9 जुलाई 1938 को संजीव कुमार का जन्म सूरत के एक गुजराती परिवार में हुआ था। 25 साल के एक्टिंग करियर में उन्होंने 30 फिल्मों में काम किया। हालांकि फिल्म इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी।
फिल्मों के जैसे ही उन्होंने जीवन के हर मोड़ पर खुद को साबित किया। पिता के गुजर जाने के बाद मां ने गहने बेच कर उनका दाखिला एक्टिंग स्कूल में कराया। जैसे-तैसे लंबे संघर्ष के बाद उन्हें फिल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने का मौका मिला लेकिन दूसरी फिल्म पाने के लिए उन्हें दर-दर की खानी पड़ी।
नाटकों में अपने अभिनय की गहरा छाप छोड़ने के कारण संजीव कुमार को ऐसी पाॅपुलैरिटी ऐसी थी कि मौत के बाद भी उनकी 10 से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई। वहीं उनके परिवार में सभी मर्दों की मौत 50 साल से पहले ही हो जाती थी। वजह क्या थी, इसका कभी खुलासा नहीं हुआ।
संजीव कुमार का जन्म 9 जुलाई 1938 को सूरत के एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ था। फिल्मों में आने से पहले उनका नाम हरिहर जरीवाला था। उनके पिता जी कृष्ण भगवान के बहुत बड़े भक्त थे इसलिए बेटे का नाम रख दिया हरिहर जरीवाला। संजीव कुमार के बारे में जानने पहले थोड़ा उनके पिता जेठालाल के बारे में जान लेते हैं।
संजीव कुमार की मां से शादी करने से पहले उनके पिता जेठालाल ने दो और शादियां की थीं। पहली और दूसरी पत्नी की मौत शादी के कुछ सालों बाद ही हो गई। इसके बाद जेठालाल गुजरात से मुंबई आ गए और यहां पर भी अपनी जरी की कढ़ाई के कारोबार को खूब बढ़ाया। साथ ही मुंबई एक आलीशान फ्लैट भी ले लिया। उसके बाद जेठालाल के परिवार ने उन पर ये दबाव डालना शुरू किया कि वो फिर से शादी कर लें। ना चाहते हुए भी घरवालों की जिद के कारण जेठालाल ने शांता बेन से शादी की। शादी के 5 साल बाद शांता ने एक बेटे को जन्म दिया, जिसका नाम रखा गया संजीव कुमार जरीवाला। संजीव कुमार के बाद उनके 2 भाई और हुए।
सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि साल 1949 को जेठालाल की हार्ट अटैक से मौत हो गई। उस समय संजीव कुमार सिर्फ 11 साल के थे और मौत के समय जेठालाल की उम्र 47 साल थी। पति के जाने के बाद शांता पूरी तरह से टूट गईं। स्वभाव से शांत और नासमझ होने की वजह से जेठालाल के भाई और उनके बिजनेस पार्टनर ने सपंत्ति का ज्यादा हिस्सा शांता से अपने नाम करवा लिया। पति के गम से अभी शांता उबरी ही नहीं थीं कि उन्हें इस दुख का भी सामना करना पड़ा। शांता ने जिससे भी मदद मांगी सब ही ने मना कर दिया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। गरीबी का आलम ऐसा था कि वो संजीव कुमार को अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ा सकती थीं, इसलिए उनका दाखिला एक सरकारी हिंदी मीडियम स्कूल में करा दिया।शांता बेन के पास 2 कमरे ही थे, इसी वजह से घर का खर्च चलाने के लिए उन्होंने एक कमरा किराए पर उठा दिया। साथ ही फिर से उन्होंने पुराने कारीगरों से मिलकर जरी का काम करना शुरु किया। रोज मां को काम करता देख संजीव कुमार भी मां का हाथ बटाना चाहते थे, लेकिन शांता बेन चाहती थीं कि वो सिर्फ अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें। मां के मना करने के बावजूद स्कूल से आने के बाद संजीव कुमार मां का हाथ बटाते थे और उनका काम होता था डाक घर तक जरी का पार्सल पहुंचाना। छोटा घर होने की वजह से संजीव कुमार पढ़ाई नहीं कर पाते। उनकी ये परेशानी देखकर स्कूल वालों ने स्कूल में ही उन्हें पढ़ने की जगह दे दी।
