अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार को अभी तक किसी भी देश ने मान्यता नहीं दी है. इसका असर यह हो रहा है कि अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर यह देश आर्थिक विनाश के कगार पर पहुंच गया है.तालिबान ने मुस्लिम देशों से अपील की है कि वो उसकी सरकार को मान्यता देने की प्रक्रिया की शुरुआत करें. तालिबान के प्रधानमंत्री मोहम्मद हसन अखुंद ने काबुल में एक प्रेस वार्ता के दौरान मुस्लिम देशों से यह अपील की. प्रेस वार्ता देश की बढ़ती आर्थिक समस्याओं पर तालिबान के विचार रखने के लिए बुलाई गई थी. अखुंद ने कहा कि अगर मुस्लिम देश मान्यता की शुरुआत कर देते हैं तो उन्हें उम्मीद है कि अफगानिस्तान का “तेजी से विकास होगा” तालिबान नेता ने यह भी कहा, “हम मान्यता हमारे अधिकारियों के लिए नहीं चाहते हैं. हम यह हमारी जनता के लिए चाहते हैं” नहीं मिल रही मदद अखुंद ने इस बात पर जोर दिया कि तालिबान ने शांति और स्थिरता बहाल कर मान्यता के लिए आवश्यक जरूरतों को पूरा कर दिया है. अभी तक दुनिया के किसी भी देश ने तालिबान को आधिकारिक मान्यता नहीं दी है और इसका असर यह हो रहा है कि अंतरराष्ट्रीय मदद पर निर्भर यह देश आर्थिक विनाश के कगार पर पहुंच गया है.
दुनिया के अधिकांश देश यह देखना चाह रहे हैं कि सत्ता में अपने पहले कार्यकाल के दौरान मानवाधिकार उल्लंघनों के लिए बदनाम तालिबान इस बार अधिकारों को लेकर कैसे पेश आता है. तालिबान ने इस्लामिक शरीया कानून की उसकी अपनी समझ के हिसाब से लागू किए जाने में थोड़ी नरमी के संकेत तो दिए हैं लेकिन महिलाओं की हालत को लेकर अभी भी कई चिंताएं बानी हुई हैं. सरकारी नौकरियों से महिलाएं अभी भी मोटे तौर पर बाहर ही हैं और लड़कियों के लिए माध्यमिक स्तर के स्कूल लगभग पूरे देश में बंद ही हैं. मानवीय त्रासदी उधर देश एक मानवीय त्रासदी की चपेट में है जो तालिबान के आने के बाद और गहरा गया है. तालिबान के सत्ता हथिया लेने के बाद पश्चिमी देशों ने अफगानिस्तान को दी जाने वाली अंतरराष्ट्रीय मदद रोक दी. साथ ही विदेशों में अफगान सरकार के अरबों डॉलर मूल्य की संपत्ति को भी फ्रीज कर दिया. अमेरिका की मदद से चल रही पिछली सरकार के तहत अफगानिस्तान लगभग पूरी तरह से विदेशी मदद पर निर्भर था.
अब हालत ये है कि देश में रोजगार बिलकुल खत्म हो गया है और अधिकांश सरकारी अधिकारियों को महीनों से तनख्वाह नहीं मिली है. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि 2021 की तीसरी तिमाही में करीब 5,00,000 अफगान लोगों की नौकरी चली गई. अंदेशा है कि 2022 के मध्य तक यह संख्या बढ़ कर करीब 9,00,000 हो जाएगी. इसमें महिलाओं पर अनुपातहीन रूप से असर पड़ा है. देश में गरीबी और गहरा रही है और कई इलाकों में सूख ने कृषि को उजाड़ कर रख दिया है. संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी है कि 3.8 करोड़ लोगों में कम से कम आधी आबादी को भोजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है. मुस्लिम देशों का रुख पिछले महीने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने सर्वसम्मति से अमेरिका के एक प्रस्ताव को पारित किया जिसके तहत अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों का उल्लंघन किए बिना अफगान लोगों तक कुछ मदद पहुंचाई जाएगी.
लेकिन अधिकार और मदद संगठन पश्चिमी देशों से और पैसे देने की अपील कर रहे हैं. मदद देने वालों के सामने चुनौती बिना तालिबान का समर्थन किए मदद पहुंचाने की है. लेकिन तालिबान सरकार के उप-प्रधानमंत्री अब्दुल सलाम हनाफी ने प्रेस वार्ता के दौरान कहा कि उनकी सरकार “मदद करने वालों की शर्तों के आगे झुक कर देश की अर्थव्यवस्था की आजादी का त्याग नहीं करेगी” पिछले महीने ही 57 सदस्य देशों के ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन (ओआईसी) ने तालिबान सरकार को आधिकारिक रूप से मान्यता देने से इनकार कर दिया. लेकिन संगठन ने ये वादा जरूर किया कि वो विदेश में फ्रीज की हुई अरबों डॉलर मूल्य की अफगान संपत्ति पर से रोक हटाने के लिए संयुक्त राष्ट्र के साथ काम करेगा. इसके लिए ओआईसी ने तालिबान के नेताओं को भी महिलाओं के अधिकारों को लेकर अंतरराष्ट्रीय बाध्यताओं को मानने के लिए कहा. 1996 में जब पहली बार अफगानिस्तान में तालिबान सत्ता में आया था तब पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने उसकी सरकार को मान्यता दी थी