हमेशा जमीनी सच्चाइयों से वाकिफ रहे प्रणब मुखर्जी को काफी पहले ही एहसास हो गया था कि प्रधानमंत्री के पद पर वे कभी नहीं पहुंच पाएंगे और उन्होंने इसे बाकायदा स्वीकार भी किया था. उन्होंने साल 2001 में एक इंटरव्यू में वे तीन कारण गिनवाए थे, जो उनके मुताबिक प्रधानमंत्री की राह में सबसे बड़े रोड़े थे. एक, उन्हें अच्छी हिंदी नहीं आती. दूसरा, उनमें जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योति बसु, राजीव गांधी और ममता बनर्जी जैसे नेतृत्व गुणों का अभाव हैं और तीसरा, वे अपने दम पर लोकसभा सीट नहीं जीत सकते (हालांकि बाद में 2004 में मुखर्जी ने पहली बार लोकसभा चुनाव जीता था). इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि भारतीय राजनीति के एक छात्र के तौर पर उन्होंने हमेशा इस गणतंत्र का राष्ट्रपति बनने का सपना देखा है. आखिरकार, इस इंटरव्यू के करीब एक दशक बाद वह समय आया, जब जुलाई 2012 में सोनिया गांधी ने राजनीति में उनके पांच दशक के योगदान के मद्देनजर राष्ट्रपति भवन के लिए यूपीए प्रत्याशी के तौर पर उनका नाम घोषित किया था.
हालांकि उनमें प्रधानमंत्री बनने की कहीं न कहीं ललक भी रही, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. एक वाकया तब का है, जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने ‘कार्यवाहक प्रधानमंत्री’ के तौर पर कार्यभार संभालने के बारे में पूछा तो मुखर्जी ने वरिष्ठता पर जोर दिया, जिसे इस प्रतिष्ठित कुर्सी को हासिल करने की उनकी इच्छा के तौर पर देखा गया था. इंदिरा गांधी की कैबिनेट में नंबर दो पर रहे शख्स की यह आकांक्षा कोई अस्वाभाविक भी नहीं कही जा सकती थी. लेकन, राजीव के सहयोगियों ने इसे अपने नेता के लिए कांटा समझा और धीरे-धीरे मुखर्जी और राजीव गांधी के बीच संबंध इतने बिगड़ गए कि इंदिरा की हत्या के दो साल बाद ही उन्हें कांग्रेस से रुखसत होना पड़ा. उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’ बनाई, जिसका बाद में 1989 में कांग्रेस में विलय हो गया था.
राजीव गांधी के साथ अपने मतभेदों के बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में स्पष्ट मगर सधे शब्दों में लिखा, ‘इस सवाल पर कि उन्होंने (राजीव गांधी) मुझे मंत्रिमंडल से क्यों हटाया और पार्टी से क्यों निकाला, मैं बस इतना ही कह सकता हूं कि उन्होंने गलतियां कीं और मैंने भी कीं. वे दूसरों के बहकावे में आ गए और मेरे खिलाफ कही गईं बातों को गंभीरता से ले लिया. और मैंने अपनी हताशा को अपने धैर्य पर हावी होने दिया.’
वैसे मुखर्जी और राजीव के बीच मतभेदों को हवा देने का काम तो इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन से ही शुरू हो गया था. मुखर्जी उस समय राजीव गांधी के साथ बंगाल में थे, जब इंदिरा पर हमले की खबर उन तक पहुंची थी. दोनों एक ही विमान से नई दिल्ली लौटे. फिर जो कुछ हुआ, उसके बारे में एक पक्ष यह है कि बेहद दुखी मुखर्जी विमान के वॉशरूम में गए और रो पड़े. उसके बाद वे विमान में पीछे जाकर बैठ गए, क्योंकि रोने की वजह से उनकी आंखें लाल हो गई थीं. लेकिन कांग्रेस के भीतर उनके विरोधियों ने उन पर राजीव गांधी के खिलाफ साजिश रचने का आरोप मढ़ दिया.
इंदिरा के ‘हनुमान’!
