आज की अनसुनी दास्तान है एक ऐसी जांबाज और निडर एक्ट्रेस की, जिसे लोग हिंदी सिनेमा के इतिहास की पहली विलेन कहते हैं। नाम है कुलदीप कौर। रॉयल परिवार से ताल्लुक रखने वालीं कुलदीप के साहस का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत-पाक के बंटवारे के समय जब दंगों में लोग अपनी जान बचाकर भाग रहे थे, तब ये एक कार लेने बॉम्बे से पहले लाहौर गईं और फिर खुद कार चलाकर लाहौर से बॉम्बे पहुंची थीं। कुलदीप कौर की जिंदगी तब बदल गई, जब उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का आरोप लगा। जिंदगी दोबारा पटरी पर आती कि उससे पहले ही 1960 में अचानक महज 33 साल की उम्र में कुलदीप की मौत हो गई, वो भी एक कांटे के चुभने और लापरवाही में फैले जहर से।
1927 की बात है.. ब्रिटिश इंडिया के लाहौर और अमृतसर के बीच स्थित अटारी में कुलदीप कौर का जन्म हुआ। जाट परिवार के जमींदारों के घर जन्मीं कुलदीप कौर के पास तमाम तरह की सुख-सुविधाएं थीं। पिता ने नाजों से पाला, लेकिन ये लाड़-प्यार ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रहा। 2 साल की थीं, जब पिता गुजर गए, ऐसे में ताऊजी ने उनकी और मां की जिम्मेदारी उठाई।
करीब 14 बरस की रही होंगी, जब ताऊजी ने उनकी शादी सिख साम्राज्य के महाराजा रंजीत सिंह की आर्मी के कमांडर जनरल शाम सिंह अटारीवाला के पोते मोहिंदर सिंह सिद्धू से करवा दी। वो अपने परिवार के साथ अमृतसर-लाहौर की सीमा के बीच स्थित ट्रंक रोड के पैलेस में रहा करती थीं। शादी के दो साल बाद 1943 में कुलदीप ने एक बेटे को जन्म दिया।
कुलदीप कौर के पति मोहिंदर बेहद अय्याश किस्म के शख्स थे। जो भी यूरोपियन और अमेरिकन लग्जरी कार देखते, उसे खरीद लेते थे। उनकी शाही हवेली में उस जमाने की सबसे महंगी और लग्जरी गाड़ियों शेव्रोले, कैडिलेक, बुइक, स्टूडबेकर, रेनॉ, बेबी मॉरिस और ऑस्टिन जैसी हर टॉप मॉडल का काफिला था। कपूरथला के महाराजा जगतजीत सिंह भी उनके करीबी मित्र थे।
मोहिंदर सिंह का ज्यादातर समय लाहौर और अमृतसर के बड़े क्लब्स में गुजरता था, जहां वो दूसरे रईसों, शाही लोगों के साथ खाना खाते, शराब पीते थे और जुआ खेलते थे। एलीट क्लास लोगों के साथ उठते-बैठते हुए उनकी मुलाकात अकसर कई फिल्मी हस्तियों से होती थी।
वो कई दफा अपनी पत्नी कुलदीप कौर को भी इन क्लब पार्टीज में शामिल करते थे। वैसे तो कुलदीप बेहद जमीनी और शालीन महिला थीं, लेकिन पति उन पर दबाव बनाते थे कि वो ग्लैमरस अंदाज में हाई-क्लास सोसाइटी के लोगों से जान-पहचान बढ़ाएं। समय के साथ कुलदीप ने खुद को उन लोगों के बीच ढाल लिया।
ज्यादातर क्लब में हाई-सोसाइटी लोगों के साथ फिल्मी हस्तियां भी शामिल होती थीं। उन लोगों के डिजाइनर कपड़े और तौर-तरीके से कुलदीप इस कदर प्रभावित हुईं कि वो खुद भी हीरोइन बनने का सपना देखने लगीं। एक दिन लाहौर के एक क्लब में उनकी नजर प्राण पर पड़ी, जो 1940 की पंजाबी फिल्म यमला जट के हीरो बनकर पूरे शहर में फेमस हो चुके थे।
बेहद हैंडसम रहे प्राण अक्सर अपने प्रशंसकों से घिरे रहते थे। एक दिन मौका पाते ही कुलदीप उनके पास गईं और उनकी फिल्मों की तारीफ करने लगीं। कुलदीप इतनी खूबसूरत और बेबाक हुआ करती थीं कि चंद मिनटों की बातें कब घंटों की बातचीत और फिर आए दिन की मुलाकातों में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला। प्राण पहले से शादीशुदा थे, इसके बावजूद दोनों रिलेशनशिप में आ गए।
