ये हैं सुरेंद्र राजन। कई फिल्मों में आपने इन्हें देखा होगा। खासतौर पर महात्मा गांधी के रोल में। बापू के रोल के लिए पूरे बॉलीवुड में इनसे मुफीद कोई और कलाकार नहीं है। कद-काठी, चेहरा और यहां तक की आवाज भी कुछ-कुछ गांधी जी से मिलती जुलती है। यही कारण है इन्होंने कोई एक दर्जन बार बड़े पर्दे पर महात्मा गांधी को जिया है।
अब सुरेंद्र राजन फिल्मों में भले ही छोटे-मोटे रोल में दिखाई देते हैं लेकिन आलादर्जे के कलाकार और बेहद अलहदा इंसान हैं। ये एकमात्र एक्टर हैं जिन्हें फिल्में देखना बिलकुल पसंद नहीं है। खुद की फिल्में भी नहीं। 1970 के बाद सिर्फ दो फिल्में देखी हैं, वो भी लोगों ने जबरन दिखा दी। बड़े स्टारडम और बॉलीवुड की लैविश लाइफ से भी चिढ़ है। फिर भी फिल्मों में काम करते है क्योंकि इससे उनके दुनिया घूमने का खर्च निकल जाता है।
सुरेंद्र राजन, महज एक एक्टर नहीं है। दुनिया के जाने-माने वाइल्डलाइफ फोटोग्रॉफर्स में इनका नाम शुमार है। वर्ल्डक्लास पेंटर हैं। मूर्तिकला में भी माहिर हैं। मिजाज इतना फकीराना है कि कभी एक जगह नहीं ठहरते। घूमते रहते हैं। दुनिया के कोने-कोने में। अपने लिए कभी कुछ नहीं जुटाया। ना घर, ना गाड़ी, ना सुविधा के कोई सामान, यहां तक की घर भी नहीं बसाया। बस दुनिया घूमते हैं, लोगों से मिलते हैं।
सुरेंद्र राजन, कुछ दिन पहले अपनी एक फिल्म की शूटिंग के सिलसिले में भोपाल आए। हमने उनसे जिंदगी के इस सफर की सिलसिलेवार बात की। उन्होंने भी पूरे इत्मिनाम से अपनी कहानी हमें सुनाई।
मैं सुरेंद्र राजन। जन्म 1939 में मध्य प्रदेश के अजयगढ़, पन्ना जिले में हुआ। ये वो समय था जब देश रियासतों में बंटा था और अंग्रेजों की हुकूमत थी। मेरे दादा अजयगढ़ के जमींदार थे, उनके पास दो गांवों की जमींदारी थी। बचपन राजा-महाराजाओं को देखते गुजरा। उस समय अजयगढ़ के राजा पुण्यप्रताप सिंह मेरे पिता के करीबी थे। हमारा आना-जाना उनकी हवेली में लगा रहता था। राजा कोलकाता से पढ़े हुए थे और उनके पास साहित्य, आर्ट्स से जुड़ा काफी नॉलेज था।
उस समय फोटोग्राफी बहुत दूर की चीज मानी जाती थी। आम जनता के लिए ये एक काल्पनिक चीज थी, लेकिन राजा के पास फोटोग्राफी के लिए कैमरा, म्यूजिक सिस्टम और हर वो चीज थी, जो आमलोगों को उस समय देखने को भी नसीब नहीं होती थी। राजा जब भी फोटोग्राफी करते तो मुझे भी सिखाते। वहीं से मुझे फोटोग्राफी का हुनर आया।
जब देश आजाद हुआ तब मेरी स्कूलिंग चल रही थी। ये उस दौर की बात है जब रेडियो सिर्फ राजा के पैलेस में हुआ करता था और हमारे घर में। जब देश आजाद हुआ तो गांव के लोगों ने हमारे ही घर में भीड़ लगाकर आजादी की सुकून देने वाली खबर सुनी।
