स्वर कोकिला लता मंगेशकर की दूसरी पुण्यतिथि है आज, जानिए उनकी जिंदगी के कुछ खास पल

आज स्वर कोकिला लता मंगेशकर की दूसरी पुण्यतिथि है। उन्होंने करियर में 50 हजार से ज्यादा गाने गाए थे। 30 से ज्यादा भाषाओं में गाने का रिकाॅर्ड भी लता दीदी के नाम है। उनके गानों की गूंज भारत समेत विदेशों तक थीं। मगर, उन्हें हर कदम पर खुद को साबित करना पड़ा।
कोई ऐसा सम्मान नहीं था जो लता दीदी को ना मिला हो। उन्हें दादा साहेब फाल्के पुरस्कार, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। उन्होंने 3 नेशनल अवाॅर्ड भी जीते थे।
4 फिल्मफेयर अवाॅर्ड भी अपने नाम किए थे। हैरान की बात यह है कि उन्होंने करियर का पहला फिल्मफेयर अवॉर्ड लेने से मना कर दिया था। उन्हें फिल्म मधुमति के गाने ‘आजा रे परदेसी’ के लिए बेस्ट प्लेबैक सिंगिंग अवाॅर्ड मिला था। मगर, उन्होंने यह अवाॅर्ड लेने से मना कर दिया।
इनकार करने की वजह उन्होंने यह बताई थी कि महिला आकार की ट्रॉफी पर कोई कपड़े नहीं हैं। उनके इस जवाब से सभी लोग दंग रह गए थे। बाद में ये अवाॅर्ड उन्हें ढंक कर दिया गया था।
लता दीदी 13 साल की थीं, तब उनके पिता दीनानाथ मंगेशकर का हार्ट अटैक की वजह से निधन हो गया। वो घर में बड़ी थीं, ऐसे में सारी जिम्मेदारियां उन्हीं के कंधों पर आ गईं। एक दिन ऐसा भी आया जब पूरे परिवार को भूखा सोना पड़ा था। यह बात खुद लता दीदी ने 2015 में एक इंटरव्यू में कही थी।
इसी दौरान मास्टर विनायक ने उन्हें अपनी मराठी फिल्म पहिली मंगला गौर के लिए अप्रोच किया। पैसों की जरूरत थी तो उन्होंने हां कर दी और फिल्म में एक छोटा सा रोल भी किया। साथ में उन्होंने फिल्म के गीत ‘नटली चैत्राची नवलाई’ को अपनी आवाज भी दी। इस गाने के लिए उन्हें 25 रुपए फीस मिली थी और फिल्म में रोल के लिए कुल 300 रुपए। इसके बाद उन्होंने कुछ समय तक मास्टर विनायक की कंपनी में काम किया।
जब लता दीदी ने इंडस्ट्री में कदम रखा, तो कई लोगों ने उनकी आवाज को पतली कहकर रिजेक्ट कर दिया। इस लिस्ट में शशिधर मुखर्जी का नाम भी शामिल था। तब मास्टर हैदर अली ने कहा था- आने वाले दिनों में प्रोड्यूसर और डायरेक्टर इस लड़की के पैरों में गिरकर अपनी फिल्म में गाना गाने की विनती करेंगे।
उस वक्त इंडस्ट्री में नूरजहां और शमशाद बेगम जैसे लोगों का बोलबाला था। मगर, कुछ समय बाद लता दीदी ने सभी को पीछे कर दिया।
रिपोर्ट्स की मानें तो स्वर कोकिला लता दीदी का कंपैरिजन नूरजहां से किया जाता था। कहा ये भी जाता था कि अगर विभाजन के दौरान नूरजहां पाकिस्तान नहीं जातीं तो लता दीदी का सिंगिंग करियर इतनी ऊंचाइयों पर नहीं होता। हालांकि नूरजहां ने 14 साल की लता को देखकर ये बात कही थी कि ये एक दिन बड़ी सिंगर बनेगी। लता दीदी भी नूरजहां की बहुत बड़ी फैन थीं और उनको अपना आइडल मानती थीं। खाली समय में नूरजहां भी उनके गाने सुना करती थीं।
33 साल की उम्र में लता दीदी स्वर कोकिला बन चुकी थीं। किसी को उनकी तरक्की से इतनी जलन थी कि उन्हें जहर देकर मारने की कोशिश की। ये उनकी जिंदगी का सबसे कठिन और भयानक दौर था। इस वजह से उन्हें 3 महीने तक बेड पर रहना पड़ा। शरीर इस कदर कमजोर हो गया था कि वो बेड से उठ भी नहीं पाती थीं, चलना तो दूर की बात थी। उनके इस कठिन समय में कवि मजरूह सुल्तानपुरी उनका सहारा बने। मजरूह दिनभर अपना काम करके शाम को उनके पास जाकर कविताएं सुनाया करते थे और उनका मन बहलाया करते थे।