उस जमाने के कर्नल चांद ने अपने प्रॉविडेंट फंड के रुपयों से फिल्म गर्दिश बनानी शुरू की। हीरोइन की जरूरत पड़ी तो उन्होंने क्लब में आने वालीं कुलदीप कौर को फिल्म का ऑफर दिया। कुलदीप खुद भी हीरोइन बनने का सपना देखती थीं, तो वो झट से राजी हो गईं। इस फिल्म के लिए उन्हें 75 रुपए मिले, जो उस जमाने के लिए एक बड़ा अमाउंट था। फिल्म शुरू हुई ही थी कि कर्नल चांद के पैसे खत्म हो गए और फिल्म बंद पड़ गई।
अब फिल्म पूरी करने की जिम्मेदारी पंजाब म्यूचुअल फंड कंपनी के मालिक निरंजन दास कपूर ने ले ली। उन्होंने बॉम्बे से अपने कजन मुल्क राज कपूर को लाहौर बुला लिया, जो एक सॉन्ग और स्क्रिप्ट राइटर थे। फिल्म दोबारा शुरू तो हुई, लेकिन मुल्क राज कपूर की अचानक हुई मौत से फिर बंद पड़ गई। निरंजन दास कपूर भारी कर्जे में दब गए और फिल्म रुक गई।
1947 में जब भारत अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पा सका, लेकिन इसी बीच भारत-पाक के बंटवारे ने फिर तबाही मचा दी। देश के दो हिस्से हुए और बॉर्डर पर सिख-मुस्लिम दंगे भड़क उठे। दंगों में आए दिन मुस्लिम समुदाय के लोग सिखों का और सिख समुदाय के लोग मुस्लिम समुदाय का कत्लेआम कर रहे थे। कई लोग इन दंगों में मारे गए और जो बचे वो या तो शहर छोड़ आए या कहीं छिप गए। दंगों के बीच कुलदीप कौर ने पति और परिवार का साथ छोड़ दिया और प्राण के साथ अपनी जान बचाकर सब कुछ पीछे छोड़ बॉम्बे आ गईं।
बॉम्बे पहुंचने से जान तो बच गई, लेकिन प्राण को अपना मकान और कार लाहौर में छूट जाने का अफसोस था। प्राण के लिए अपना परिवार पीछे छोड़ आईं कुलदीप उनकी एक कार के लिए एक दिन दंगों के बीच ही बॉम्बे से लाहौर पहुंच गईं। उन्होंने प्राण के घर से उनकी कार ली और खुद उसे चलाकर दिल्ली होते हुए बॉम्बे ले आईं। कुलदीप के इस साहसी लेकिन बचकाने कदम से हर कोई हैरान था, क्योंकि उस कत्लेआम से बचकर भागा कोई भी शख्स दोबारा लौटना नहीं चाहता था।
बॉम्बे आकर कुलदीप कौर ने प्राण के साथ नई जिंदगी की शुरुआत की। एक दिन प्राण उन्हें अपने साथ बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो ले गए, जहां उनकी मुलाकात सवक वछ से करवाई गई, जो उस समय बॉम्बे टॉकीज के प्रोप्राइटर थे। सवक, कुलदीप को देखकर ही भांप गए थे कि उनमें हीरोइन बनने की ललक है, ऐसे में उन्होंने अपने जर्मन सिनेमैटोग्राफर जोसेफ विर्शिंग से तुरंत उनका स्क्रीन टेस्ट लेने को कहा।
मशहूर उर्दू राइटर सआदत हसन मंटो में उनके साथ स्टूडियो में मौजूद थे। कुलदीप को स्टूडियो के मेकअप रूम भेजा गया और उनके इंतजार में जरूरी लाइट्स और कैमरा लगा दिए गए। कुछ ही मिनटों में कुलदीप कमरे से तैयार होकर निकलीं। पहली बार कैमरे के सामने आ रहीं कुलदीप के चेहरे में न झिझक थी, न कोई सवाल। जोसेफ ने कैमरा शुरू किया और जरूरी रिकॉर्डिंग कर ली। सिनेमैटोग्राफर जोसेफ ने पास खड़े मंटो से चाय के लिए पूछा और स्टूडियो से बाहर निकल गए
बाहर निकलते ही उन्होंने धीरे से कहा कि कुलदीप के चेहरे से ज्यादा ध्यान उनकी तीखी नाक पर जा रहा है। वो उनके लुक से खुश नहीं थे। यही बात सवक वछ को बोली गई, लेकिन उन्होंने अपनी रिकमंडेशन पर उन्हें फिल्म में रोल दे दिया, लेकिन हीरोइन नहीं बल्कि विलेन का।
1948 की फिल्म चमन से हिंदी सिनेमा में जगह बनाने के बाद कुलदीप, जिद्दी, एक थी लड़की, कनीज, समाधि, बैजू बावरा, अनारकली और आधी रात जैसी करीबन 100 फिल्मों में नजर आईं। कुलदीप कौर हिंदी सिनेमा की पहली और सबसे मंझी हुई विलेन समझी जाती थीं। 1950 की फिल्म गृहस्थी में पति से बगावत करने वाली मॉडर्न महिला बनकर कुलदीप ने हर किसी का ध्यान खींच लिया। फिर अफसाना में बेवफा पत्नी और बैजू बावरा में डाकू बनकर उन्होंने बड़े-बड़े सितारों के बीच अपनी मुकाम बना लिया।
