कविता “ओझल” : दीपा साहु

मंजर ऐसा देखना भी अभी बाकी था,
इतनी सुंदर धरती पर,
लाशों को फेंकना अभी बाकी था।
तूफान,ज़लज़ला,बाढ़ की ,
नेमत क्या कम थी,
जो कोरोना का आना अभी बाकी था।
महामारी का प्रहार कैसा ये विकराल,
अवस्था बदलना बार बारअभीबाकी था।
नए रूप में नए ढंग से उम्मीद तोड़ता,
फिर से आ जाना इसका बाकी था।

काम बंद पगार बंद,
हो रहा हाहाकार जन,
इस पर बढ़ना महंगाई काअभी बाकी था
किसान रो रहा धरती रो रही, निर्ममता,
इस पर इंसानियत का भी,
ओझल होना बाकी था।
व्यापार कोरोना के नाम पर चल रहा,
दवाइयों का धांधल अभी बाकी था।
भूख से तड़प रहे, वन वन जन जन,
घर का रास्ता नापना अभी बाकी था।
लॉकडॉउन क्या हुआ शहरों शहरों,
गरीबी का और बढ़ना अभी बाकी था।
त्राह मची है धरती पर,
कब हो स्वाह इस कोरोना का।
इस उम्मीद से लड़ना अभी बाकी था।
“ओझल” न हो ये उम्मीद की किरण,
इस उम्मीद से बढ़ना अभी बाकी था।

नाम :- दीपा साहु
पता :- शिक्षक कॉलोनी तिल्दा नेवरा