आज 30-40 के दशक के फेमस डायरेक्टर-एक्टर सोहराब मोदी की 39वीं पुण्यतिथि है। ये वो थे जिन्होंने हिंदी सिनेमा को शुरुआत से ही देखा। पुकार, झांसी की रानी और जेलर जैसी फिल्में उन्हीं का देन हैं। पारसी परिवार में जन्में सोहराब मोदी का रुझान बचपन से ही फिल्मों की तरफ था। बड़े होकर बेहतरीन फिल्में बनाकर उन्होंने अपना ये शौक पूरा किया और आज उनके शौक को लोग करियर बनाकर आगे बढ़ते हैं।
शुरुआती सफर में उन्होंने अपने बड़े भाई के साथ घूम-घूम कर ट्रैवलिंग एग्जिबिटर का काम और लोगों को फिल्में दिखाई। कुछ समय बाद खुद के दम पर ही उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की। इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले उन्होंने कई बेहतरीन फिल्में बनाई।
सोहराब मोदी की फिल्मों का क्रेज इस कदर था कि अंधे भी थिएटर में उनकी फिल्में देखने जाते थे। हालांकि फिल्मों के लिए उनका यही प्यार उनकी कमजोरी भी रहा। तेज बुखार में भी वो फिल्मों की शूटिंग नहीं रोकते थे। फिल्मों की एडवांस बुकिंग के नाम पर लोग उनसे हड़प लेते थे।
जिंदगी के आखिरी समय पर सोहराब मोदी को बोन मैरो कैंसर हुआ जिस वजह से उन्होंने 28 जनवरी 1984 को 86 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया।सोहराब मोदी का जन्म 2 नवंबर 1897 को मुंबई में एक पारसी परिवार में हुआ था। ये मां-बाप की 11 संतानों में से एक थे। पापा सरकारी कर्मचारी थे इसलिए उनका बचपन रामपुर में बीता। रामपुर में सोहराब मोदी का ननिहाल भी था।
जब वो 3 साल के थे तभी उनकी मां का निधन हो गया था। काम के सिलसिले में उनके पापा बाहर ही रहते थे इसलिए सोहराब मोदी की परवरिश उनके मामा ने की।
स्कूल की पढ़ाई खत्म करने के बाद सोहराब मोदी ने अपने प्रिंसिपल से सुझाव मांगा था कि वो आगे चलकर किस फिल्ड में अपना भविष्य बना सकते हैं। प्रिंसिपल ने कहा था- सोहराब तुम्हारी आवाज बहुत अच्छी है। तुम राजनीति या एक्टिंग में अपना करियर बना सकते हो। बचपन से ही उन्हें भी फिल्मों से प्यार था तो प्रिंसिपल की बात मान कर उन्होंने एक्टिंग फील्ड में एंट्री ली।
पढ़ाई खत्म करने के बाद सोहराब अपने भाई के साथ ट्रैवलिंग एग्जिबिटर का काम करने लगे। उनके भाई ने आर्य सुबोध थिएटर कंपनी की स्थापना की थी, जिसके जरिए वो ग्वालियर के अलग-अलग शहरों में फिल्में दिखाते थे।
1924 से लेकर 1935 तक लगातार मोदी अपने थिएटर कंपनी के साथ घूमते रहे। इस दौरान उन्होंने उत्तर भारत से लेकर साउथ इंडिया के सभी इलाकों में फिल्मों को दिखाया। इसी समय सोहराब और उनके भाई ने वेस्टर्न इंडिया थिएटर कंपनी को भी खरीद लिया। ये ग्रुप पूरे देश में टेंट सिनेमा और परमानेंट थिएटर समूहों को प्रमोट करता था।
कुछ दिनों से सोहराब मोदी के भाई की तबीयत खराब चल रही थी। तब उन्होंने सोहराब मोदी से कहा कि वो अब कंपनी के काम-काज को संभाल ले। सारी जिम्मेदारियों को लेने के बाद 1935 में सोहराब मोदी ने पहली स्टेज फिल्म कंपनी की स्थापना की थी। इस प्रोडक्शन हाउस के बैनर तले पहली फिल्म खून का खून बनी थी। ये फिल्म शेक्सपियर के हैमलेट पर बेस्ड थी। हालांकि ये फिल्म फ्लॉप रही। इसके एक साल बाद उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवीटोन की स्थापना की। इस प्रोडक्शन हाउस के अंडर उन्होंने मीठा जहर, शराबबंदी और तलाक जैसी फिल्में बनाई।
