बॉलीवुड का शुरुआती दौर जब सिर्फ फिल्मों में मेल कॉमेडियन होते थे। तब एक मोटी सी लड़की ने कॉमेडियन बनकर हिंदी सिनेमा के नए दौर की शुरुआत की। ये थीं उमा देवी। हां, असली नाम ये ही था। फिल्मी नाम था टुनटुन जो दिलीप कुमार का दिया हुआ था। बड़े पर्दे पर कभी हीरोइन की सहेली, कभी हीरो की बहन बनकर लोगों को हंसाया। मगर, खुद टुनटुन की जिंदगी इतनी दर्दनाक थी जिसकी कल्पना करना भी थोड़ा मुश्किल ही है।
ढाई साल की उम्र से शुरू हुआ संघर्षों का सिलसिला 80 साल की उम्र तक एक अनजान बीमारी से लड़ते हुए मौत के साथ खत्म हुआ। जब ढाई साल की थीं तो रिश्तेदारों ने जायदाद के लिए माता, पिता और भाई को मार दिया। अनाथ टुनटुन अपने ही रिश्तेदारों में नौकरानी बन गईं। ना वक्त पर खाना मिलता, ना अच्छे कपड़े और ना ही कभी बराबरी का दर्जा। हालात ये थे कि जिस रिश्तेदार के घर में कोई काम होता, वहां इन्हें भेज दिया जाता। साल गुजरते रहे, समय बदलता रहा लेकिन हालात नहीं बदले।
फिर एक दिन किस्मत ने करवट ली और ये सिंगर बनने के लिए उत्तर प्रदेश के अमरोहा से एक दोस्त के साथ भागकर मुंबई आ गईं। स्ट्रगल किया, सिंगर भी बन गईं। पहला गाना भी अपने दौर का चार्टबस्टर था। अफसाना लिख रही हूं दिल-ए-बेकरार का। ऐसे ही कई हिट गाने दिए लेकिन फिर तकदीर ने पलटी मारी। गाना छूट गया। एक्टर बनीं। वहां भी स्ट्रगल और सफलता दोनों थे।
टुनटुन का जन्म 11 जुलाई 1930 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में हुआ था। पैदा होने के 2 साल बाद ही मानों उन पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। उनके परिवार और रिश्तेदारों के बीच प्रॉपर्टी को लेकर बहुत दिनों से विवाद चल रहा था, लेकिन किसी को इस बात की भनक भी नहीं थी कि यही प्रॉपर्टी पूरे परिवार की मौत की वजह बनेगी।
जब टुनटुन ढाई साल की थी, तो रिश्तेदारों ने प्रॉपर्टी के कारण उनके माता-पिता की हत्या कर दी। उसके बाद दो बच्चे बचे, एक टुनटुन और दूसरे उनके बड़े भाई हरि। रिश्तेदार ने दोनों बच्चों को अपने यहां पनाह दी लेकिन नौकर की हैसियत से।
टुनटुन को नहीं पता था कि उनके माता-पिता कैसे दिखते थे क्योंकि जब उन लोगों की हत्या हुई थी, जब वो बहुत छोटी थी। उनके भाई ही थे जो उनका बहुत ख्याल रखते थे लेकिन उनका भी साया थोड़े समय बाद हट गया। जब वो 4 साल की हुईं, तो रिश्तेदारों ने उनके भाई की भी हत्या कर दी।
इसके बाद वो पूरी तरह से अनाथ हो गईं और बिल्कुल अकेली पड़ गईं। ना वक्त पर खाना मिलता था, ना ही रिश्तेदारों में बराबरी का दर्जा। उनसे नौकरों की तरह बर्ताव किया जाता था। काम पड़ने पर टुनटुन को किसी एक रिश्तेदार के घर भेज दिया था, तो कभी दूसरे रिश्तेदार के घर। जहां भी जाती, बस जिल्लत भरी जिंदगी ही जीतीं।