प्रणब मुखर्जी हमेशा इंदिरा के नंबर वन सहयोगी रहे. 1977-78 में जब चुनावी हार के बाद ज्यादातर दिग्गज कांग्रेस नेताओं ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया था, मुखर्जी उनके साथ ही खड़े रहे. 1980 में इंदिरा गांधी की जब सत्ता में वापसी हुई, तब भी मुखर्जी उनके प्रमुख संकटमोचक बनकर उभरे. उन्होंने अपनी ऐसी साख जमा ली थी कि कुछ मौकों पर तो इंदिरा गांधी तीन वरिष्ठ मंत्रियों – आर. वेंकरमण, पी.वी. नरसिंह राव और एन.डी. तिवारी से ऊपर रखकर प्रमुख कार्यों का जिम्मा पूरी तरह उन्हीं पर छोड़ देती थीं. मुखर्जी के पूर्व कैबिनेट सहयोगी बताते हैं कि कैसे वे बेहद सहजता से कैबिनेट में आम सहमति बना लेते थे और इससे प्रधानमंत्री का काम और भी आसान हो जाता था. 1982 में भ्रष्टाचार का आरोप लगने के बाद ए.आर. अंतुले जब मुख्यमंत्री का पद छोड़ने में आनाकानी कर रहे थे, तब इंदिरा गांधी ने उनका इस्तीफा लेने में मुखर्जी की ही मदद ली थी. आंध्र प्रदेश और अन्य राज्यों में एक के बाद एक मुख्यमंत्रियों को बदलने में भी मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के दाहिने हाथ की भूमिका निभाई थी.
सोनिया के लिए ‘किंगमेकर’
अनुभवों ने मुखर्जी को सिखा दिया था कि सत्ता के फिसलन भरे गलियारों में अधूरी संभावनाओं पर विचार करने या अपनी इच्छाओं का कैदी बने रहने का कोई मतलब नहीं है. इसलिए सोनिया गांधी-प्रणब मुखर्जी के रिश्तों में एक तरह की मधुरता बनी रही, इस आम धारणा के बावजूद 10 जनपथ का मुखर्जी पर पूरी तरह भरोसा नहीं था. वे प्रणब मुखर्जी ही थे, जिन्होंने मार्च, 1998 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को हटवाकर उनकी जगह सोनिया को प्रतिस्थापित करने की योजना का खाका तैयार किया था. उनके ‘जुगाड़’ से ही सोनिया गांधी औपचारिक रूप से पार्टी की कमान संभाल सकीं.
वे उस समय भी सोनिया गांधी के सबसे करीबी सलाहकार थे, जब शरद पवार, पी.ए. संगमा और तारिक अनवर ने विदेशी मूल के मुद्दे पर उनके खिलाफ बगावत कर दी थी. यह माना जाता था कि उस दौर में सोनिया गांधी के सभी पत्रों का मसौदा मुखर्जी ही तैयार किया करते थे. असल में, सोनिया गांधी के मन में बंगाली बाबू के लिए आदर भाव तभी से था, जब वे डिनर टेबल पर बातचीत के दौरान इंदिरा गांधी से मुखर्जी की बुद्धिमत्ता के किस्से सुना करती थीं. इंदिरा गांधी की तरह सोनिया गांधी भी उन्हें एक चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया और तमाम विषयों का जानकार मानती थीं.
‘प्रधानमंत्री महोदय’ से ‘राष्ट्रपति महोदय’ तक
जब मनमोहन सिंह भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर बने, तब मुखर्जी वित्त मंत्री हुआ करते थे. लेकिन मई 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने, तब मुखर्जी ने उन्हें ‘प्रधानमंत्री महोदय’ कहकर संबोधित करने में कोई गुरेज नहीं किया. मुखर्जी को अंतत: राष्ट्रपति भवन पहुंचने के बाद मनमोहन सिंह के मुख से अपने लिए ‘राष्ट्रपति महोदय’ का संबोधन सुनना निश्चित तौर पर संतोषप्रद रहा होगा. उन्होंने राष्ट्रपति भवन में एक संग्रहालय भी स्थापित करवाया था, जहां कभी धूल फांकती रहीं कई चीजें कायदे से स्थापित की गईं. इनमें लॉर्ड इरविन का चित्र, वी.वी. गिरि की छड़ी आदि शामिल थी.
बतौर राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इसलिए भी याद किए जाएंगे कि उन्होंने रिकॉर्ड 37 दया याचिकाओं को खारिज कर दोषियों को फांसी के फंदे तक पहुंचाया. उनके कार्यकाल के दौरान जिन लोगों को फांसी मिली, उनमें मुंबई आतंकी हमले का दोषी अजमल कसाब, संसद हमले का दोषी अफजल गुरु और 1993 मुंबई सिलसिलेवार बम धमाकों का दोषी याकूब मेमन शामिल हैं.