दुःखद !!महाराष्ट्र: सिर्फ 3 महीनों में 639 अन्नदाताओं ने की आत्महत्या, प्रतिदिन मरते हैं 7 किसान

एक तरफ सरकारें कर्जमाफी कर रही है तो वहीं दूसरी तरफ किसान आत्महत्या कर रहा है। क्या यह बात सरकार को समझ में नहीं आती है कि कर्जमाफी किसानों के असली समस्याओं का समाधान नहीं है? अगर कर्जमाफी किसानों की समस्याओं का वाजिब समाधान होता  तो किसान अत्महत्या क्यों करता? इससे साबित होता है कि कर्जमाफी किसानों के समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि कर्जमाफी किसानों के लिए और ज्यादा मुसीबत है।
 
मिली जानकारी के अनुसार महाराष्ट्र में मार्च से मई के बीच तीन महीने में 639 किसानों ने आत्महत्या की है। राज्य के राजस्व मंत्री चंद्रकांत पाटिल ने विधान परिषद में यह जानकारी दी है।
 
इस संबंध में सरकार से विधान परिषद में विपक्ष के नेताओं ने और कुछ सदस्यों ने तथ्यात्मक जानकारी चाही थी। इसके जवाब में राजस्व मंत्री ने बताया कि राज्य के ज्यादातर किसानों ने कर्ज के बोझ और फसलें खराब होने जैसी वजहों से आत्महत्या की है। उनके मुताबिक इन 639 में से 188 किसानों को सरकार की योजनाओं के तहत हर्जाना दिए जाने के पात्र माना गया था, इनमें से 174 ऐसे किसानों के परिवारों को हर्जाना दिया भी जा चुका है।
 
फसलों के खराब होने, कर्ज का बोझ बढ़ जाने और उसे चुका पाने में सक्षम न होने की स्थितियों में विभिन्न योजनाओं के तहत हर्जाना दिए जाने का प्रावधान है।पाटिल ने बातया कि आत्महत्या करने वाले किसानों में से 122 को विभिन्न कारणों से इस हर्जाने के पात्र नहीं माना गया था। जबकि 329 किसानों के मामले अभी जांच की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं, हालांकि विपक्षी नेता सरकार के इस जवाब से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने आरोप लगाया कि सरकार किसानों के हित की जिन योजनाओं की बात कर रही है वे सब असफल हो चुकी हैं।
 
इसके चलते बीते चार साल में राज्य के 13,000 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं, पिछले साल ही 1,500 किसानों ने आत्महत्या की है। इससे साबित होता है कि कर्जमाफी किसानों की समस्याओं का असली समाधान नहीं है, जिसकी वजह से किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 1995 से लेकर 2015 तक 3 लाख 18 हज़ार 438 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह कोई छोटा आंकड़ा नहीं है।
 
अब तक तो देश में किसानों की आत्महत्या के मामले महज आंकड़े बन कर फाइलों में ही दर्ज होते रहे हैं.भारत को कृषि प्रधान देश कहा जाता है और यहां की 65 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर है. बावजूद इसके देश में यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा है. किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत न तो किसी सरकार को है और न ही किसी राजनीतिक पार्टी को. हां, उनकी आत्महत्या के मामले अक्सर विपक्षी दलों के लिए सरकार पर हमले का हथियार जरूर बन जाते हैं. आंकड़ों के आईने में यह समस्या काफी गंभीर नजर आती है.
 
खुफिया विभाग ने भी हाल में किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. उसमें कहा गया था कि किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी. इनमें असमान बारिश, ओलावृष्टि, सिंचाई की दिक्कतों, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया था तो कीमतें तय करने की नीतियों और विपणन सुविधाओं की कमी को मानवनिर्मित वजह बताया गया था. लेकिन इस रिपोर्ट में कहीं भी इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि आखिर इस समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है. जाहिर है सरकारी एजेंसी की यह रिपोर्ट आंकड़ों की बाजीगरी के अलावा कुछ नहीं है.
 
किसानों की समस्याएं और उनके आत्महत्या के मामले कुछ दिनों के लिए सुर्खियों में रहते हैं. सरकारें छोटा-मोटा मुआवजा देकर या राहत पैकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं. नतीजतन समस्या जस की तस रहती है और आत्महत्या का यह चक्र जारी रहता है. बस चेहरे बदलते रहते हैं.
 
इसी अन्नदाता की दयनीय दशा पर कुछ लाइने याद आती हैं
 
 
रो रहा वर्तमान है
भविष्य भी भयभीत है ।
कष्ट में वह पूछता है
कर्मफल कब पाऊंगा?
या यूं ही संघर्ष करता
परलोक सिधार जाऊंगा।
 
रिपोर्ट प्रस्तुति :- आदर्श कुमार
 
 
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