मनोज बाजपेयी स्टारर फिल्म सिर्फ एक बंदा काफी है, 23 मई यानी आज जी5 पर रिलीज हो चुकी है। ये एक कोर्टरूम ड्रामा है जिसे 2013 के आसाराम बापू के खिलाफ हुए रेप केस पर बनाया गया है। फिल्म में मनोज बाजपेयी आसाराम बापू के खिलाफ केस लड़ने वाले वकील पीसी सोलंकी के रोल में हैं।
ये फिल्म जोधपुर जैसे छोटे इलाकों से ताल्लुक रखने वाले साधारण से वकील पीसी सोलंकी और ताकतवर धर्मगुरू के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाली एक नाबालिग युवती के असाधारण हिम्मत दिखाने के नतीजे की कहानी है।
धर्मगुरू पर नाबालिग युवती पर यौन शोषण के आरोप हैं। धर्मगुरू को बचाने कानून के अखाड़े में पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री से लेकर देश के बड़े नामी गिरामी वकील तक उतरते हैं। केस से जुड़े चार अहम गवाहों को मार दिया जाता है फिर भी लॉयर पीसी सोलंकी और नाबालिग युवती केस से कदम पीछे नहीं खींचते हैं। इस तरह इस कोर्ट रूम ड्रामा में कई मोटिवेशनल कहानियां भी समानांतर रूप से चलती हैं।
फिल्म बहुत जल्दी मुद्दे पर आती है। साल 2013 में एक नाबालिग युवती अपने उस धर्मगुरू बाबा के ही खिलाफ दिल्ली पुलिस में एफ आई आर दर्ज करवाती है, जिसे वह भगवान मानती रही है। बाबा पर सेक्शन 342 , 370 /4 , 120B , 506 , 354 A , सेक्शन 376 D सेक्शन 376 -2 -F , 509 IPC , 5G /6 और सेक्शन 7/8 ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्सुअल ऑफेन्सेस एक्ट (POCSO), सेक्शन 23 जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत मुकदमा दायर किया जाता है।
युवती का केस लड़ने वाला पहला प्रॉसिक्यूटर ही पलट जाता है। बाद में ईमानदार और शिव भक्त लॉयर पीसी सोलंकी की एंट्री होती है और वह कैसे केस का रुख पलट कर रख देते हैं यह फिल्म इस बारे में है।
इस फिल्म की ताकत इसका लेखन और निर्देशन है। ये कोर्टरूम ड्रामा दीपक किंगरानी ने लिखा है। अपूर्व सिंह कार्की निर्देशक हैं। उन्होंने अपनी पूरी ताकत यौन शोषण की पीड़िता नाबालिग युवती का केस लड़ रहे पीसी सोलंकी पर केंद्रित किया है। सौभाग्य से पुणे पीसी सोलंकी के रूप में मनोज वाजपेई जैसे कमाल के एक्टर मिले हैं जिन्होंने पीसी सोलंकी के किरदार को जीवंत किया है।
राइटर और डायरेक्टर ने ना तो लॉयर पीसी सोलंकी को सुपरहीरो टाइप के लॉयर में तब्दील होने दिया है। ना ही ताकतवर धर्मगुरु बाबा के पक्ष को ही बिल्कुल अविनाशी दिखाया है, जो जब चाहे कानून के हाथ मरोड़ कर अपनी मनमानी करता फिरे।
बहरहाल, जिस केस पर यह फिल्म आधारित है, उसकी सुनवाई में 5 साल लगे थे। बेशक वह लंबा अर्सा जरूर महसूस करवा पाने में राइटर और डायरेक्टर जरा चूके हैं।
धर्मगुरु के लिए लड़ रहे देश के नामी गिरामी लॉयर तक के पास दमदार तर्क की कमी दिखी है। यह शायद इसलिए मुमकिन है कि असल केस में भी वैसा ही हुआ हो। या फिर इसलिए कि पॉस्को से जुड़े कैसेज पर लॉयर पीसी सोलंकी को महारत हासिल हो और देश के नामी वकील पॉस्को की बारीकियों में सोलंकी को परास्त नहीं कर पाए हों।
ऐसे हाई प्रोफाइल केसेज में छोटे इलाके के साधारण से वकील और उसके आसपास के लोगों का क्या डर हो सकता है, उसे ईमानदारी से रखा गया है। डर को मनोज बाजपेयी ने असरदार तरीके से पेश किया है ।
धर्मगुरु पर तो धर्म के नाम पर धंधा चलाने का आरोप है, लेकिन सोलंकी शिव भक्त है।,धार्मिक है। मुश्किल परिस्थितियों में उसका सहारा शिव ही हैं। वह सब फिल्म और कलाकारों के काम की खूबी हैं। मगर जो धर्मगुरु के लॉयर की खेप हैं, उनमें विपिन शर्मा से लेकर अन्य उम्दा एक्टर्स की खेप है। मगर उनके हिस्से में वो दमदार तर्क नहीं आए हैं। यहां इस मोर्चे पर फिल्म जरा लचर होती है।
बेशक धर्मगुरू के रोल में सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ और नाबालिग पीड़िता बनी कलाकार अपने किरदार में अनुशासित भाव से बने रहें हैं। फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर और मनोज बाजपेयी की क्लोजिंग स्पीच फिल्म के हाई पॉइंट हैं। उस सीन में वाकई रेांगटे खड़े होते हैं।
यह फिल्म जिन मुद्दों के इर्द गिर्द है, वो बेहद जरूरी हैं। जिस धर्मगुरु बाबा पर यह बेस्ड है, वह तो सालों जेल में बंद रहे, मगर आज भी कई ऐसे नए धर्मगुरू आ चुके हैं, जिन पर फिर से जनता और राजनेता खुलकर समर्थन दे रहे हैं। तो क्या बंदा जैसी फिल्में फर्जी धर्मगुरुओं पर कुछ लगाम लगा सकेगी, वह देखना दिलचस्प होगा।