2019 के लोकसभा चुनाव में हजारों निर्दलीय प्रत्याशियों ने भी अपनी किस्मत आजमाई. इनमें से अधिकांश की जमानत जब्त हो गई. 3,443 निर्दलीय प्रत्याशियों में से केवल चार ही सांसद बनने में कामयाब हुए. महाराष्ट्र की अमरावती सीट से नवनीत रवि राणा, कर्नाटक की मांड्या सीट से सुमलता अंबरीश, असम की कोकराझार सीट से नाबा कुमार सरानिया और दादरा नगर हवेली से डेलकर सांजीभाई. 2014 से भी बड़ी मोदी लहर में खुद के दम पर जीतने वाले सांसद कौन हैं. और इनकी जीत में किसका योगदान अहम रहा है. डालते हैं एक नजर
नवनीत रवि राणा
महाराष्ट्र की अमरावती सीट से मैदान में थीं. शिवसेना के सांसद अडसूल आनंदराव विठोबा को 36,951 वोटों से हराया. नवनीत रवि राणा को 5,10,947 वोट मिले. राणा एक पूर्व तेलुगु अभिनेत्री हैं. उन्होंने अपने पति रवि राणा द्वारा गठित राजनीतिक संगठन युवा स्वाभिमानी पक्ष (YSP) के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा. पति भी निर्दलीय विधायक हैं. दूसरी बार राणा ने अडसूल के खिलाफ चुनाव लड़ा. 2014 में एनसीपी के टिकट पर चुनाव लड़ा था लेकिन 1.37 लाख से अधिक वोटों से हार गईं थीं. अपनी जीत पर राणा ने कहा कि जब पूरा देश बीजेपी की सूनामी का सामना कर रहा था, अमरावती के लोगों ने मुझे चुना. कोई रणनीति नहीं थी. हमारा समर्पण और कड़ी मेहनत लोगों के दिलों तक पहुंची और उन्होंने मुझे चुना.
3 जनवरी 1986 को उनका जन्म हुआ. मुंबई में पली बढ़ी हैं. 12वीं के बाद मॉडलिंग शुरू कर दी थी. कन्नड़ फिल्म ‘दर्शन’ से अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की. राणा ने तेलुगु, मलयालम और पंजाबी फिल्मों में भी काम किया. उन्होंने सामूहिक विवाह समारोह में शादी की थी. 3 फरवरी 2011 को 3100 जोड़ों के साथ विधायक पति के साथ सात फेरे लिए. इस सामूहिक विवाह समारोह को विश्व की सबसे बड़ी शादी माना जाता है.
सुमलता अंबरीश
कर्नाटक की मांड्या सीट से चुनाव लड़ा. 1.25 लाख वोटों से जेडीएस उम्मीदवार और मुख्यमंत्री के बेटे निखिल को मात दी. सुमलता अंबरीश को 7,03,660 वोट मिले. सुमलता ने लगभगा 250 फिल्मों में काम किया है. पति अंबरीश भी लोकप्रिय फिल्म स्टार थे. नवंबर 2018 में उनकी मौत हो गई. उन्होंने मांड्या से 1998 में जनता दल, 1999 और 2004 में कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव जीता था. मंत्री भी रहे थे. 20 साल वह कांग्रेस में रहे. सुमलता के सामने सीएम के बेटे थे, लेकिन उन्होंने जीत कर इतिहास बदल दिया. इतिहास इसलिए क्योंकि इससे पहले कर्नाटक ने 1951 से अब तक सिर्फ दो निर्दलीय उम्मीदवारों को जिताया था.
हालांकि सुमलता का पीएम मोदी ने समर्थन किया था. बीजेपी ने इस सीट से किसी उम्मीदवार को नहीं उतारा था. अंबरीश की मौत के बाद सुमलता के प्रति सहानुभूति थी. कांग्रेस कार्यकर्ता चाहते थे कि पार्टी सुमलता को टिकट दे लेकिन ऐसा नहीं हो सका. गठबंधन के तहत यह सीट जेडीएस के खाते में चली गई. इसके बाद सुमलता ने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया. कांग्रेस के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने उनका साथ दिया. और वह सीएम के बेटे को हराने में सफल रहीं. आने वाले समय में हो सकता है कि वह बीजेपी में शामिल हो जाएं.
नबा कुमार सरानिया
असम की कोकराझार लोकसभा से मैदान में थे. यह एसटी के लिए रिजर्व सीट है. उन्होंने BPF यानी बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद की प्रमिला रानी ब्रह्मा को 37,786 वोटों से हराया. सरानिया को 4,84,560 वोट मिले. 2014 में भी उन्होंने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की थी. इससे पहले सरानिया उल्फा की 709 बटालियन के कमांडर रह चुके हैं. वह असम के बक्सा जिले के दिघलीपार गांव से हैं 1990 में उन्होंने संगठन ज्वाइन किया था. 20 अगस्त 2012 को, गुवाहाटी पुलिस ने 3 अन्य लोगों के साथ लूट, किडनैप और मर्डर के आरोप में उन्हें गिरफ्तार किया था. वह कोकराझार से पहले गैर-बोडो नेता है जिन्होंने चुनाव जीता. सरनिया को निर्वाचन क्षेत्र की लगभग 70% गैर-बोडो आबादी से भारी समर्थन मिला. जीत के बाद उन्होंने कहा कि वह अलग कामतपुर राज्य की मांग का समर्थन करेंगे.
नबा कुमार सरानिया के एसटी सर्टिफिकेट को लेकर भी विवाद है. बोडोलैंड जनजाति सुरक्षा मंच (बीजेएसएम) का कहना है कि नबा ने गलत तरीके से एसटी का सर्टिफिकेट हासिल किया है. उनकी जीत को स्वीकार नहीं किया जा सकता. बीजेएसएम का कहना है कि सरनिया समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त नहीं है. हम सरानिया के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे.
मोहन एस डेलकर
केंद्र शासित प्रदेश दादर और नगर हवेली से चुनाव लड़ा. बीजेपी सांसद नाटूभाई पटेल को 9,001 मतों से हराया. डेलकर को 90421 वोट मिले. हालांकि 2009 और 2014 में नाटूभाई पटेल ने डेलकर को दो बार हराया था. उस समय उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था. 2019 में डेलकर ने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया था. आदिवासी नेता डेलकर इससे पहले छह बार दादरा और नगर हवेली सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. यह निर्वाचन क्षेत्र अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है. 11 प्रत्याशी मैदान में थे.
56 वर्षीय डेलकर सबसे पहले 1989 में निर्दलीय चुनाव जीते थे. 1991 और 1996 में कांग्रेस के टिकट पर जीते. दो साल बाद उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी. बीजेपी के टिकट पर जीत गए. बाद में भाजपा को छोड़ कर वह 1999 और 2004 में फिर से निर्दलीय चुनाव जीते. इसके बाद वह एक बार फिर कांग्रेस में शामिल हुए थे पर 2009 और 2014 में हार गए. डेलकर के पिता सांजीभाई डेलकर भी 60 के दशक में कांग्रेस के टिकट पर यहां सांसद रहे थे.