आजादी के बाद देश तरक्की की राह पर था। सरकार इंतजार में रहती थी कि कब एग्रीकल्चर कॉलेज से बच्चे निकलें और उन्हें नौकरी पर रखा जाए। इसलिए, पिता ने मेरा दाखिला रीवा के एग्रीकल्चर कॉलेज में करवाया। उन दिनों दिल्ली का प्रगति मैदान नया बना था, जहां एग्रीकल्चर का पहला एग्जीबिशन और फेयर था। कॉलेज की तरफ से वहां मुझे भेजा गया, वहां मेरी मुलाकात प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू से हुई।
बचपन से ही मुझे साइंस, आर्ट्स में रुचि रही और वो ड्राइंग में भी मैं माहिर था, लेकिन कभी उसे करियर बनाने का नहीं सोचा, क्योंकि उस जमाने में आर्ट्स को सिर्फ एक हॉबी की तरह देखा जाता था। जब मैं कॉलेज के फाइनल ईयर में था, तो उस समय एक इलस्ट्रेटर मैगजीन छपा करती थी, जिसमें हेनरी रूसो, जॉन मेरो जैसे बड़े पेंटर के बारे में आर्टिकल छपता था। आर्ट्स में दिलचस्पी थी तो उनके आर्टिकल पढ़कर समझ आया कि मुझे भी आर्टिस्ट बनना चाहिए। बाद में धर्मयुद्ध मैगजीन से सुधीर रंजन खसगीर के बारे में पता चला, जो पेंटर, मूर्तिकार थे और आर्ट्स कॉलेज, लखनऊ के प्रिंसिपल भी। तब पहली बार मुझे पता चला कि आर्ट्स कॉलेज जैसी भी कोई जगह होती है।
जब पिता के सामने आर्ट्स कॉलेज में दाखिला लेने की बात रखी तो वो हैरान रह गए। उन्होंने कहा कि हमने क्लर्क, टीजर, डॉक्टर देखे हैं, आर्टिस्ट क्या होता है? ये कोई काम नहीं होता। मैं जानता था कि पिता नहीं मानेंगे। मैं खुद आर्ट्स कॉलेज गया और अपने दाखिले की बात की। वहां पूछा गया कि किस सब्जेक्ट में एडमिशन लेना है। मुझे इसकी कोई जानकारी नहीं थी तो कहा सिर्फ आर्ट्स में।
जवाब मिला कि यहां 10 अलग-अलग सब्जेक्ट हैं, तुम्हें क्या सीखना है। पेंटिंग की जानकारी थी तो मैंने पेंटिंग को चुना, हालांकि बाद में पछतावा हुआ कि मुझे स्कल्पचर लेना चाहिए था। आर्ट्स कॉलेज में पढ़ते हुए कई बड़े अवॉर्ड मिले। मैं टीचर का पसंदीदा स्टूडेंट था। मैं पेंटिंग सब्जेक्ट बदलकर स्कल्पचर डिपार्टमेंट में जाना चाहता था, लेकिन टीचर ने कहा कि तुम्हें कॉलेज के हर सब्जेक्ट सीखने और हर डिपार्टमेंट में पढ़ने की इजाजत है।
पढ़ाई पूरी हुई तो मैं लखनऊ में ही रहना चाहता था, लेकिन टीचर ने कहा कि तुम इंटरनेशनल लेवल के आर्टिस्ट हो तुम्हें यहां समय बर्बाद करने की बजाय दिल्ली या मुंबई जैसे बड़े शहर में जाना चाहिए। मैं दिल्ली पहुंच गया। दोस्त की मदद से रहने की जगह मिल गई। दिल्ली में रहते हुए कई नेशनल और इंटरनेशनल एग्जीबिशन में हिस्सा लिया। पेंटिंग में तो माहिर था, लेकिन कला बेचने की हुनर मुझे नहीं आता था। मुझे लगता था सिर्फ आर्ट बनाते जाओ, लेकिन बाद में पता चला कि इसे बेचना भी होता है।
