8 महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए अभी से पाला बदलने का सियासी खेल शुरू हो गया है। यूपी में जो कल अखिलेश यादव के साथ खड़े होकर योगी आदित्यनाथ को कोस रहे थे, वह अब योगी के साथ खड़े होकर अखिलेश पर निशाना साधने की तैयारी में हैं। ये क्षेत्रीय पार्टियां जब भी ‘एकला चलो’ की नीति से आगे बढ़ीं, मुंह की खानी पड़ी। लेकिन जैसे ही किसी के साथ हुईं, दोगुनी ताकत के साथ आगे बढ़ी। हालांकि कुछ ऐसे भी रहे, जिन्हें काबिल दोस्त नहीं मिले इसलिए कभी जीत भी नहीं मिली।
पिछले दिनों तमाम दिग्गज नेताओं के साथ सुभासपा बीजेपी के साथ हो गई। अगले 10 दिन में महान दल और प्रगतिशील मानव समाज पार्टी भी एनडीए में शामिल हो जाएंगी। संजय सिंह चौहान की जनवादी पार्टी सोशलिस्ट पर संशय बरकरार है। आज हम बीजेपी के साथ हो चुकी या फिर होने की तैयारी कर रही पार्टियों के प्रभाव को जानेंगे। हम यह भी समझेंगे कि अकेले लड़ने पर इन पार्टियों की स्थिति क्या थी? किसी के साथ लड़ा, तो क्या असर पड़ा? अब किन मांगों को लेकर वे बीजेपी के साथ जा रही हैं? आइए सब कुछ एक तरफ से जानते हैं। सबसे पहले बात ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा की करते हैं। पहले यह फोटो देखिए।
ओम प्रकाश राजभर के परिवार में पहले कोई पहले से राजनीति में नहीं था। बचपन में वह कांशीराम से बहुत प्रभावित थे। जहां भी कांशीराम की बैठक होती, वहां स्कूल से निकलते ही पहुंच जाते थे। बाद में बसपा में शामिल हो गए। 1995 में जिला पंचायत का चुनाव था। ओम प्रकाश के इलाके में महिला सीट आ गई। पार्टी के कहने पर उन्होंने अपनी पत्नी राजमति राजभर को चुनाव लड़वाया। वह चुनाव जीत गईं। उस वक्त ओम प्रकाश जीप चलाते थे। जो इनकी जीप से यात्रा करता, उसने किराया देना बंद कर दिया। लोग कहते थे, नेताजी वोट भी लेंगे और किराया भी। ऐसा नहीं चलेगा। इसके बाद राजभर ने जीप बेच दी और फुलटाइम राजनीति में आ गए।
1996 में बसपा ने उन्हें वाराणसी की कोलअसला विधानसभा से चुनाव लड़वाया, लेकिन राजभर चुनाव हार गए। 2012 में इस सीट का नाम बदलकर पिंडरा कर दिया गया। 2001 में मायावती ने भदोही जिले का नाम बदलकर संतकबीर नगर कर दिया। इससे नाराज होकर राजभर ने पार्टी छोड़ी और सोनेलाल पटेल के साथ अपना दल में शामिल हो गए। राजभर को उम्मीद थी कि उन्हें 2002 में फिर से कोलअसला सीट से चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा। लेकिन वहां सोनेलाल खुद ही चुनाव में उतर गए। इससे ओम प्रकाश ने पार्टी छोड़ दी।
राजभर बिरादरी में लोगों से बातचीत की। 27 अक्टूबर, 2022 को खुद की पार्टी बना दी। पार्टी का नाम रखा- सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी। शॉर्ट कट नाम पड़ा- सुभासपा।2004 के लोकसभा चुनाव में राजभर ने कई प्रत्याशियों को यूपी और बिहार की सीटों पर उतारा, लेकिन कहीं जीत नहीं मिली। 2007 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को चुनाव आयोग ने रजिस्टर्ड कर लिया। राजभर ने 97 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। खुद जहूराबाद सीट से चुनाव लड़ा, लेकिन कहीं भी जीत नहीं पाए। 2009 में राजभर ने सपा से गठबंधन के लिए मुलायम सिंह से मिले। मुलायम सिंह ने उन्हें अपनी पार्टी सपा में विलय की बात कही। राजभर नहीं माने। 2009 का लोकसभा चुनाव अपना दल के साथ लड़ा, लेकिन कहीं जीत नहीं मिली।
