरअसल, 1929 की मंदी से दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं औंधे मुंह गिर चुकी थीं। लेकिन उस दौरान ब्रिटिश शासन वाले भारत और सिलोन जिसे अब श्रीलंका कहा जाता है, दोनों देश चाय का सरप्लस प्रोडक्शन कर चुके थे।
चाय का सरप्लस प्रोडक्शन अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। चाय की इन पत्तियों को बेचने के लिए अंग्रेजों को एक ऐसे मार्केट की जरूरत थी, जहां चाय की बढ़ी हुई पैदावार को खपाया जा सके।
अंग्रेजों की नजर भारत पर थी। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद अंग्रेज भारत में अपनी चाय नहीं बेच पा रहे थे, क्योंकि चाय की प्याली तब तक आम भारतीयों की जुबान से दूर थी। चाय पीना भारतीयों की आदतों में शामिल नहीं था।
इसमें एक बात ये थी कि अंग्रेज मंदी के साथ-साथ भारतीयों के प्रतिरोध से भी जूझ रहे थे। भारत में आजादी की लड़ाई की अगुवाई कर रहे महात्मा गांधी जिस तरफ निकलते, पूरा देश उस दिशा में चल पड़ता।
मंदी के निराशा भरे दौर में गांधी जी की यह बात अंग्रेजों के लिए ‘एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा’ की कहावत साबित हुई। ये वो समय था जब चाय अंग्रेजों की मुखालफत का प्रतीक बन गई। उन्होंने हिंदुस्तान में चाय की मार्केटिंग ही नहीं की। पर मरता क्या न करता।
न्यूटन के गति के जिस तीसरे नियम क्रिया-प्रतिक्रिया का ऊपर आपने जिक्र देखा, अंग्रेजों ने उसी फॉर्मूले को भारत में अपनाया। गांधी जी के चाय विरोधी लेख के खिलाफ मंदी से पार पाने के लिए अंग्रेज कारोबारियों ने भारत में चाय की बिक्री को लेकर कम से कम एक चांस लेने का फैसला किया।
काफी जद्दोजहद के बाद ‘द इंडियन टी मार्केट एक्सपेंशन बोर्ड’ उस समय भारतीयों में ड्रिंकिंग हैबिट्स का पता लगाने के लिए सर्वे कराने को राजी हुआ, और उसने पूरे भारत में एक मार्केट कैंपेन शुरू किया।
अपनी खास रणनीति के तहत द इंडियन टी मार्केट एक्सपेंशन बोर्ड ने काफी रकम खर्च की। ठेकेदार रखे और ब्रिटिश तौर तरीके से उन्हें चाय बनाने की ट्रेनिंग दी।
ठेकेदारों की यह फौज गांव गांव, शहर शहर तक पहुंचने लगी। शहरों और गंवई-कस्बाई बाजारों में पोस्टर लगाने शुरू किए। सेहत के लिए चाय को फायदेमंद बताया। भारतीयों को मुफ्त में बनी बनाई चाय पिलाई जाती और इसे पीने के लिए उन्हें उत्साहित किया जाता। चाय पत्ती भी बांटी जाती।
बहरहाल, देश के बड़े रेलवे जंक्शनों पर चाय के स्टॉल और पोस्टर लगाए गए। इन विज्ञापनों को इस तरह पेश किया जाता कि जैसे चाय सांस्कृतिक रूप से भारतीय समाज का अभिन्न हिस्सा हो। इन विज्ञापनों में घरेलू और संस्कारी महिलाओं की तस्वीर होती, जो अपने परिवार का बेहद ख्याल रखती है।
भारत में मुफ्त में चाय पिलाना मास्टरस्ट्रोक साबित हुआ। चाय बाजार की ब्रुक बॉन्ड और लिप्टन जैसी दिग्गज कंपनियों ने भी यही रास्ता अख्तियार किया। ब्रुक बॉन्ड ने मालगाड़ी में भरकर कलकत्ता चाय भेजी। ये चाय बनाकर लोगों को मुफ्त में पिलाई गई।
फ्री में चाय बांटना और विज्ञापनों का असर यह हुआ कि भारतीयों में चाय पीने की आदत पड़ गई। आदत ऐसी पड़ी कि हमने चाय का भीषण भारतीयकरण कर दिया। मसाला चाय, दूध की चाय, मलाई चाय, अदरक की चाय जैसी चाय की दर्जनों रेसिपी तैयार कर दी।
अंग्रेजों की उम्मीद से ज्यादा चाय भारतीय समाज में पैबस्त हो गई। और आज तो हम चाय के इतने पियक्कड़ हो गए कि खुद तो पीते ही हैं, घर आए मेहमानों का भी स्वागत चाय के कप से ही करते हैं। यही नहीं जहां कहीं काम अटका हो, ‘चाय-पानी’ के नाम पर चाय को कुछ लोग बदनाम भी करते हैं।
अंग्रेजों ने भले हम भारतीयों को चाय का चस्का लगाया लेकिन आज देश में चाय का इतना प्रोडक्शन होता है कि ब्रिटेन को भी निर्यात करते हैं।
यह बात 16 दिसंबर 1773 की है। ब्रिटेन से भगाए गए लोग अमेरिका में बसे थे। वहां जबरन ब्रिटेन अपना टैक्स वसूलता था। यह बात अमेरिकी लोगों को हमेशा खटकती थी। क्योंकि इस देश को उन्होंने खुद चुना और खुद ही बनाया था। उन्हें किसी की गुलामी बर्दाश्त नहीं थी।
ऐसे में जब ब्रिटेन ने चाय पर भारी भरकम टैक्स लगाए तो अमेरिकी भड़क उठे। और ब्रिटेन के खिलाफ विद्रोह सुलग उठा। विरोध के रूप में बोस्टन बंदरगाह पर चाय की सैकड़ों पेटियों को समुद्र में बहा दिया गया। अमेरिकी इतिहास की ये घटना उसकी आजादी के लिए मील का पत्थर साबित हुई और 4 जुलाई 1776 को अमेरिका आजाद हो गया।