अब भी पाकिस्तान में ‘निशाने’ पर रहते मुसलमान

पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हज़ारा समुदाय के लिए 2021 की यह बेहद ग़मग़ीन शुरुआत थी. बलूचिस्तान प्रांत में सुन्नी चरमपंथी समूह इस्लामिक स्टेट ने हमला करके कोयले की खान में काम करने वाले 11 लोगों की हत्या कर दी.

3 जनवरी को हुई इस घटना की न केवल मीडिया और सोशल मीडिया पर निंदा की गई बल्कि इस घटना ने पाकिस्तान में हज़ारा मुसलमानों की स्थिति पर भी लोगों का ध्यान खींचा.

सुन्नी बहुल पाकिस्तान में अधिकतर शिया मुसलमानों में भी हज़ारा समुदाय ने लंबे समय से चरमपंथी समूहों के हमलों को झेला है और सरकार की ओर से उनकी उपेक्षा की गई है.

हालांकि, सरकार ने देश के इस अल्पसंख्यक समुदाय को फिर से आश्वस्त किया है कि वे पाकिस्तान में ‘बराबर के नागरिक’ हैं और उनको सुरक्षा देना सरकार का काम है.

कौन हैं हज़ारा?

हज़ारा समुदाय मध्य अफ़ग़ानिस्तान के हज़ाराजात क्षेत्र के मूल निवासी हैं. अफ़ग़ानिस्तान में अत्याचार के बाद 19वीं सदी में यह बलूचिस्तान प्रांत के क्वेटा शहर में आकर बस गए.

पांच लाख से अधिक हज़ारा पाकिस्तान में रहते हैं. इनमें से अभी अधिकतर बलूचिस्तान की राजधानी क्वेटा के आसपास रहते हैं और ये दशकों से अलगाववादी आंदोलन के गवाह रहे हैं.

हमले की क्या वजह रही

विशेषज्ञों का कहना है कि यह धर्म के कारण हुआ है.

शिया और सुन्नी मुसलमानों के मतभेद की मुख्य वजह पैग़ंबर मोहम्मद के उत्तराधिकारी को लेकर रहा है. इसके कारण दोनों संप्रदायों के बीच में तनाव एक आम बात है.

ऐसा माना जाता है कि शिया विरोधी भावनाएं पाकिस्तान में कट्टर सुन्नी आंदोलन के बाद बढ़नी शुरू हुईं और शिया समुदाय को ‘काफ़िर’ (विधर्मी) घोषित करने का पहला पर्चा 1981 में क्वेटा की दीवार पर चिपकाया गया.

इसके बाद हज़ारा समुदाय को निशाना बनाते हुए कई सालों तक हमले हुए. इनमें से अधिकतर हमलों की ज़िम्मेदारी लश्कर-ए-झांगवी ने ली.

2013 में अंग्रेज़ी अख़बार द एक्सप्रेस ट्रिब्यून में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, “हज़ारा समुदाय के ख़िलाफ़ बढ़ते हिंसा के मामले पूरे पाकिस्तान में सांप्रदायिक हिंसा के बढ़ते मामलों का ही हिस्सा हैं. इसकी वजह सुन्नी चरमपंथी समूहों का बढ़ना है जिनमें तालिबान भी शामिल है क्योंकि यह सभी अपनी ज़हरीली शिया विरोधी विचारधारा के हिसाब से काम करते हैं.”

2019 में पाकिस्तान के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि हज़ारा समुदाय ने देश के संप्रदाय विरोधी दंश को झेला है.

इसमें कहा गया, “हज़ारा 1999 से लगातार आतंकियों और धार्मिक कट्टरपंथियों का निशाना बनते रहे हैं, इनमें आत्मघाती हमले और निशाना बनाकर की गई हत्याएं शामिल हैं.”

हज़ारा समुदाय के सदस्य और मानवाधिकार कार्यकर्ता सज्जाद चंगेज़ी बीबीसी मॉनिटरिंग से कहते हैं, “हज़ारा को पाकिस्तान के नीति निर्माताओं के कारण भी नुक़सान हुआ है जिन्होंने चरमपंथी समूहों को ‘अच्छा तालिबान’ समझकर बर्दाश्त किया और उन्हें चुनौती नहीं दी. धार्मिक समूह खुले तौर पर नफ़रती भाषणों में शामिल रहे हैं. एक बार एहले सुन्नत (सुन्नी समूह) ने खुले तौर पर क्वेटा में हज़ारा समुदाय के ख़िलाफ़ अभियान चलाया था.”

हज़ारा लंबे समय से पाकिस्तानी सेना से लश्कर-ए-झांगवी के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करते रहे हैं. सेना ने वादा किया था कि वह समुदाय को सुरक्षा देगी और 2018 में लश्कर-ए-झांगवी का एक शीर्ष चरमपंथी मारा गया था.

