अपने ही खोदे गड्ढे में गिर गया पाकिस्तान, तालिबानी शासन का पूरा एक साल

अफगानिस्तान में तालिबानी शासन की शुरुआत के दिन भला कौन भूल सकता है। विमान के ऊपर बैठे लोग और फिर आसमान से कागज की तरह गिरते अफगानी। वह दृश्य आज भी आंखों के आगे तैरने लगता है। 15 अगस्त 2021 तालिबान ने अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को सीज कर दिया था और आसानी से सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली थी। इसके बाद दाढ़ी वाले तालिाबनी लड़ाकों ने हाथों में राइफल थामकर, अपना ‘विजय जुलूस निकाला।’
अब अफगानिस्तान गरीबी, सूखा और कुपोषण जैसी गंभीर समस्याओं की चपेट में है। यहां की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है और लोगों के भूखों मरने की नौबत आ गई है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई देशों ने तालिबानी सरकार को मान्यता नहीं दी है। वहीं अफगानिस्तान में तालिबान का हावी होना पाकिस्तान की जीत और अमेरिका की हार के रूप में भी देखा जाता है।
तालिबानी सरकार में उसके अंदर के कई लोग साइडलाइन किए जा रहे हैं क्योंकि इसमें पाकिस्तान के कट्टरपंथियों ने अपनी जगह बना ली है और ये सब इस्लामाबाद के लिए जीने-मरने को तैयार रहते हैं। हालांकि पाकिस्तान को तालिबानी सरकार से जो उम्मीदें थीं वह नहीं पूरी हुई हैं बल्कि पाकिस्तान के लिए ही मुसीबतों का पहाड़ खड़ा हो गया है। पाकिस्तान में अफगानिस्तान से आने वाले शरणार्थियों का संकट है साथ ही यहां आतंकी गतिविधियां बढ़ गई हैं

वैसे तो पाकिस्तान आतंकवादियों का पनाहगाह है लेकिन अब इसके अंदर ही आतंकी गतिविधियां बढ़ गई हैं। पाकिस्तान में आतंकी घटनाओं में होने वाली मौतों की संख्या एक ही साल में 506 से 663 हो गई है। इसमें 31 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई है। 2022 में अब तक आतंकी घटनाओं में 230 लोग मारे जा चुके हैं। 2020 में आतंकी घटनाओं में 193 की मौत हुई थी। इसी तरह जैसे-जैसे आप पीछे जाएंगे मौतों का आंकड़ा कम मिलेगा।
पाकिस्तान की सरकार के लिए भी बड़ी चुनौती है। आतंकियों का बड़ा संगठन तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान आतंक से पाकिस्तान को दहलाकर सत्ता पर भी कब्जा करना चाहता है। पाक में ज्यादातर आतंकी घटनाओं के लिए यही संगठन जिम्मेदार माना जाता है। काबुल में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद टीटीपी के भी हौसले बुलंद है। अब अफगानिस्तान से आसानी से उसे अमेरिकी हथियार भी मिल जाते हैं।
अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच सीमा का विवाद कोई नया नहीं है। हालांकि बातचीत के जरिए तनाव कम किया गया था लेकिन अब फिर से सीमा पर तनाव पैदा हो गया है। 1893 में दोनों देशों के बीच 2670 किलोमीटर लंबी सीमा रेखा का निर्धारण हुआ था। अब अफगानिस्तान का कहा है कि यह आदिवासी समुदायों को बांट देती है जिसमें पश्तून शामिल हैं। वहीं 1947 में बने पाकिस्तान इस सीमा को नहीं मानता क्योंकि इसे ब्रिटिश सरकार ने बनाया था और उस वक्त यहां तक भारत की सीमा लगती थी। पाकिस्तान कई अजेंडे लेकर अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर उतरता है लेकिन उसे हमेशा निराशा ही हाथ लगती है। तालिबान की भी पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खूब वकालत की लेकिन अब भी तालिबान को बहुत सारे देशों ने मान्यता नहीं दी है। बहुत सारे देशों ने तालिबान से बात तो की लेकिन मान्यता देने से अंततः इनकार ही कर दिया।