टुनटुन की पढ़ाई के बारे में कोई कुछ नहीं सोचता था। उनसे बस घर के काम करवाए जाते थे। लेकिन कहते है ना जिसके भाग्य में जो लिखा होता है वो उसको जरूर मिलता है। टुनटुन के साथ भी वही हुआ। उनको बचपन से ही संगीत से बहुत प्यार था। वो अक्सर रेडियो से गाने सुनकर उसका रियाज किया करती थीं। इतना ही नहीं, गाने के बोल क्या हैं, संगीतकार कौन हैं, किस फिल्म का गाना है, ये तमाम चीजें उन्हें पता होती थीं।
संगीत से खास लगाव होने की वजह से उनका भी सपना एक सफल सिंगर बनने का ही था। वो चाहती थीं कि मुंबई जाकर संगीत में करियर बनाए। लेकिन उस वक्त तो उनका पढ़ाई तक करना मुश्किल था और संगीत की शिक्षा लेनी तो दूरी की बात थी।
टुनटुन अक्सर काम के सिलसिले में दरियागंज में रहने वाले रिश्तेदार के घर जाया करती थीं। एक दिन वहां पर उनकी मुलाकात अख्तर अब्बास काजी से हुई। ये वो शख्स थे, जिन्होंने टुनटुन की गायकी के हुनुर को देखा और समझा। अब्बास काजी ने उनसे वादा किया था वो उनकी मदद जरूर करेंगे, लेकिन किस्मत ने टुनटुन को फिर धोखा दिया। काजी को किसी जरूरी काम के सिलसिले में लाहौर जाना पड़ा और टुनटुन का ये सपना भी अधूरा रह गया।
जब टुनटुन की जिंदगी में ये रास्ता बंद हुआ तो भगवान ने दूसरा रास्ता खोल दिया। उनकी मुलाकात एक लड़की से हुई जो मुंबई में कई फिल्म वालों को जानती थी। कुछ समय साथ बिताने के बाद दोनों में गहरी दोस्ती हो गई। फिर एक दिन टुनटुन ने उनको ये बात बताई उन्हें गाने का बहुत शौक है, तो उन्होंने कहा कि तुम मेरे साथ मुंबई चलो। टुनटुन भी उस दोस्त के साथ भागकर मुंबई आ गईं। वहां पर दोस्त ने उनकी मुलाकात डायरेक्टर नितिन बोस के असिस्टेंट से कराई। नए शहर में जाने के बाद टुनटुन के पास रहने के लिए कोई ठिकाना नहीं था, तो नितिन बोस के असिस्टेंट ने उन्हें अपने घर पर पनाह देदी।
मुंबई में कुछ समय वक्त बिताने के बाद टुनटुन की दोस्ती डायरेक्टर अरुण कुमार आहूजा और उनकी पत्नी गायिका निर्मला देवी (एक्टर गोविंदा के माता-पिता) से हुई। दोनों ने कई फिल्म डायरेक्टर्स से उनकी मुलाकात करवाई और ऐसे ही उनके संगीत का सफर शुरू हुआ।
बेबाक अंदाज की वजह से मिला पहला गीत
इसी दौरान टुनटुन को पता चला कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद कारदार एक नई फिल्म बना रहे हैं। इतनी सी खबर मिलते ही वो पहुंच गई रसीद कारदार के दफ्तर। टुनटुन उनसे पहले मिली नहीं थीं, तो उन्हीं से पूछ बैठी कि डायरेक्टर अब्दुल रशीद कारदार कहां हैं और मुझे उनकी आने वाली फिल्म में गीत गाना है।
वो हमेशा से ही बेबाक बोलती थीं। उनकी यही बेबाकी और मासूमियत अब्दुल रसीद को पसंद आई और उन्होंने संगीतकार नौशाद से कहा कि वो टुनटुन का टेस्ट ले लें। उनका टेस्ट हुआ और नौशाद साहब उनकी आवाज से इतने प्रभावित हुए कि उनको तुरंत काम दे दिया।