स्कूल के एक टीचर थे टी ट्वाला, जो संजीव कुमार को नाट्य शास्त्र पढ़ाते थे। उन्हीं से संजीव कुमार ने नाटक की शिक्षा ली। नाटक के साथ संजीव कुमार को सिनेमा से भी खास लगाव था। पढ़ाई के दौरान ही फिल्म बैजू बावरा रिलीज हुई थी, जिसे देखने के बाद संजीव कुमार पर फिल्मों का भूत सवार हो गया। जब ये बात मां को पता चली तो उनको डर सताने लगा कि संजीव कुमार आगे चलकर एक्टिंग में अपना भविष्य खराब कर लेंगे। इसी डर की वजह से मां ने सोचा कि अगर संजीव कुमार की वो शादी करा देंगी तो अपनी जिम्मेदारी समझेंगे और जीवन का गुजारा करने के लिए अच्छी नौकरी करेंगे। मां के इस फैसले की वजह से 16 साल के संजीव कुमार की एक गुजराती लड़की के साथ सगाई कराई गई, लेकिन ये सिर्फ सगाई ही रही और शादी में कभी भी तब्दील नहीं हुई।
इस घटना के कुछ समय बाद संजीव कुमार ने एक्टिंग स्कूल में दाखिला लेने के बारे में सोचा। उस समय फेमस डायरेक्टर शशधर का एक्टिंग स्कूल फिल्मालय हुआ करता था। संजीव कुमार ने भी यहीं पढ़ाई करने का मन तो बना लिया पर उन्हें जब एडमिशन फीस के बारे में पता चला तो वो बेहद निराश हो गए और घर आकर दुखी मन से बिना खाए सो गए।
मां उन्हें देखते ही समझ गई कि ये किसी बात से परेशान है। मां ने परेशानी का कारण पूछा और जब पता चला कि पैसे की वजह से उनका एडमिशन नहीं हो सकता, तब मां ने कहा कि तुम मेरे गहनों को बेच दो और उससे जो पैसे आएं उससे अपना एडमिशन कर लो। पहले तो संजीव कुमार गहने बेचने के लिए नहीं तैयार थे पर उन्हें मां की जिद के आगे उन्हें झुकना पड़ा और अंत में उन्हीं गहनों के पैसे से संजीव कुमार का एडमिशन फिल्मालय में हुआ।
कपड़ों की वजह से फिल्मों के ऑफर नहीं मिले
स्कूल में दाखिला लेने के बाद उन्होंने सभी को अपनी एक्टिंग का दीवाना बना दिया। वहां पर उनकी दोस्ती मैकमोहन से हुई। फिल्मालय का सफर तय करने के बाद, संजीव कुमार ईप्टा गए और वहां उनकी मुलाकात ए.के. हंगल से हुई। संजीव कुमार से ए.के. हंगल बहुत प्रभावित हुए पर जब उन्होंने संजीव कुमार को सफेद कुर्ता- पजामा और चप्पल में देखा तो सोचा कि ये आदमी एक्टर तो कभी नहीं बनेगा। इसी वजह उन्होंने संजीव कुमार के काम मांगने की गुजारिश को ये कहकर टाल दिया कि जब भी मेरे पास कोई अच्छा रोल आएगा, मैं तुम्हें बता दूंगा।
संजीव कुमार को उनके मना करने की वजह बिल्कुल नहीं पता थी, इसलिए वो रोज ए.के.हंगल के पास जाते और उनकी कही हुई बात उनको याद दिलाते। इसी दौरान उनकी मुलाकात एक डायरेक्टर से हुई और उन्होंने संजीव कुमार के सामने उनके नाटक में काम करने का प्रस्ताव रखा।
काम की अधिक जरूरत की वजह से संजीव कुमार उनके नाटक मजमा में काम करने को राजी भी हो गए। जब ए.के.हंगल ने नाटक में संजीव कुमार का काम देखा तो चौंक गए और ये सोचने लगे कि उन्होंने उनको काम ना देकर गलत किया है।नाटकों में अपने अभिनय की गहरी छाप छोड़ने के कारण संजीव कुमार को बहुत पाॅपुलैरिटी मिली और उनके बहुत सारे चाहने वाले भी हुए। उनके ऐसे ही चाहने वाले थे जमनादास। संजीव कुमार के नाटक के कपड़े जमनादास उन तक पहुंचाते थे। एक दिन संजीव कुमार से मिलकर जमनादास बोले कि मैं आपका सेक्रेटरी बनना चाहता हूं। मुझे पता है कि आप अभी मुझे मेरी फीस नहीं दे पाएंगे, लेकिन जब आपकी आमदनी अच्छी हो जाएगी, आप तब मुझे मेरी फीस दे दीजिएगा। इस तरह संजीव कुमार पहले ऐसे एक्टर बने जिनके पास फिल्मों में आने से पहले ही सेक्रेटरी था।थिएटर में काम करने के दौरान ही संजीव कुमार को फिल्म हम हिंदुस्तानी में काम करने का मौका मिला। 12 रुपए प्रति शिफ्ट के साथ उन्होंने इस फिल्म में काम किया और इस फिल्म में उनका कोई भी डायलॉग भी नहीं था। फिल्म से जो भी कमाई हुई, उन्होंने अपनी मां को दे दी। फिल्म जब रिलीज हुई तो मां भी उनके साथ गईं। मां ने फिल्म देखी, मगर संजीव कुमार का छोटा रोल देखकर वो दुखी हो गईं।