2012 के विधानसभा चुनाव में राजभर ने मुख्तार अंसारी की कौमी एकता दल के साथ गठबंधन किया। कौमी एकता दल दो सीटों पर जीत गई, लेकिन सुभासपा के सभी 52 प्रत्याशी चुनाव हार गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में सुभासपा ने 13 सीटों पर प्रत्याशी उतारे। कुल 1 लाख 18 हजार 947 वोट मिले। ओम प्रकाश को छोड़कर सभी पार्टी प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। यहां से राजभर ने बीजेपी से नजदीकी बढ़ाई और 2017 के चुनाव में बीजेपी के साथ चले गए। पार्टी बने 15 साल बीत गए थे, लेकिन कोई जीत नहीं मिली थी।
कुल मिलाकर राजभर अब तक 6 पार्टियों के साथ गठबंधन में रहे। माना जा रहा कि अमित शाह के साथ बैठक में इस बात पर सहमति बनी है कि 2024 में 3 लोकसभा सीटें सुभासपा को दी जाएंगी। साथ ही मौजूदा योगी सरकार में एक कैबिनेट मंत्री का पद मिलेगा।
क्लिनिक चलाते-चलाते निषादों के सबसे बड़े नेता बन गए
संजय निषाद गोरखपुर के हैं। इलेक्ट्रो होम्योपैथी से उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई की। 2002 में पूर्वांचल मेडिकल इलेक्ट्रो होम्योपैथी एसोसिएशन की स्थापना हुई। कुछ वक्त बाद वह इस एसोसिएशन के अध्यक्ष बन गए। 2013 तक वह गीता वाटिका रोड गोरखपुर में एक क्लिनिक चलाते थे। उनके नेता बनने की कहानी भी दिलचस्प है
7 जून, 2015 को वह सहजनवा के कसरावल गांव में निषादों को अनुसूचित जाति में शामिल करवाने को लेकर रेलवे ट्रैक पर आंदोलन कर रहे थे। पुलिस ने हटाने की कोशिश की, तो झड़प हो गई। हिंसा बढ़ी, तो पुलिस ने फायरिंग कर दी। इस फायरिंग में अखिलेश निषाद नाम का युवक मारा गया। तत्कालीन सपा सरकार ने संजय निषाद सहित 36 लोगों पर मुकदमा किया। संजय फरार हो गए, लेकिन कुछ वक्त बाद समर्पण कर दिया।
इसके बाद संजय निषाद अपने वर्ग में सबसे चर्चित नेता बन गए। 2016 में उन्होंने निर्बल शोषित इंडियन हमारा आम दल बनाया। इसे शॉर्ट फॉर्म में निषाद पार्टी नाम दिया गया। आइए अब पार्टी के चुनाव प्रदर्शनों की बात करते हैं।
संजय निषाद इस वक्त योगी कैबिनेट में मंत्री हैं। सियासी जानकार बताते हैं कि मछुआ समाज संजय से नाराज है, इसलिए उन्होंने पिछले दिनों खून से चार पन्ने की चिट्ठी लिख दी। उसमें उन्होंने लिखा- जीवन से लेकर मौत तक मेरे शरीर में खून की एक-एक बूंद मछुआ समाज के लिए समर्पित है।
केशव देव मौर्य शुरुआत में वकालत करते थे। उनका नाम पहले केशव प्रसाद मौर्य था। बीजेपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य के चलते उन्होंने अपना नाम केशव देव मौर्य कर लिया। 1993 में उन्होंने सपा के जरिए राजनीति में प्रवेश किया। कुछ समय बाद कांशीराम से प्रभावित होकर बसपा ज्वाइन कर ली। 2002 में उन्हें पार्टी ने जौनपुर सदर सीट से प्रत्याशी घोषित कर दिया। लेकिन नामांकन के ठीक पहले पार्टी ने उनका टिकट काट दिया।
बसपा से नाराज होकर केशव देव मौर्य सोनलाल पटेल के साथ उनकी पार्टी अपना दल में शामिल हो गए। पार्टी ने 2004 के लोकसभा चुनाव में उन्हें जौनपुर सीट से प्रत्याशी बनाया। केशव 28,971 वोटों के साथ पांचवें नंबर पर रहे थे। कुछ वक्त के बाद उन्होंने अपना दल भी छोड़ दी। 2008 में उन्होंने महान दल से अपनी खुद की पार्टी बना ली। हेड ऑफिस हरियाणा की फरीदाबाद में बनाया। यूपी के साथ मध्य प्रदेश में भी चुनाव लड़ा।
