उपेंद्र कुशवाहा की असली किरकिरी अब हुई है

उपेंद्र कुशवाहा. राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के मुखिया हैं. 2019 में बिहार की दो सीटों से लोकसभा का चुनाव लड़े थे. सीटें थी काराकाट और उजियारपुर. दोनों ही सीटों पर हार गए. काराकाट सीट पर उन्हें जदयू के प्रत्याशी महाबली सिंह से मात मिली तो उजियारपुर में उन्हें बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष नित्यानंद राय के हाथों हार का सामना करना पड़ा. इसके अलावा उनके खाते में आईं और तीन सीटों पर भी उनके उम्मीदवार हार गए. इस तरह से 2014 में तीन सांसदों के साथ लोकसभा में पहुंचे उपेंद्र कुशवाहा और उनकी पार्टी के लोग 2019 की लोकसभा में पहुंच भी नहीं पाए. अभी उपेंद्र कुशवाहा इस हार से उबर भी नहीं पाए थे कि उन्हें एक और झटका लग गया. और इस बार झटका ऐसा लगा कि उनकी छीछालेदर में कोई कमी नहीं रही.

लोकसभा तो गई ही, विधानसभा भी चली गई

उपेंद्र कुशवाहा न तो खुद लोकसभा पहुंचे और न ही अपनी पार्टी के किसी नेता को लोकसभा तक पहुंचा पाए. उनकी पार्टी के दो विधायक विधानसभा में थे. इसके अलावा एक विधान परिषद सदस्य बिहार विधानपरिषद में था. ये थे इसलिए क्योंकि अब नहीं हैं. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के दोनों विधायकों और एक विधान परिषद सदस्य ने नीतीश कुमार की पार्टी जदयू का दामन थाम लिया है. दोनों विधायकों और एक विधानपरिषद सदस्य ने पूरी पार्टी का ही जदयू में विलय कर लिया है. अब उपेंद्र कुशवाहा की इससे ज्यादा छीछालेदर तो शायद ही हो सकती है.

कभी नीतीश के ऐसे साथी थे कि नेता प्रतिपक्ष बन गए थे

उपेंद्र कुशवाहा एक वक्त में जदयू का अहम हिस्सा हुआ करते थे. 2003 में जब नीतीश कुमार केंद्र में रेल मंत्री बने तो उन्होंने उपेंद्र कुशवाहा को ही विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बनाया था. 2005 में जब बिहार में सत्ता बदली और नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने तो उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा के रास्ते केंद्र में भेज दिया. बीतते समय के साथ कुशवाहा बिरादरी के बीच यह धारणा घर करने लगी कि पढ़ाई-लिखाई और संपन्नता में पिछड़े वर्गों में सबसे आगे होने के बावजूद सत्ता की कमान कुशवाहा समाज के पास अब तक नहीं आ पाई है. इस कसमसाहट को जदयू के राज्यसभा सांसद उपेन्द्र कुशवाहा बखूबी समझा और मुख्यमंत्री पद को लक्ष्य बनाकर 2011 में राज्यसभा और पार्टी से इस्तीफा दे दिया. 3 मार्च, 2013 को उपेंद्र कुशवाहा ने पटना के गांधी मैदान में एक रैली की और नई पार्टी का ऐलान कर दिया. नाम रखा राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी. वो दौर था, जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के विरोध में नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो चुके थे. बिहार में एनडीए को नए साथी की तलाश थी और ये तलाश उपेंद्र कुशवाहा के रूप में पूरी हुई. 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी गठबंधन में उपेंद्र कुशवाहा के खाते में तीन सीटें आईं सीतामढ़ी, काराकाट और जहानाबाद. उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी ने तीनों सीटों पर जीत दर्ज की और केंद्र में मंत्री बन गए.

विधानसभा चुनाव से ही बिगड़ने लगा था गणित

लोकसभा चुनाव में मोदी लहर में उपेंद्र कुशवाहा के तीन सांसद लोकसभा पहुंच गए. खुद उपेंद्र कुशवाहा मंत्री बन गए. लेकिन 2015 में जब बिहार विधानसभा के चुनाव हुए, तो कुशवाहा को गठबंधन के तहत 23 सीटें मिलीं. लेकिन जीत सिर्फ दो पर ही दर्ज कर पाए. इसके बाद उपेंद्र कुशवाहा इस हार से कभी उबर नहीं पाए. वक्त बे वक्त उपेंद्र कुशवाहा के दोनों विधायक पार्टी छोड़कर जाने की धमकी देने लगे. मई 2017 में वो दिन भी आ गया, जब नीतीश कुमार लालू यादव और कांग्रेस के महागठबंधन को छोड़कर फिर से बीजेपी के पास आ गए. ऐसे में नीतीश के किसी जमाने में दोस्त और अब सियासी दुश्मन बने उपेंद्र कुशवाहा का एनडीए में सर्वाइव करना मुश्किल होने लगा. नवंबर 2018 में उपेंद्र कुशवाहा और नीतीश कुमार की अदावत सामने आ गई. उपेंद्र कुशवाहा ने कहा-

‘नीतीश कुमारजी मुझे नीच कहते हैं. मैं नीतीश कुमार से पूछना चाहता हूं कि उपेंद्र कुशवाहा इसलिए नीच है क्योंकि वह दलित, पिछड़ा और गरीब नौजवानों को उच्चतम न्यायालय में जज बनाना चाहता है.’

इस बयान के बाद विवाद इतना बढ़ा कि खबरें तैरने लगीं कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के दोनों विधायक सुधांशु शेखर और ललन पासवान नीतीश कुमार के साथ जाने को तैयार हैं. इन खबरों के सामने आने के बाद से ही उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार पर और भी हमलावर हो गए. कहा-

‘नीतीश कुमार, आपको तोड़-जोड़ में महारत हासिल है. बीएसपी, एलजेपी, आरजेडी, कांग्रेस और अब आरएलएसपी. लेकिन बिहार और देश की जनता सब देख रही है. हम गरीबों, शोषितों, वंचितों, दलितों, पिछड़ो और गरीब सवर्णों के हक के लिए लड़ते रहेंगे.’

एनडीए छोड़कर महागठबंधन में शामिल हो गए उपेंद्र कुशवाहा…

इस बयानबाजी के बाद दिसंबर, 2018 में उपेंद्र कुशवाहा एनडीए से अलग हो गए. मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. आरजेडी, कांग्रेस, हम और वीआईपी के महागठबंधन में शामिल हो गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में जब टिकटों का बंटवारा हुआ तो आरजेडी और कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा पांच सीटें इन्हीं के खाते में आईं. और जब नतीजा आया तो ये खुद तो दो जगहों से हार ही चुके थे, अपने तीन और नेताओं को भी नहीं जिता सके. और अपने ही नेताओं को क्यों, औरों को भी नहीं जिता सके. बिहार में महागठबंधन को 40 में से सिर्फ एक सीट मिली और वो भी किशनगंज में, जहां कांग्रेस उम्मीदवार की जीत हुई. इनकी रही-सही उम्मीदें अपने दो विधायकों को लेकर थीं, लेकिन ये भी उपेंद्र का साथ छोड़कर नीतीश के साथ निकल लिए.

 

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