टुनटुन ने ‘अफसाना लिख रही हूं दिल-ए-बेकरार का’ गाने से संगीत करियर की शुरुआत की। इस गाने के बाद ही वो रातों-रात बड़ी स्टार बन गईं। इस गाने से लाहौर बैठे अख्तर अब्बास काजी भी इतने प्रभावित हुए कि वो मुंबई आ गए। ये वहीं अख्तर अब्बास काजी थे जो शुरुआत में टुनटुन की मदद करना चाहते थे लेकिन उन्हें किसी कारणवश लाहौर जाना पड़ा था। मुंबई पहुंच कर उन्होंने सीधे टुनटुन को शादी के लिए प्रपोज किया। टुनटुन भी उन्हें पसंद करती थी, जिसके बाद दोनों ने 1947 में शादी कर ली। वो उन्हें प्यार से मोहन बुलाती थीं।
शादी के बाद टुनटुन मां बनना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री से दूरी बना ली। बच्चे हो जाने के बाद वो पहले से बहुत मोटी गई थीं। फिल्म इंडस्ट्री से वापसी करना चाहती थीं इसलिए वो सीधे जाकर नौशाद साहब से मिलीं।
नौशाद साहब- टुनटुन अब इंडस्ट्री का माहौल बदल गया है। लता मंगेशकर जैसी सिंगर संगीत की शिक्षा लेकर इंडस्ट्री में कदम रखी हैं। उन सब के बीच में खुद को फिर से स्थापित करना तुम्हारे लिए मुश्किल होगा।
बात है 1950 की। फिल्म बाबुल रिलीज हुई थी। ये टुनटुन की एक्टिंग डेब्यू फिल्म थी। इस फिल्म में दिलीप कुमार के साथ टुनटुन नजर आई थीं। फिल्म में एक सीन था जहां दिलीप कुमार से टुनटुन टकरा जाती हैं और दोनों एक साथ पलंग पर गिर जाते हैं। इसी सीन की शूटिंग के दौरान, टुनटुन के गिर जाने पर दिलीप कुमार कहते हैं कि कोई उठाओ इस टुनटन को।
दिलीप कुमार के मुंह से निकला ये नाम उनको इतना पसंद आया की, उसके बाद उन्होंने अपना टुनटुन ही रख लिया। लेकिन इस बात का किसी को भी इल्म नहीं था कि इसी नाम से आगे चल कर वो एक लंबी पारी खेलेंगी।
टुनटुन लगातार कई हिट फिल्में करती गईं और सफलता की सीढ़ियां चढ़ती चली गईं। सभी डायरेक्टर फीमले काॅमेडियन के लिए सिर्फ उन्हें ही अप्रोच करते थे। उन्होंने अपनी एक्टिंग से ऐसा कमाल किया कि वो भारत की पहली महिला कॉमेडियन बन गईं। आलम ये था कि उस दौर की फिल्मों में खासतौर पर उनके लिए रोल लिखे जाते थे। उस दौर के जो भी बड़े कलाकार थे टुनटुन ने सभी के साथ काम किया।
शोहरत की बुलंदियों पर पहुंच जाने के बाद टुनटुन की फिल्मों की संख्या में कमी आने लगी थी। जहां एक वक्त था कि एक साल में वो 10 से 12 फिल्में करती थीं, वहीं वो साल में 1 फिल्में करने लगी थीं। कुछ साल बाद उन्होंने पूरी तरह से फिल्म इंडस्ट्री से दूरी बना ली। वजह थी उनके पति काजी की मौत। उनके पति की मौत 1992 में हो गई थी, जिसके बाद उन्होंने अपना पूरा अपने परिवार के साथ बिताया।
इतना सफल करियर होने के बावजूद भी टुनटुन को किसी भी नेशनल अवाॅर्ड से सम्मानित नहीं किया गया। ताउम्र दर्शकों का प्यार ही उनके लिए सम्मान था। हालांकि ये गौर करने वाली ही बात कि जिस किरदार ने फिल्मों के माध्यम से अपने दर्शकों को हंसाने और लुभाने में कोई ना कसर ना छोड़ा हो, उसको किसी सम्मान से नवाजा नहीं गया।
24 नवंबर 2003 को मुंबई में टुनटुन ने अंतिम सांस ली थी। वो लंबे से एक गंभीर बीमारी से जूझ रहीं थी, जिसकी वजह से 80 साल की उम्र में उनका देहांत हो गया था।