केशव का दावा है कि उनके साथ प्रदेश के मौर्य, शाक्य, कुशवाहा, सैनी हैं। वह हर बैठकों और रैलियों में कहते हैं, “समाज के लिए लड़ो, लड़ नहीं सकते तो लिखो, लिख नहीं सकते तो बोलो, बोल नहीं सकते तो साथ दो, साथ नहीं दे सकते तो जो लिख-बोल और लड़ रहा है उसका मनोबल न गिराओ, वह आपके हिस्से की लड़ाई लड़ रहा है। यही सब कुछ समाज को उनका हक दिलाएगा।”
केशव देव मौर्य आज तक न अकेले और न ही गठबंधन में कोई चुनाव जीत पाए हैं। पिछले साल जून में सपा से गठबंधन टूटने पर सपा ने उन्हें जो फॉर्च्यूनर दी थी, वह भी वापस ले ली। पिछले महीने उन्होंने बसपा को बिना शर्त समर्थन देने का ऐलान किया था। अब माना जा रहा कि जल्द ही वह एनडीए गठबंधन में शामिल होंगे।
भदोही में बिंद वोटरों के बीच अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले प्रगतिशील मानव समाज पार्टी के अध्यक्ष प्रेमचंद बिंद भी जल्द ही एनडीए में शामिल हो सकते हैं। करीब 15 साल पहले उन्होंने पार्टी बनाई थी। उनकी पार्टी से गैंगस्टर बृजेश सिंह, बाहुबली नेता विजय मिश्रा, पूर्व कैबिनेट मंत्री राकेश धर त्रिपाठी चुनाव लड़ चुके हैं। 2022 के चुनाव में भी गठबंधन पर बात चल रही थी लेकिन बात नहीं बन पाई थी। प्रेमचंद अब कहते हैं कि अमित शाह से मुलाकात हुई है। गठबंधन पर मुहर लगती है तो 5 सीटों की दावेदारी करेंगे।
डॉ. संजय सिंह चौहान ने साल 2004 में जनवादी पार्टी सोशलिस्ट की स्थापना की। कोशिश थी कि नोनिया वर्ग को एक नेतृत्व दिया जाए और राजनीति में उनकी हिस्सेदारी सुनिश्चित की जाए। संजय को इसके लिए सपा सबसे मुफीद लगी। वह सपा के साथ हो गए। बीच में उन्होंने बसपा और भाजपा के साथ भी गठबंधन में रहे थे। वह दावा करते हैं कि 1.26 फीसदी आबादी वाली इस जाति का आजमगढ़, मऊ, बलिया, गाजीपुर, चंदौली में अच्छा प्रभाव है। संजय ने हर चुनाव में सपा प्रत्याशियों का समर्थन किया।
आजमगढ़ और रामपुर में हुए उपचुनाव में सपा की हार के बाद संजय चौहान ने अखिलेश को लेकर कहा था कि उन्हें एसी कमरों से निकलना होगा। ऐसा ही चलता रहा तो गठबंधन में बने रहने पर विचार करेंगे। अब कयास लगाया जा रहा कि वह बीजेपी में शामिल हो सकते हैं। हालांकि सूत्र बताते हैं कि बीजेपी अभी उन्हें अपने साथ लाने की नहीं सोच रही। नोनिया वर्ग में उनके पास पहले से ही दारा सिंह चौहान और फागू सिंह चौहान हैं। दारा योगी सरकार में मंत्री हैं, फागू सिंह पूर्व मंत्री थे, अब बिहार के राज्यपाल हैं।
बीजेपी के ही एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, पार्टी हर वर्ग को अपने साथ लाने की कोशिश कर रही है। इसलिए वह हर जाति के बड़े नेताओं को अपने साथ करने की कोशिश कर रही है। राजभर, बिंद, पटेल, सैनी, चौहान वर्ग के बड़े नेताओं को अपने साथ जोड़कर अपने वोट प्रतिशत को 50% करना लक्ष्य है। इन वर्गों को अपने साथ जोड़कर पार्टी यह संदेश भी देना चाहती है कि सभी हमारे साथ हैं। विपक्ष अब कहीं नहीं है।
फिलहाल बीजेपी 2024 के चुनाव को लेकर बेहद आक्रामक तरीके से आगे बढ़ रही है। एक तरफ विपक्ष के प्रभावी नेताओं को अपने साथ जोड़ने का काम हो रहा है दूसरी तरफ पार्टी के विधायक-मंत्रियों के अभी से ही जनता के बीच बैठक करने को कहा गया है। टिफिन मीटिंग, मिस्ड कॉल समर्थन, सोशल मीडिया पोस्ट, कुल मिलाकर अभी वह 2024 में किसी तरह से पीछे नहीं रहना चाहते।