अपने इस कठिन समय को याद करते हुए लता दीदी ने एक बार कहा था- अगर मजरूह इस मुश्किल वक्त में मेरे साथ ना होते, तो शायद मैं इस मुश्किल दौर से ना उबर पाती। अफवाह यह भी थी कि इस हादसे की वजह से उन्होंने अपनी आवाज खो दी थी। हालांकि बाद में उन्होंने इस बात का खंडन करते हुए कहा था- मैंने अपनी आवाज कभी नहीं खोई थी।
बाद में किसने उन्हें जहर दिया है, उस इंसान का पता लता दीदी को चल गया था। उस शख्स के खिलाफ उनके पास पुख्ता सबूत नहीं था। जिस वजह से उसके खिलाफ पुलिस कार्रवाई न हो सकी।
लता दीदी की आवाज में वो दर्द था, जिसे सुनकर पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी खुद को रोने से रोक नहीं पाए। यह घटना तब की है जब 1962 में चीन के हमले के बाद पूरे देश में हताशा का भाव फैला हुआ था। इसी दौरान 26 जनवरी 1963 को लता दीदी से गुजारिश की गई कि वो ‘ए मेरे वतन के लोगों’ गाने को अपनी आवाज दें। समय कम था लेकिन इसके बावजूद वो इसके लिए राजी हो गईं।
फ्लाइट में ही टेप रिकॉर्डर पर इसे थोड़ा-थोड़ा सुनकर प्रैक्टिस की। जब उन्होंने इसे गाने को अपने मधुर आवाज में पिरोया तो सामने बैठे पंडित जी समेत सभी अतिथियों की आंखें नम हो गईं।
जब गाना खत्म हुआ तो महबूब खान लता दीदी के पास गए और कहा- लता, पंडित जी तुम्हें बुला रहे हैं। इसके बाद लता दीदी की मुलाकात पंडित जी समेत इंदिरा गांधी और कई अन्य राजनेता से हुई।
पंडित जी ने उनसे कहा- बेटी तुमने आज मुझे रुला दिया, मैं घर जा रहा हूं, तुम भी साथ आओ और मेरे घर पर चाय पियो। लता दीदी उनके साथ घर चली गईं। वहां वो एक कोने में जाकर बैठ गईं, तभी इंदिरा गांधी आईं और बोलीं- मुझे आपको दो लोगों से मिलाना है, जो सही अर्थों में आपके कद्रदान हैं। वो आपसे मिलकर बेहद खुश होंगे। फिर वो अपने दो बेटों राजीव और संजय के साथ लौटीं और बोलीं- ये आपके बड़े फैन हैं।
1943 में लता दीदी ने पहला हिंदी गाना गाया था। मराठी फिल्म गाजाभाऊ के गाने ‘माता एक सपूत की दुनिया बदल दे तू’ को अपनी आवाज दी थी। 1945 से उन्होंने उस्ताद अमन अली खान से क्लासिकल म्यूजिक की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी थी। 1948 में उन्हें पहला मेजर ब्रेक फिल्म मजबूर के गाने ‘दिल मेरा तोड़ा’ से मिला था। 1949 में उनका पहला सुपरहिट गाना फिल्म महल का था, जिसके बोल थे- आएगा आनेवाला।
उन्होंने 1959 में फिल्म मधुमती (1958) के गीत ‘आजा रे परदेसी’ के लिए अपना पहला फिल्मफेयर पुरस्कार जीता था। वहीं, 1973 में उन्हें फिल्म परिचय के गीत ‘बीती ना बिताई रैना’ के लिए पहला नेशनल अवाॅर्ड मिला था।
गुलाम हैदर ने उस समय लता दीदी की प्रतिभा पर विश्वास किया, जब हर कोई उनके खिलाफ था। उनकी बदौलत लता दीदी ने फिल्म मजबूर (1948) के गाने ‘दिल मेरा तोड़ा, मुझे कहीं का ना छोड़ा’ को अपनी आवाज दी। इस गाने को दर्शकों ने बहुत पसंद किया और ये उस समय का हिट गाना बना।
