सीरिया में ईरानी दूतावास के पास 1 अप्रैल को इजराइली सेना की एयरस्ट्राइक में ईरान के दो शीर्ष आर्मी कमांडरों समेत 13 लोग मारे गए थे। इसके बाद से ही इजराइल पर ईरान के हमले की आशंकाएं जताई जाने लगी थीं।
ईरान ने 12 दिन के बाद यानी 13 अप्रैल की रात को 300 से भी अधिक मिसाइलों के साथ इजरायल पर हमला बोल दिया। एक समय तो ऐसा लगा कि दुनिया एक और युद्ध के मुहाने पर पहुंच गई है। हालांकि, ऐसा कुछ नहीं हुआ। इसके बाद से स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में बनी हुई है।
रूस, चीन और कुछ हद तक भारत को छोड़कर ईरान हर प्रभावी देश या ब्लॉक के साथ उलझा हुआ है। दुनिया से ईरान के रिश्ते बिगड़ने की शुरुआत कैसे हुई? आज ईरान के किस देश के साथ कैसे रिश्ते हैं…
1979 से पहले ईरान के अमेरिका से लेकर इजराइल तक तमाम देशों के साथ रिश्ते बड़े मधुर हुआ करते थे। बदलाव आया 1979 से जब ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई। वहां 1926 से राज करने वाले पहलवी राजवंश को उखाड़ फेंका गया।
वहां राजवंश की जगह इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान का जन्म हुआ। सत्ता की असल ताकत इस क्रांति के अगुवा रहे धार्मिक नेता आयतुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी के हाथों में आ गई और उन्होंने सभी पश्चिमी देशों से संबंध समाप्त कर फिलिस्तीनियों के साथ खड़े होने की घोषणा कर दी।
लेबनान के हिजबुल्लाह, इराक के शिया मिलिशिया गुट, फिलिस्तीनियों के हमास और यमन के हूती समूहों को ईरान सालों से न केवल सैद्धांतिक तौर पर, बल्कि हथियारों से भी समर्थन देते आया है। ईरान इन समूहों के लिए एक तरह से संरक्षक का काम करता है। ये वे ग्रुप हैं जो अमेरिका, पश्चिमी देशों और इजराइल को अपने शत्रु के रूप में देखते हैं। इससे ईरान अपने आप इन तमाम देशों से कट जाता है।
सबसे ताकतवर ईसाई प्रभुत्व वाले अमेरिका और ब्रिटेन, मध्य पूर्व की धुरी रहे यहूदियों के देश इजराइल। मुस्लिम असर के हिसाब से सबसे अहम सऊदी अरब और मुस्लिम आबादी के हिसाब से विश्व के नंबर दो देश पाकिस्तान, यानी लगभग तमाम दिशाओं में मौजूद देशों के साथ ईरान के रिश्ते आउट ऑफ ट्रैक चल रहे हैं।
धार्मिक क्रांति के पहले ईरान अमेरिका का आर्थिक, प्रौद्योगिकी और सैन्य साझेदार था। ईरान को पहला परमाणु रिएक्टर भी अमेरिका ने ही दिया था। लेकिन पहले धार्मिक क्रांति और फिर नवंबर 1979 में ईरानी छात्रों के एक समूह द्वारा अमेरिकी दूतावास में कार्य करने वाले 52 डिप्लोमेट्स को बंदी बनाने की घटना ने दोनों देशों के बीच संबंध खत्म कर दिए।
अमेरिका ने 7 अप्रैल 1980 को ईरान के साथ तमाम संबंधों को समाप्त करने का औपचारिक ऐलान किया था। तब से ही दोनों के बीच कोई रिश्ते नहीं हैं। अमेरिका को ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर भी चिंता रही है और इसीलिए वह उस पर कई सालों से आर्थिक प्रतिबंध लगाए हुए हैं।
ईरान ऐसा दूसरा मुस्लिम देश था, जिसने इजराइल को मान्यता दी थी। लेकिन अप्रैल 1979 में आयतुल्लाह खुमैनी के ईरान वापस लौटते ही ईरान ने इजराइल के साथ सारे संबंध तोड़ लिए थे। हालांकि इसके बावजूद दोनों देशों के बीच संबंध इतने निचले स्तर पर नहीं आए थे।
यहां तक कि 1980 में इराक द्वारा ईरान पर किए गए अचानक हमले के बाद इजराइल ने कथित तौर पर ईरान की सैन्य और लॉजिक्टिक्स सहायता भी की थी। संबंध बिगड़ने शुरू हुए 1985 से।
साल 2006 के लेबनान युद्ध के बाद से दोनों के संबंध निचले स्तर पर पहुंच गए, जब ईरानी रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स पर आरोप लगे कि इजराइल पर हमले के लिए उसने हिजबुल्लाह को सीधे मदद दी। इसके बाद से ही दोनों एक-दूसरे के खिलाफ प्रॉक्सी वॉर में व्यस्त हैं।
ईरान और सऊदी अरब दोनों करीब 45 साल से एक-दूसरे के धुर विरोधी रहे हैं। दोनों मध्य पूर्व में क्षेत्रीय ताकत हैं। एक-दूसरे के पड़ोसी इन दोनों देशों में क्षेत्रीय प्रभुत्व की लड़ाई तो है ही, धार्मिक मतभेद भी इनमें संघर्ष को बढ़ाता है। इनमें आपसी संघर्ष की जड़ में ईरान की इस्लामिक क्रांति है।
1979 से पहले तक सऊदी अरब खुद को मुस्लिम जगत का नेता मानता था, लेकिन इस क्रांति से उसे चुनौती मिलने लगी। अरब देशों में 2010 के दशक में हुए आंदोलनों के कारण पैदा हुई राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाते हुए ईरान और सऊदी अरब दोनों ने सीरिया, बहरीन और यमन जैसे देशों पर अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की।
मुस्लिम आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश पाकिस्तान के साथ भी ईरान के रिश्ते बीते एक दशक से उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। 2012 में पाकिस्तान में जैश-अल-अदल गठित हुआ था। इसे ईरान आतंकी संगठन मानता है। यह ईरान में रहने वाले अल्पसंख्यक सुन्नियों के हक में आवाज उठाने का दावा करता है।
यह 2013 से ही ईरानी सीमा सुरक्षा बलों को निशाना बनाते आ रहा है। ईरान में 95% शिया रहते हैं, जिन पर वहां के अल्पसंख्यक सुन्नियों के साथ भेदभाव करने के आरोप पाकिस्तानी सुन्नी संगठन लगाते आए हैं। उधर ईरान का आरोप है कि इन संगठनों को पाकिस्तानी सेना से भी मदद मिलती है।
ईरान के यूरोपीय देशों के साथ भी संबंध असामान्य हैं। मानवाधिकारों को लेकर ईरान का ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। यूरोपीय संघ ने सबसे पहले 2011 में ईरान में इन्हीं गंभीर मानवाधिकारों के उल्लंघन की वजह से उसके खिलाफ प्रतिबंध लगाए थे। तब से इन उपायों को हर साल बढ़ाया जाता रहा है।
इससे पहले यूक्रेन पर रूसी हमले को ईरान द्वारा उचित ठहराने पर भी यूरोपीय संघ ने ईरान के खिलाफ कई तरह के आर्थिक प्रतिबंध लगाए थे। अब यूरोपीय संघ से अलग हो चुके ब्रिटेन ने भी 13 अप्रैल के ताजे हमले पर नाराजगी जताते हुए ईरान के खिलाफ व्यापारिक प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है।