आम जनता सत्ताधारियों से यह सवाल कर रहा है कि राजनीति में महिलाओं की उपस्थिति कम क्यों है| महिला आरक्षण बिल आज भी पास क्यों नहीं हो पा रहा| महिला अधिकारों पर बोलना अलग बात है और उनके लिए लड़ाई लड़ना बिल्कुल अलग बात है| मौजूदा दौर में नारी सशक्तीकरण पर चौतरफा जोर दिया जा रहा है। कहीं सामाजिक चेतना के जरिए तो कहीं सख्त कानून के जरिए। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और संघ परिवार, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ट्रिपल तलाक के फ़ैसले का जश्न मना रहे हैं, जिसमें मुस्लिम महिलाओं को पुरुष प्रधान मुस्लिम समाज से मुक्त करने का श्रेय दिया गया है। लेकिन इस बात का कोई सबूत नहीं है कि उन्होंने हिंदू महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए कोई पहल की। महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई डॉ. भीमराव अंबेडकर ने वर्षो पहले ही शुरू कर दी थी|
महिला सशक्तिकरण को लेकर अंबेडकर की जुनूनी लड़ाई की शुरूआत साल 1942 में शोषित वर्ग की महिलाओं के एक सम्मेलन में देखने को मिली थी, जब उन्होंने कहा था, ‘किसी समुदाय की प्रगति महिलाओं की प्रगति से आंकी जाती है।’ उनके यही शब्द उन्हें नारीवाद का एक बड़ा नेता मानते है, जिसने जाति समस्या और महिला के अधिकारों को एक करके देखा| उनका मानना था कि महिलाओं की स्थिति इसलिए बदहाल है क्योंकि वे सब जाति-प्रथा के जाल में फंसी हुई है| आजादी मिल जाने के बाद भी चिंता इस बात की थी कि आधी आबादी का क्या होगा| देश में जहां संविधान को बनाने में तीन साल से ज्यादा का समय लग गया था, वही महिला अधिकारों के लिए लड़ाई अभी भी बाकी थी| भारत सामाजिक व्यवस्था के तौर पर पितृसत्तात्मक है| महिला का स्थान पुरूष से नीचे हैं|