फिल्म हम हिंदुस्तानी रिलीज होने से पहले लोगों का मत इस बात पर था कि हरिहर को अपना नाम बदल लेना चाहिए, क्योंकि फिल्मों के हिसाब से उनका नाम सही नहीं है। इस बात पर विचार करने के बाद हरिहर ने सोचा कि उनकी मां का नाम शांता है तो उन्हें अपना नाम बदलकर ‘स’ से ही रखना चाहिए। इसके बाद उन्होंने अपना नाम संजय कुमार रख लिया। शुरुआती कुछ फिल्मों में उनका नाम संजय कुमार ही रखा, लेकिन एक फिल्म में वो संजय खान के साथ दिखाई देने वाले थे। एक फिल्म में दो सितारों का एक ही नाम होने पर लोगों ने कहा कि फिर से संजय को अपना नाम बदल लेना चाहिए और इसी के बाद उनका नाम पड़ा संजीव कुमार।इस फिल्म के बाद संजीव कुमार को कोई और दूसरी फिल्म नहीं मिली और फिल्म मांगने के लिए वो डायरेक्टर्स और प्रोड्यूसर्स के घर के चक्कर लगाने लगे। बहरहाल निराशा ही हाथ लगी। इसके साथ ही उनके साथ एक ऐसा हादसा हुआ कि उनका दिल ही टूट गया। दरअसल, उस समय एक फिल्म रिलीज हुई थी अकेली मत जाइयो, जिसके निर्माता थे नंद लाल शाह।
ये फिल्म हिट हुई जिसके बाद वो अपनी अगली फिल्म के लिए कुछ कलाकारों की तलाश कर रहे थे, जब उन्होंने संजीव कुमार को देखा तो कहा कि तुम अपनी फोटो पर अपना नंबर और पता लिख कर मेरे ऑफिस में छोड़ दो। तुम्हारे लायक काम देखकर तुमको बुला लिया जाएगा। इधर संजीव कुमार के मन में उम्मीद जग गई कि उन्हें जिस फिल्मी ब्रेक का इंतजार है, वो मिलने ही वाला है। जब अगले दिन डायरेक्टर की तरफ से कोई जवाब नहीं आया तो संजीव कुमार खुद उनके ऑफिस पहुंच गए, लेकिन उन्होंने जो देखा, वो उससे पूरी तरह से टूट गए। उन्होंने देखा कि उनकी फोटो बाहर एक डस्टबिन में पड़ी थी। ये देखकर वो बेहद निराश हो गए और प्रण लिया कि वो इस डायरेक्टर के साथ फिल्म नहीं करेंगे।
इसके बाद भी उनको 2-3 फिल्में मिलने वाली थीं, पर अंत में वो भी उनको नहीं मिलीं। इसी वजह से उन्होंने बी ग्रेड की फिल्मों को साइन करना शुरू किया। बी ग्रेड फिल्मों में काम करने के कुछ साल बाद संजीव कुमार को बड़ी सफलता मिली फिल्म संघर्ष में, जिसमें वो दिलीप कुमार के साथ नजर आए और इसी फिल्म के बाद से उनके ऊपर से बी ग्रेड फिल्में करने का ठप्पा भी हट गया।
7 मई 1974 में एक फिल्म रिलीज हुई थी, नाम था नया दिन नई रात। इस फिल्म में संजीव कुमार के अलावा जया भादुड़ी, वी. गोपाल, दिलीप दत्त भी थे। फिल्म में संजीव कुमार ने नौ रोल किए थे। इस फिल्म में उन्होंने लूले-लंगड़े, अंधे, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, किन्नर, डाकू, जवान और प्रोफेसर का रोल निभाया था। ये फिल्म 1964 की शिवाजी गणेशन की फिल्म नवरात्रि का रीमेक थी।संजीव कुमार उम्रदराज व्यक्ति के रोल्स के लिए जाने जाते थे और शोले फिल्म में उनका ठाकुर का रोल भला कौन भूल सकता है। लेकिन आपको क्या पता है कि ठाकुर का ये रोल धर्मेंद्र करना चाहते थे। धर्मेंद्र की इस ख्वाहिश से फिल्म डायरेक्टर रमेश सिप्पी धर्म संकट में पड़ गए, लेकिन डायरेक्टर सिप्पी के एक ट्रिक ने ठाकुर का रोल संजीव की झोली में डाल दिया। दरअसल, डायरेक्टर ने धर्मेंद्र से कहा कि अगर तुम वीरू का रोल करोगे तो तुम्हारा स्क्रीन टाइम हेमा मालिनी के साथ ज्यादा रहेगा, वरना ये रोल संजीव को ही देना पड़ेगा। हेमा मालिनी के साथ ज्यादा स्क्रीन शेयर करने के खातिर धर्मेंद्र वीरू के रोल के लिए मान गए। ठाकुर के रोल की वजह से संजीव कुमार को आज तक याद किया जाता है।
6 नवंबर 1985 को संजीव कुमार की मौत हो गई थी। मौत के बाद उनकी 10 से ज्यादा फिल्में रिलीज हुई थीं और कुछ की शूटिंग भी बाकी रह गई थी। 1993 में संजीव कुमार की अंतिम फिल्म प्रोफेसर की पड़ोसन रिलीज हुई थी।