लता दीदी ने गुलाम हैदर का यह एहसान ताउम्र माना। 2013 में एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था- गुलाम हैदर साहब वास्तव में मेरे गॉडफादर हैं। वह पहले म्यूजिक डायरेक्टर थे जिन्होंने मेरी प्रतिभा पर पूरा भरोसा दिखाया था।
लता दीदी का पहले नाम हेमा था। बाद में उनके पिता ने अपने नाटक भाव बंधन की लीड फीमेल कैरेक्टर लतिका से प्रभावित होकर उनका नाम लता रख दिया।
पहले लता दीदी के पिता का नाम दीनानाथ अभिषेकी था, लेकिन वो चाहते थे कि उनकी आगे की पीढ़ी का नाम बिल्कुल अलग हो। उनके पुरखों के गांव का नाम मंगेशी था और कुलदेवता का नाम मंगेश। इस तरह उन्होंने अपना सरनेम मंगेशकर कर लिया।
शनिवार 28 सितंबर 1929 को लता दीदी का जन्म इंदौर के एक सिख मोहल्ले में अपनी मौसी के घर हुआ। बचपन के कई साल उन्होंने इंदौर में ही गुजारे थे। पिता के नाटक कंपनी में काम करने का सिलसिला यहीं शुरू हुआ था। उन्होंने पिता के निधन के बाद 1945 में मुंबई का रुख किया था।
लता दीदी ने 1940 से लेकर 2000 तक, नई-नई पीढ़ियों के सबसे बड़े म्यूजिक डायरेक्टर के साथ काम किया था। मगर जिसने उन्हें सबसे ज्यादा चुनौती दी वो जयदेव थे। एक बाद जयदेव ने उन्हें एक ऐसा गीत गाने को कहा था, जिसे नेपाल के राजा ने खुद लिखा था। लता दीदी का कहना था कि म्यूजिक कंपोजिंग के बाद जयदेव सारी जिम्मेदारियां सिंगर के ऊपर छोड़ देते थे। इस वजह से उनके साथ काम करना मुश्किल हो जाता था।
लता दीदी, किशोर कुमार को अपना भाई मानती थीं। दोनों की जोड़ी ने कई बेहतरीन गाने दिए हैं। उन्होंने फिल्म ‘जिद्दी’ में पहली बार किशोर कुमार के साथ ‘ये कौन आया रे’ गाना गाया था। मगर, उनकी पहली मुलाकात का किस्सा दिलचस्प है।
करियर की शुरुआत में लता दीदी लोकल ट्रेन पकड़कर स्टूडियो जाती थीं। एक दिन महालक्ष्मी स्टेशन में एक व्यक्ति कुर्ता पजामा पहने और छड़ी लिए उनके कंपार्टमेंट में चढ़ गया। लता दीदी को वो शख्स जाना पहचाना लग रहा था, लेकिन उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उसे उन्होंने कहां देखा है। जब उन्होंने लोकल से उतर कर तांगा लिया तो वो शख्स भी तांगे से पीछे आने लगा।
वो घबरा गईं और तेजी में स्टूडियो पहुंचीं, यहां भी वो शख्स पीछे ही आ रहा था। स्टूडियो पहुंचकर उन्होंने संगीतकार खेमचंद से कहा- ये कौन है, जो मेरा पीछा कर रहा है। खेमचंद्र ने पीछे देखा तो हंसने लगे और कहा- ये किशोर कुमार है, अशोक कुमार का भाई। कुछ इस तरह दोनों की पहली मुलाकात हुई।लता दीदी का पालन-पोषण मुंबई में हुआ था। यही कारण था कि उनकी बोलचाल की भाषा भी मराठी ही थी। जब उन्होंने हिंदी सिनेमा में गाना शुरू किया था, तो लोग मराठी होने पर उन्हें ताने भी मारते थे। इसी से जुड़ा किस्सा ये है कि एक दिन वो, संगीतकार अनिल बिस्वास और दिलीप कुमार के साथ लोकल ट्रेन से गोरेगांव जा रही थीं।
अनिल बिस्वास ने दिलीप कुमार से उनका परिचय कराते हुए कहा- दिलीप ये लता मंगेशकर हैं और ये बहुत अच्छा गाती हैं। इस पर दिलीप कुमार ने पूछा- ये कहां की हैं। अनिल बिस्वास ने बताया कि ये मराठी हैं।