1937 में सोहराब मोदी ने फिल्म आत्मा तरंग बनाई थी। ये सामाजिक मुद्दे पर बनी फिल्म थी जो बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। फिल्म फ्लॉप होने की वजह से सोहराब मोदी बहुत दुखी हुए। एक दिन 4 लोगों थिएटर से यही फिल्म देखकर निकल रहे थे तभी उन लोगों की मुलाकात सोहराब मोदी से हुई।
उन 4 चार लोगों में एक आदमी ने कहा- आप ऐसा क्यों कह रहे हैं। ऐसा मत कहिए। साथ ही आप ऐसे मुद्दों पर फिल्में बनाते रहिए, देखिएगा एक दिन जरूर आप भी टाॅप पर होंगे।
इतना कह कर वो लोग चले गए। उन 4 लोगों के बारे में सोहराब मोदी ने पता किया कि वो हाई कोर्ट के जज थे। वो इस बात से बहुत खुश हुए कि हाई कोर्ट के जज उनकी फिल्मों की तारीफ कर रहे है, तो वो सिर्फ ऐसी ही फिल्में बनाएंगे।
50 के दशक का एक किस्सा बहुत मशहूर है। 1950 में, जब सोहराब मोदी की फिल्म शीश महल को मिनर्वा थिएटर में दिखाया जा रहा था। उस समय सोहराब मोदी भी वहां पर मौजूद थे। वहीं पर मौजूद एक आदमी आख बदंकर करके पिक्चर देख रहा था। उसकी इस आदत से वो परेशान हो गए। वो सोचने लगे कि फिल्म इतनी खराब है कि वो आंखे बंद करके फिल्म देख रहा है।
उन्होंने अपने एक हेल्पर को उसके पास खराब फिल्म की वजह से पैसे लौटाने के लिए भेज दिया। हेल्पर ने आकर सोहराब मोदी को बताया कि वो आदमी अंधा है। लेकिन उसे सोहराब मोदी की फिल्मों से बहुत प्यार है इसलिए वो थिएटर में सिर्फ उनकी आवाज सुनने आया था।
सोहराब मोदी की पत्नी मेहताब ने उनके साथ कई फिल्मों में काम किया था। उन्होंने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया था कि फिल्मों के अलावा सोहराब मोदी को कुछ भी नहीं भाता था। तेज बुखार में भी वो फिल्मों की शूटिंग नहीं टालते थे। दिन-रात बस वो फिल्मों के लिए जीया करते थे।
के.आसिफ फिल्म मुगल-ए-आजम को एक बेहतरीन फिल्म बनना चाहते थे। इस वजह से समय और पैसे, दोनों की कमी हो गई थी। इस बात से तंग आकर फिल्म के निर्माता शापूरजी पालनजी मिस्त्री दूसरा डायरेक्टर चाहते थे। कुछ समय उन्होंने सोहराब मोदी को फिल्म के लिए चुना। कई मीटिंग के बात ये तय हो गया कि फिल्म को सोहराब मोदी डायरेक्टर करेंगे। एक दिन सोहराब मोदी मुगल-ए-आजम का सेट देखने गए। लौटते समय उनकी गाड़ी खराब हो गयी तो शापूरजी ने अपने ड्राइवर को उन्हें घर छोड़ने के लिए कहा
शापूर जी का ड्राइवर रास्ते में सोहराब मोदी से कहने लगा- साहब, आसिफ मियां भी अजीब आदमी है। यहां शूटिंग पर अनारकली के लिए हीरे-मोती की जिद करता है लेकिन खुद उसके पास केवल दो जोड़ी कुर्ता-पाजामा है। यहां दिन में हीरे-पन्नों की बात करता है, जम्हूरियत की बात करता है, लेकिन खुद एक छोटे से घर में रहता है। सोता भी चटाई पर है। इतना ही नहीं जब सैलरी आती है तो दोस्तों और स्टूडियो के मजदूरों में बांट देता है। साहब, ये के आसिफ बड़ा भला आदमी है।
गाड़ी में ड्राइवर की बात का सोहराब ने कोई जवाब नहीं दिया लेकिन उसकी बात उनके दिल पर लग गई। उन्होंने घर पहुंच कर शापूरजी को फोन लगाया और कहा- मैं इस फिल्म को डायरेक्ट नहीं करूंगा। मेरी एक सलाह है कि अगर आप इस फिल्म का भला चाहते हैं तो के. आसिफ के अलावा फिल्म का निर्देशन किसी और को मत दिजिए।
सोहराब मोदी की पत्नी ने बताया था कि सोहराब मोदी फिल्मों के लिए बहुत जुनूनी थे। फिल्में ही उनकी कमजोरी थी और उनकी इसी कमजोरी का लोग फायदा भी उठाया करते थे। फिल्म मेकिंग के एडवांस पेमेंट की वजह से उन्हें भारी नुकसान का सामना करना पड़ता था।
जिंदगी के आखिरी पलों में सोहराब मोदी बोन मैरो कैंसर का शिकार हो गए थे। जिस वजह से 28 जनवरी 1984 को 86 साल की उम्र में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।