1983 के आसपाास की बात होगी, जब ये लगा कि मैं कला बेचकर एक जगह नहीं रह सकता। मैंने अपना सारा सामान लोगों में बांट दिया और लखनऊ छोड़ दिया। एक गाड़ी थी तो उसकी बैक सीट तोड़कर जो जगह निकली उसी में सामान रखकर निकल पड़ा। तब से लेकर आज तक कभी एक जगह नहीं रुका। दुनिया देखने के लिए शहर बदले और काम भी बदला। कभी पैसों की जरुरत पड़ी तो सर्वाइवल के लिए छोटे-मोटे काम किए। कभी खजुराहो उत्सव के डांस में हिस्सा लिया तो कभी दूसरे छोटे-मोटे काम किए।
बांधवगढ़ नेशनल पार्क में वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी करने के दौरान मेरे पास एक्टिविस्ट अरुंधति रॉय का कॉल आया। उस समय बीबीसी लंदन द्वारा उनकी कहानी पर इंग्लिश फिल्म बनाई जा रही थी। अरुंधति ने मुझे कॉल कर जगदीश जॉनसन का किरदार निभाने को कहा। पहले तो मैंने इनकार किया, लेकिन फिर उसकी जिद पर मान गया।
वो फिल्म बनी और उसे कई अवॉर्ड मिले। अखबार में खूब छपा कि सुरेंद्र जितने अच्छे पेंटर और वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर हैं, उतने ही अच्छे एक्टर भी हैं। जहां लोग एक बार स्क्रीन पर दिखने के लिए सालों तक संघर्ष करते थे, वहीं मैं अपनी फिल्म से ज्यादा खुश नहीं था। मेरे लिए ये एक मामूली काम था। एक मैगजीन में मेरी क्लीन शेव तस्वीर छपी तो लोगों ने मेरी तुलना गांधीजी से करना शुरू कर दी, क्योंकि मेरा लुक गांधी जी से खूब मिलता था।
मैं एक समय में NSD (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) का फोटोग्राफी डिपार्टमेंट हेड था। मेरा वामन केंद्रे नाम का एक स्टूडेंट था, जिसे आजादी की 50वीं वर्षगांठ में लाइव शो का असाइंमेंट मिला था। उसको गांधी जैसे दिखने वाले एक कलाकार की जरुरत थी। तब उसे मेरा ख्याल आया, लेकिन किसी के पास मेरा पता नहीं था। दिल्ली के NSD स्टूडेंट्स के बीच खबर फैलाई गई कि जिसे भी सुरेंद्र राजन मिलें, वो उन्हें मुंबई भेज दें। ये खबर मिलने पर मैं 15 दिनों के लिए मुंबई पहुंचे, लेकिन वहां एक के बाद एक इतना काम मिला कि 15 सालों तक मुंबई में ही रुकना पड़ा।
मेरा फिल्मों में कभी भी इंट्रेस्ट नहीं था, लेकिन काम मिल जाता था तो सर्वाइवल के लिए कर लेता था। जो थोड़े-बहुत पैसे मिल जाते थे, उससे दुनिया देखता था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि पेंटिंग, फोटोग्राफी और स्कल्पचर के लिए मुझे एक स्टूडियो, काफी जगह, कैनवास और बहुत सामान की जरुरत पड़ती थी, लेकिन एक्टिंग एक ऐसा काम था जिसमें आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता। कपड़े भी सेट पर ही मिलते थे और कोई मेहनत नहीं थी। कुछ समय बाद मुझे लगा कि सर्वाइवल के लिए यही सबसे आसान तरीका है। एक्टिंग के ही जरिए मेरा अलग-अलग शहरों में घूमना भी होता रहता था।