मराठी शब्द सुनते ही दिलीप कुमार ने अपना अजीब सा चेहरा बनाकर कहा- क्या है ना मराठी लोगों की बोली में थोड़ी दाल-भात की बू (मराठी लोगों को उर्दू नहीं आती है) होती है। उनकी ये बात लता दीदी को बहुत बुरी लगी। इसके बाद उन्होंने उर्दू सीखने की ठानी और सीख भी ली। वो कहती थीं- वो दिलीप कुमार ही थे, जिनकी बदौलत उन्हें उर्दू आई और उनका उच्चारण सुधर गया।
बता दें, लता दीदी ने अपने करियर में 30 से ज्यादा भाषाओं में गाने गाए थे।
लता दीदी के करियर को संवारने में 1949 की हॉरर फिल्म महल का बहुत बड़ा हाथ था। फिल्म के गाने ‘आएगा आनेवाला’ को लता दीदी ने आवाज दी थी। इस गाने ने उस वक्त सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए थे। यह इतनी बड़ी सफलता थी कि इसने प्रोड्यूसर्स को एहसास कराया था कि म्यूजिक से भी काफी कमाई की जा सकती है।
लता दीदी की करियर ग्रोथ में नौशाद साहब का मेजर रोल रहा है। 1960 की फिल्म ‘मुगल-ए-आजम’ में लता दीदी मधुबाला की आवाज बनी थीं। म्यूजिक डायरेक्टर नौशाद ने 150 गानों को रिजेक्ट करने के बाद ‘प्यार किया तो डरना क्या’ सिलेक्ट किया था। इस गाने में जो गूंज नौशाद साहब को चाहिए थी, वो स्टूडियो में नहीं थी। ऐसे में उन्होंने लता दीदी से बाथरूम में ये गाना रिकॉर्ड करवाया था। उस जमाने में 10-15 लाख में पूरी फिल्म बना करती थी, लेकिन इस गाने में पूरे 10 लाख रुपए का खर्च आया था।
लता दीदी पहली भारतीय महिला सिंगर थीं, जिन्होंने विदेशों में शो करने का सिलसिला शुरू किया था। उनके इस कदम ने आगे आने वाली पीढ़ियों के दरवाजे खोल दिए थे। उन्होंने पहला शो लंदन के रॉयल अल्बर्ट हॉल में 1974 में दिया था।
लता दीदी के पिता दीनानाथ मंगेशकर ज्योतिष भी थे। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि वो कभी शादी नहीं करेंगी।
उन्होंने लता दीदी की मां से कहा था- देखना, यह एक दिन नामी सिंगर भी बनेगी।
लता दीदी को सिंगिंग की रानी कहना गलत नहीं होगा। उन्होंने ना जाने कितने सिंगर्स के लिए म्यूजिक का सफर आसान बना दिया है। उनका गोल्डन पीरियड 1950 से शुरू हुआ और 1980 तक जारी रहा। इसके बाद उन्होंने चुनिंदा प्रोजेक्ट पर ही काम किया।
1974 में द गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में लता दीदी के नाम सबसे अधिक 25000 गीत गाने का रिकॉर्ड दर्ज किया गया था। इस रिकॉर्ड पर मोहम्मद रफी का कहना था कि यह नंबर गलत है। दीदी ने 28000 से ज्यादा गाने गाए थे। वहीं, पूरे करियर में उन्होंने 50 हजार से ज्यादा गीत को अपनी आवाज दी है।
लता दीदी को काॅटन की साड़ियां बेहद पसंद थीं। वहीं, वो रंग-बिरंगी साड़ियों की जगह सफेद साड़ी पहनना पसंद करती थीं। सफेद साड़ी पहनने पर उनका कहना था- मेरे व्यक्तित्व पर सफेद रंग सही ढंग से खिलता है और लोगों को भी शायद मैं सफेद साड़ी में ही ठीक लगती हूं।
एक किस्सा यह भी है कि एक बार मुंबई में तेज बारिश हो रही थी। लता दीदी को समझ नहीं आ रहा था कि वो रिकॉर्डिंग के लिए क्या पहने। थोड़े के विचार के बाद उन्होंने क्रेप शिफॉन साड़ी पहनी, जो शायद पीले या ऑरेंज रंग की थी। फिर जब वो स्टूडियो पहुंचीं तब उनकी यह साड़ी देख रिकॉर्डिस्ट पूछ बैठा- ‘ये आप क्या पहनकर आ गईं?’