पाकिस्तान अक्सर भारत पर देश में सांप्रदायिक अस्थिरता फैलाने का आरोप लगाता रहा है.

ताज़ा घटना पर प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने कहा था कि देश की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने पाया है कि पाकिस्तान में ‘सांप्रदायिकता भड़काने’ के लिए भारत इस्लामिक स्टेट का समर्थन कर रहा है.

ज़िंदा रहने की जद्दोजहदहज़ारा अपनी सुरक्षा को लेकर डरे रहते हैं

अधिकतर हज़ारा बलूचिस्तान में रहते हैं जो देश का सबसे कम विकसित प्रांत है. इस क्षेत्र में भारी मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों के भंडार हैं और इस हिस्से में चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर (सीपीईसी) भी पड़ता है.

द न्यूज़ दैनिक अख़बार ने 30 दिसंबर को एक लेख प्रकाशित किया जिसमें लिखा था, “बलूचिस्तान में ऐसी आम भावना है कि प्रांत के कोयले और गैस के भंडार का केंद्र (संघीय सरकार) और दूसरे प्रांत दोहन कर रहे हैं और ख़ुद बलूचिस्तान को अपने संसाधन कम मात्रा में मिल रहे हैं.”

सुरक्षा को लेकर ख़तरा काम और शिक्षा को भी प्रभावित करता है.

एक अंतरराष्ट्रीय ग़ैर सरकारी संगठन माइनॉरिटी राइट्स ग्रुप इंटरनैशनल फ़ीचर्स की वेबसाइट पर ‘ए शहीदों तुम कहां हो’ नामक डॉक्यूमेंट्री मौजूद है, जो कि इस प्रांत में एक युवा हज़ारा लड़की की कहानी है. वो अपनी मां से कहती है कि परीक्षा केंद्र अगर काफ़ी दूर है तो वो वहां उन्हें न लेकर जाए.

लड़की कहती है, “जब तक हम घर लौटकर आते हैं हमारी माताएं हमारी ज़िंदगी के लिए परेशान रहती हैं.”

राजनीतिक परिदृश्य में कुल मिलाकर शिया समुदाय की बहुत सीमित नुमाइंदगी है.

द नेशन दैनिक अख़बार में 10 जनवरी को लिखा गया, “पाकिस्तान की कुल आबादी में शिया 20 फ़ीसदी हैं और राष्ट्रीय और प्रांतीय एसेंबली में इनकी बहुत कम मौजूदगी है.”

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार का अल्पसंख्यकों को लेकर नज़रिया बहुसंख्यक सुन्नी आबादी से प्रभावित है.

क्वेटा के मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर जावेद सलीम बीबीसी मॉनिटरिंग से कहते हैं, “सुन्नी संगठनों और जिहादी समूहों के बीच गठबंधन को रणनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण समझा जाता है.”

ताज़ा हमले पर क्या प्रतिक्रिया आई

जनवरी में मारे गए लोगों के परिजनों ने तब तक शवों को दफ़नाने से मना कर दिया था जब तक कि इमरान ख़ान उनसे मिलने न आएं.

कई दिनों तक इसको लेकर विरोध प्रदर्शन चलता रहा और सोशल मीडिया पर इमरान ख़ान की आलोचना होने लगी. सोशल मीडिया पर कई दिनों तक ‘हज़ारा लाइव्स मैटर’ और ‘हज़ारा शिया वॉन्ट्स जस्टिस’ ट्रेंड करता रहा.

आख़िरकार 9 जनवरी को क्वेटा शहर में प्रधानमंत्री ने प्रदर्शन स्थल का दौरा किया और भरोसा दिलाया कि सरकार उनको सुरक्षा देगी.

इससे पहले गृह मंत्री शेख़ राशिद ने कहा था कि इस घटना में शामिल रहे ‘तत्वों’ को ‘बख़्शा नहीं जाएगा.’ वो पहले केंद्रीय मंत्री थे जो प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद क्वेटा के दौरे पर गए थे.

राशिद के दौरे के बाद सरकार ने बलूचिस्तान के गृह मंत्री के नेतृत्व में इन हत्याओं की जांच के लिए उच्च स्तरीय कमिटी का गठन किया. मारे गए लोगों के परिजनों को मुआवज़े और नौकरी देने का वायदा भी किया गया.

हालांकि, सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि हज़ारा को निशाना बनाना बंद करने के लिए बहुत कुछ किए जाने की ज़रूरत है.

चंगेज़ी बीबीसी मॉनिटरिंग से कहते हैं, “बलोच लोग एक अलग प्रांत चाहते हैं लेकिन हमने कभी उसकी मांग नहीं की. हम गैस, सोने या सीपीईसी में हिस्सेदारी नहीं चाहते हैं. हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे और मर्द सुबह को स्कूल और काम पर जा सकें और रात में घर लौट सकें. हम जीने का अधिकार चाहते हैं.”