तरबूज की खेती शुरू करने के लिए यह सही समय है। किसान तरावट देने वाले तरबूज की खेती से अच्छी कमाई कर सकते हैं। गर्मियों में इसकी मांग भी ज्यादा रहती है जिससे किसान बढिय़ा मुनाफा कमा सकता है।
भूमि एवं जलवायु
तरबूज की खेती कई तरह की मिट्ïटी में की जाती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्ïटी इसकी खेती के लिए उपयुक्त रहती है। खेत तैयार करने के लिए पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और बाद की जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करते हैं। खेत को समतल कर ले तो पूरे खेत में पानी की खपत एक समान रहेगी। अगर खेत नदियों के किनारे है तो नालियों और थालों को पानी की उपलब्धता के हिसाब से बनवाए। इन नालियों और थालों में सड़ी हुई गोबर की खाद और मिट्टी के मिश्रण से भर देते हैं। गर्म एवं औसत आद्र्रता वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए सबसे अच्छे रहते हैं। बीज के जमाव व पौधे के बढ़वार के लिए 25-32 सेन्टीग्रेड तापक्रम उपयुक्त होता है।
शुगर बेबी
इसकी बेलें औसत लम्बाई की होती हैं और फलों का औसत वजन दो से पांच किलोग्राम तक होता है। फल का ऊपरी छिलका गहरे हरे रंग और उन पर धूमिल सी धारियां होती हैं। फल का आकार गोल तथा गूदे का रंग गहरा लाल होता है। यह शीघ्र पकने वाली प्रजाति है। औसत पैदावार 200-300 कुन्तल प्रति हेक्टेयर है। यह किस्म लगभग 85 दिन पककर तैयार हो जाती है।
दुर्गापुुर केसर
यह देर से पकने वाली किस्म है, तना तीन मीटर लम्बा, फलों का औसत वजन छह से आठ किलोग्राम, गूदे का रंग पीला तथा छिलका हरे रंग व धारीदार होता है। इसकी औसत उपज 350-450 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है।
अर्का मानिक
इस किस्म के फल गोल, अण्डाकार व छिलका हरा जिस पर गहरी हरी धारियां होती हैं तथा गुलाबी रंग का होता है। औसत फल वजन छह किलोग्राम होता है। इसकी भण्डारण एवं परिवहन क्षमता अच्छी है। औसत उपज 500 कुन्तल प्रति हेक्टेयर 110-115 दिन में प्राप्त की जा सकती है।
दुर्गापुुर मीठा
इस किस्म का फल गोल हल्का हरा होता है। फल का औसत वजन आठ से नौ किलोग्राम तथा इसकी औसत उपज 400-500 कुन्तल प्रति हेक्टेयर होती है। यह लगभग 125 दिन में तैयार हो जाती है।
खाद एवं उर्वरक
कम्पोस्ट या सड़ी गोबर की खाद दो किलोग्राम प्रत्येक नाली या थाले में डालते हैं। इसके अतिरिक्त 50 किलोग्राम यूरिया, 47 किलोग्राम डीएपी तथा 67 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश प्रति एकड़ की दर से देना। नत्रजन की आधी मात्रा तथा फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा खेत में नालियां या थाले बनाते समय देते हैं। नत्रजन की आधी मात्रा को दो बराबर भागों में बांट कर खड़ी फसल में जड़ों से 30-40 सेमी दूर गुड़ाई के समय तथा फिर 45 दिन बाद देना चाहिए।
बुआई का समय
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में तरबूज की बुआई फरवरी से अप्रैल के बीच एवं नदियों के किनारे इसकी बुआई नवम्बर से जनवरी के बीच में की जाती है।
बीज की मात्रा- एक हेक्टेयर क्षेत्रफल के लिए 25.4 किलोग्राम पर्याप्त होता है।
बुआई की विधि
तरबूज की बुआई के लिए 2.5 से 3.0 मीटर की दूरी पर 40 से 50 सेमी चौड़ी नाली बना लेते है। इन नालियों के दोनों किनारों पर 60 सेमी की दूरी पर बीज बोते हैं। यह दूरी मृदा की उर्वरता एवं प्रजाति के अनुसार घट बढ़ सकती है। नदियों के किनारे 60 गुणा 60 गुणा 60 सेमी क्षेत्रफल वाले गड्ढे बनाकर उसमें 1:1:1 के अनुपात में मिट्टी, गोबर की खाद तथा बालू का मिश्रण भर कर थालें को भर देते है उसके बाद प्रत्येक थाले में तीन से चार बीज लगते है।
सिंचाई
यदि तरबूज की खेती नदियों के कछारों में की जाती है तो सिंचाई की कम आवश्यकता नहीं पड़ती है। जब मैदानी भागों में इसकी खेती की जाती है, तो सिंचाई 7 से 10 दिन के अन्तराल पर करते हैं। जब तरबूज आकार में पूरी तरह से बढ़ जाते हैं तो सिंचाई बन्द कर देते हैं जिससे फल में मिठास हो जाती है और फल नहीं फटते हैं।
खरपतवार नियंत्रण एवं निराई-गुड़ाई
तरबूज के जमाव से लेकर प्रथम 30-35 दिनों तक निराई गुड़ाई करके खरपतवार को निकाल देते हैं। इससे फसल की वृद्वि अच्छी होती है तथा पौधे की बढ़वार रुक जाती है। रासायनिक खरपतवारनाशी के रुप में बूटाक्लोर रसायन 1.0 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज बुआई के तुरन्त बाद छिड़काव करते हैं।
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