जवाब में लता दीदी ने कहा- इतनी बारिश में भीगती हुई आई हूं, क्रेप साड़ी पर पानी जल्दी सूख जाता है, लेकिन कॉटन में ऐसा नहीं होता इसलिए ये पहनना पड़ा।
इस पर रिकॉर्डिस्ट ने कहा- यह आप पर जंच नहीं रही है।
इस घटना के बाद लता दीदी को एहसास हो गया कि उन्हें लोग सिर्फ सफेद साड़ी में ही देखना पसंद करते हैं। ऐसे में उन्होंने रंग-बिरंगी साड़ियों से दूरी बना ली।
5 साल की लता दीदी को सुर में गाता देख पिता ने संगीत सिखाने का फैसला किया था। पिता उन्हें रोज 6 बजे उठाकर संगीत सिखाना शुरू कर देते थे। 9 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला स्टेज परफॉर्मेंस दिया था। परफॉर्मेंस के बाद पिता वो पिता की ही गोद में सो गई थीं।
पिता के निधन के बाद घर की सभी जिम्मेदारियां लता दीदी के कंधों पर आ गई थीं। जिस वजह से उन्होंने फिल्मों में बतौर एक्टर और सिंगर काम करना शुरू कर दिया। बाद में उन्हें क्लासिकल संगीत का रियाज करने का पर्याप्त समय नहीं मिलता था। नतीजतन क्लासिकल संगीत उनसे पूरी तरह छूट गया। करियर की ऊंचाई पर पहुंच जाने के बाद भी उन्हें इस बात का मलाल रहा कि वो एक क्लासिकल सिंगर ना बन सकीं।
लता दीदी ही थीं, जिन्होंने सिंगर्स के हक की लड़ाई लड़ी और गाने की रॉयल्टी की मांग की। रफी साहब, लता दीदी और रॉयल्टी मांग रहे सभी सिंगर्स की सोच के खिलाफ थे। गुस्से में आकर उन्होंने लता दीदी के साथ काम करने के लिए मना कर दिया था। इसके जवाब में लता दीदी ने कहा था- आप क्या मेरे साथ गाना नहीं गाएंगे, मैं खुद कभी आपके साथ नहीं गाऊंगी। दोनों ने करीब 4 साल तक साथ में गाना नहीं गाया, ना ही कोई मंच साझा किया था।
लता दीदी ने कई गाने गाए, लेकिन कभी भी उन्होंने खुद का गाना ना फिल्मी पर्दे पर देखा और ना ही सुना। उनका मानना था कि वो सुनने के बाद खुद के गाए गाने में कमी निकाल देंगी।
सिंगिंग के अलावा लता दीदी ने समाज सेवा का भी काम किया। 1989 में लता दीदी ने लता मंगेशकर फाउंडेशन की शुरुआत की थी। इस फाउंडेशन के जरिए वो पुणे में अपने पिता दीनानाथ मंगेशकर के नाम पर अस्पताल बनवाया था, जो 6 एकड़ में फैला हुआ है।
लता मंगेशकर के नाम पर भी नागपुर, महाराष्ट्र में एक अस्पताल है। इसकी स्थापना 1991 में की गई थी।
6 फरवरी 2022 को 92 साल की उम्र में लता दीदी का निधन हो गया था। वो लंबे समय से निमोनिया और कोविड से बीमार चल रही थीं। उन्हें अंतिम विदाई देने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पहुंचे थे।लता दीदी अपने भाई-बहनों से बहुत प्यार करती थीं। बहन आशा भोसले के लिए उन्होंने पढ़ाई तक त्याग दी थी। दरअसल, लता दीदी और आशा भोसले एक ही स्कूल में पढ़ने जा रही थीं। स्कूल में पढ़ने के लिए दोनों की अलग अलग फीस देनी थी। घर की हालत ठीक नहीं थी जिसकी वजह से लता दीदी ने अपना नाम कटवा लिया। वो सिर्फ 2 दिन ही स्कूल जा पाई थीं।
लता दीदी का जीवन असाधारण रहा है। लता दीदी की आत्मकथा लिखने की कोई योजना नहीं थी क्योंकि वो अपनी लाइफ को प्राइवेट रखना चाहती थीं। अपनी कहानियों के जरिए वो किसी को ठेस भी नहीं पहुंचाना चाहती थीं। उनका कहना था- कुछ बातें अनकही रहें तो ही बेहतर है।