सर्वाइवल के लिए फिल्मों में जगह तो बना ली, लेकिन कभी इस पेशे से खास लगाव नहीं रहा। फिल्में साइन करते हुए भी कभी नहीं पूछा कि फिल्म का नाम क्या है? उसमें हीरो-हीरोइन कौन हैं? सेट पर जाता, अपना शॉट देता और निकल जाता। मुझे लगता है कि खुद को एक्टिंग करते देख संतुष्टि नहीं होगी और यही लगेगा कि कुछ बेहतर हो सकता था
मैं फिल्में नहीं देखता। 1970 के बाद से सिर्फ मुन्नाभाई MBBS देखी है, जो प्रोडक्शन के ही लोगों ने जबरदस्ती दिखा दी थी। वहीं दूसरी फिल्म लीजेंड ऑफ भगत सिंह है, जिसमें मैंने गांधी जी का रोल प्ले किया था।
अक्सर ऐसा होता है कि मेरे पास पैसे ज्यादा होते हैं, जरूरतें कम। जब किसी फिल्म में काम करने के ज्यादा पैसे मिल जाते हैं तो परेशान होता हूं कि बचे हुए पैसों का क्या करूं। तब वो बचे हुए पैसे जरुरतमंद लोगों को बांट देता हूं या विदेश घूम आता हूं
जिंदगी में कुछ नियम बनाए हैं। जैसे हर साल कुछ समय निकाल कर हिमालय जाता ही हूं। मुझे पहाड़ों से प्यार है। कुछ सालों पहले तय कर लिया था कि 75 साल के बाद हिमालय जाकर बस जाऊंगा। एक बार ऐसा किया भी लेकिन वहां का टेंप्रेचर और मौसम शरीर को सूट नहीं हुआ तो लौट आया। तबीयत बिगड़ने पर इलाज के लिए दिल्ली वापस आना पड़ा। इलाज के बाद उन्हें मुंबई में एक फिल्म मिल गई। उससे इतने पैसे मिले कि मोरिशस घूमने निकल गय
सुरेंद्र मॉरीशस में बसना चाहते था। उन्होंने वहां रहने का भी इंतजाम कर लिया था, लेकिन एक फिल्म के सिलसिले में भारत वापस आना पड़ा और उसके ठीक बाद कोरोना के चलते रिटर्न टिकट होने के बावजूद वापस मोरिशस नहीं जा सका।
कुछ समय पहले अपना इलाज करवाने साउथ गया था, वहां इतना अच्छा लगा कि वहीं बसने का इरादा कर लिया। वहां का मौसम, कल्चर और लोग काफी पसंद हैं। मुझे वहां की भाषा नहीं आती तो दिमाग पर कोई असर नहीं पड़ता। क्योंकि किसी की बात सुनकर आपके दिमाग पर जोर पड़ता है, लेकिन जब भाषा ही समझ नहीं आती तो दिमाग शांत रहता है।
सुरेंद्र राजन को फिल्मों से लगाव नहीं रहा, लेकिन फिर भी जब झिझकते हुए पूछा गया कि आपके दिल के करीब कौन सा रोल है, तो जवाब मिला, मैं फिल्में नहीं देखता। इसलिए मुझे नहीं पता कि मेरा काम कैसा है। जिन लोगों ने मेरा काम देखा है वो कहते हैं कि मैं अच्छा काम करता हूं। देखता तो शायद इसका सही जवाब दे पाता।
जब सुरेंद्र से घर और परिवार के बारे में पूछा गया तो जवाब मिला, ये संसार ही मेरा घर है और यहां रहने वाले लोग ही मेरा परिवार है। जिस शहर में जाता हूं वहां लोग जुड़ जाते हैं और वही लोग मेरा परिवार बनते जाते हैं। जैसे पक्षियों के लिए कोई सरहद नहीं होती, वैसे ही मैं किसी देश, राज्य और शहर को अलग नहीं समझता। मुझे आश्चर्य होता है कि लोग जाति, धर्म और देश की बात सोचते हैं, लेकिन मैं ये सब नहीं सोचता।