उस जमाने में मीना शौरे, मधुबाला, नूर जहां, बीना राय जैसी एक्ट्रेसेस पर्दे पर राज करती थीं और कुलदीप उनकी फिल्मों की सबसे मशहूर विलेन थीं। यही कारण है कि वो एक साल में 6-7 फिल्में किया करती थीं।
50 के दशक में हिंदी सिनेमा को असल जिंदगी से जोड़कर देखा जाता था। यही कारण था कि फिल्मों में निभाए गए निगेटिव रोल के कारण उन्हें एक बिगड़ैल औरत कहा जाता था। खैर, वो थीं भी बेबाक पंजाबी महिला, जो फ्लर्ट करने वालों को करारा जवाब देकर चुप करवा दिया करती थीं। अपने फैसले खुद लेती थीं, चाहे फिल्म चुनने का हो या किसी फिल्म को इनकार करने का हो।
पाकिस्तान के लाहौर से ताल्लुक होने के कारण कुलदीप कौर कई बार पाकिस्तान जाया करती थीं। एक समय ऐसा भी आया जब लोगों ने उन पर पाकिस्तानी जासूस होने के आरोप लगाए। कुछ लोगों ने दावा किया कि कुलदीप कौर भारत में रहकर खुफिया जानकारियां पाकिस्तान पहुंचाती हैं। हालांकि, कभी ये आरोप साबित नहीं हो सके।
एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में कुलदीप कौर शिरडी पहुंची थीं। शूटिंग से जब समय मिला, तो उन्होंने शिरडी में स्थित साईंबाबा की मंदिर दर्शन करने पहुंच गईं। नंगे पैर चलते हुए उनके पैर में बेर के पेड़ का कांटा चुभ गया। उन्होंने खुद वो कांटा निकाला और अपनी शूटिंग में लग गईं। कुछ दिनों बाद उस जगह घाव बनने लगा, लेकिन उन्होंने लापरवाही में इलाज नहीं करवाया। कुछ समय बाद ही जहर उनके बदन में फैलने लगा। जब उनकी हालत बिगड़ने लगी तो उनका इलाज करवाया गया, हालांकि तब तक देर हो चुकी थी। 3 फरवरी 1960 को टिटनेस से उनकी मौत हो गई। मौत के समय उनकी उम्र महज 33 साल थी।
अगले शनिवार 11 नवंबर को पढ़िए इराक से भारत आईं 40 के दशक की मशहूर विलेन नादिरा की कहानी, जो हीरो-हीरोइन से भी महंगी गाड़ियों में घूमती थीं। ये लग्जरी कार रोल्स रॉयस खरीदने वाली पहली एक्ट्रेस हैं। बेहद कामयाब रहीं, लेकिन जब परिवार छोड़कर इजरायल चला गया तो गुमनामी में मौत हो गई।मलयाली सिनेमा की शुरुआत करने वाले जे.सी. डेनियल, जिन्होंने सिनेमा बनाने का इकलौता सपना पूरा करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। सालों की मेहनत से ये सपना तो साकार हुआ, लेकिन एक फैसले से इस सपने ने भयावह रूप ले लिया। वो फैसला था जातिवाद को नकार कर एक दलित लड़की को फिल्म में हीरोइन बना लेना। इस फैसले की सजा उन्हें समाज ने दी। गांव के इकलौता थिएटर जला दिया। इससे बच निकले तो गुमनामी में रहने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। आगे पढ़िए.
द्मश्री, पद्मभूषण जैसे न जाने कितने सम्मान हासिल कर चुकीं बेगम अख्तर 1930-50 के दशक की वो मशहूर सिंगर थीं, जो अपनी गजलों से राजा-महाराजाओं को अपनी महफिलों तक खींच लाती थीं। दरबारी गायिका का दर्जा हासिल कर चुकीं बेगम अख्तर पर कोई सोने-चांदी का नजराना देता तो कोई एकड़ों की जमीन उनके नाम कर देता था। खुद भी बड़ी दिलदार थीं। पता चलता की कोई दूर से उनसे मिलने आया है तो तोहफे में मंहगी गाड़ी दे देती थीं। आगे पढ़िए.
जर्मन तानाशाह हिटलर की गर्लफ्रेंड और जर्मन मॉडल रहीं इवा ब्राउन। इवा को एक घर देने के लिए हिटलर ने जर्मनी की एक घाटी में बसे सारे घर तुड़वा दिए थे। इवा की आखिरी ख्वाहिश पूरी करने के लिए हिटलर ने जंग के हालात में जान बचाने की जगह एक बंकर में छिपकर इनसे शादी की और चंद घंटों बाद इवा को जहर देकर खुदको गोली मारकर मौत को गले लगा लिया।