देश के लोकतांत्रिक इतिहास में अब तक गठित हुई 16 लोकसभाओं में 1962 में गठित तीसरी लोकसभा ने सबसे बुरे और त्रास भरे दिन देखे हैं. इस लोकसभा के कार्यकाल में देश ने अपनी सीमाओं पर पड़़ोसी देशों चीन और पाकिस्तान के दो-दो आक्रमणों का मुकाबला किया और अपने दो-दो प्रधानमंत्रियों को गंवाया.
अलबत्ता, इसी लोकसभा के कार्यकाल में इंदिरा गांधी के रूप में देश को उसकी पहली महिला प्रधानमंत्री भी मिली.
हां, तीसरी के बाद 11वीं लोकसभा ने भी तीन प्रधानमंत्रियों को शपथ लेते देखा. ये थे-अटल बिहारी वाजपेयी, हरदनहल्ली डोडेगौड़ा देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल.
साल 1962 में 16 से 25 फरवरी तक चले आम चुनाव के बाद तीसरी लोकसभा के गठन को कुछ ही महीने बीते थे कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पंचशील के सिद्धांत व ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ के नारे का मज़ाक उड़ाते हुए पड़ोसी चीन ने देश पर हमला कर दिया.
20 अक्टूबर, 1962 को अचानक हुए इस विश्वासघात ने देशवासियों के साथ लोकसभा को भी तिलमिलाकर रख दिया. प्रधानमंत्री की सलाह पर 26 अक्टूबर को राष्ट्रपति ने इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा की, तो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के समक्ष देश की अखंडता और देशवासियों की एकजुटता बनाए रखने की विकट चुनौती आ खड़ी हुई.
इतिहास गवाह है कि तब उन्होंने इस चुनौती का प्राणप्रण से मुकाबला किया. सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों ने अपने सारे मतभेद भुलाकर आक्रमणकारी पड़ोसी को सीमा से बाहर खदेड़ने के सरकार और सेना के सारे प्रयासों का साथ दिया.
इतना ही नहीं, लोकसभा ने कई कानूनों और काम करने के तरीकों में भी बदलाव किया ताकि दुश्मन के सामने उनके हाथ बंधे न रहें. सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि जब तक देश की एक इंच भूमि भी चीन के कब्जे में रहेगी, देशवासी चैन से नहीं बैठेंगे.
सत्ता पक्ष और विपक्ष में किसी और लोकसभा में किसी भी मसले पर ऐसी अद्भुत एकता देखने में नहीं आई.
यह और बात है कि सामरिक तैयारियों के अभाव में इस एकता के बावजूद देश को चीन द्वारा अपमानजनक शर्तों पर 20 नवंबर, 1962 को घोषित ऐसा एकतरफा युद्धविराम स्वीकार करना पड़ा, जिससे आभास होता था कि उसने युद्ध में विजय हासिल की है और भारत पराजित हुआ है.
इस पराजय के लिए व्यापक आलोचना के शिकार हुए तत्कालीन रक्षामंत्री कृष्णा मेनन को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा और नेहरू की ‘आधुनिक भारत के निर्माता’ की छवि को ऐसा ग्रहण लगा कि वे बीमार रहने लगे और अंततः 27 मई, 1964 को उनका निधन हो गया.
उनके स्थान पर लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो दूसरे पड़ोसी पाकिस्तान की कुटिलता ने अप्रैल, 1965 में देश पर एक और युद्ध थोप दिया.
पाकिस्तान ने सोचा था कि 1962 में चीन के हाथों पराजित भारत उसकी ओर से दिए गए ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ नाम के नए झटके को झेल नहीं पाएगा, लेकिन देश और उसकी संसद ने एक बार फिर अपनी अटूट संकल्प शक्ति का प्रदर्शन किया.
भारतीय सेनाओं के हाथों मुंह की खाने के बाद पाकिस्तान सोवियत संघ के ताशकंद में समझौते की मेज पर बैठा, जिसमें समझौते पर हस्ताक्षर के कुछ ही देर बाद 11 जनवरी, 1966 को वहीं नितांत संदेहास्पद परिस्थितियों में शास्त्री जी की इहलीला समाप्त हो गई.
देश और उसकी तीसरी लोकसभा के लिए यह नया सदमा था, जिसके थोड़े दिनों बाद उसकी पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने शपथ ली.
तीसरी लोकसभा को कई और ऐतिहासिक कारणों से भी याद किया जाता है. चुनकर आने वाले सांसदों में संख्या के लिहाज़ से पहली लोकसभा से ही चला आ रहा वकीलों का वर्चस्व इस लोकसभा में चुनकर आए किसानों के प्रतिनिधियों ने तोड़ दिया था.
अब वकील किसान प्रतिनिधियों के बाद दूसरी बड़ी ताकत बनकर रह गए थे. किसान नेताओं के अलावा कई इंजीनियर, तकनीकविद और औद्योगिक श्रमिक भी इस लोकसभा में चुनकर आए थे.
अलबत्ता, इस लोकसभा में विपक्ष की हालत बहुत पतली थी और किसी भी विपक्षी दल को 50 सीटें भी नहीं मिली थीं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 29 और भारतीय जनसंघ को 14 सीटें मिली थीं जबकि देश के राजनीतिक आकाश में नई-नई उदित हुई स्वतंत्र पार्टी ने 22 सीटें जीत ली थीं.
महाराजाओं, उद्योगपतियों और ज़मींदारों से भरी स्वतंत्र पार्टी में सी. राजगोपालाचारी, प्रोफेसर एनजी रंगा, केएम मुंशी और, एमआई मसानी आदि के नाम बड़े नेताओं में लिए जाते थे.
एक और खास बात यह कि इस लोकसभा में केवल तीन सांसद निर्विरोध चुनकर आ पाए थे, जबकि पहली लोकसभा में निर्विरोध चुने गए सांसदों की संख्या दस थी जो दूसरी लोकसभा में बढ़कर 12 हो गई थी. ये सब के सब कांग्रेसी थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)