बॉलीवुड फिल्मों में बढ़ती वल्गैरिटी देख मनीष शाह को ख्याल आया। उन्होंने टीवी ऑडियंस को ध्यान में रखते हुए साउथ फिल्मों की डबिंग शुरू की। यह 2007 की बात है। उन्होंने पहली बार नागार्जुन की फिल्म ‘मास’ के राइट्स 5 लाख रुपए में खरीदे। इसके बाद से ये सिलसिला अभी तक चला आ रहा है।
आज साउथ इंडियन फिल्मों की हिंदी पट्टी क्षेत्रों में लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है। साउथ इंडियन फिल्मों के हिंदी डब वर्जन कमाई के मामले में बॉलीवुड फिल्मों को भी पछाड़ रहे हैं। हालांकि आपने कभी सोचा है कि तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम में बनी फिल्मों को हिंदी ऑडियंस तक कौन पहुंचा रहा है? हम बताते हैं…वो शख्स हैं गोल्डमाइंस टेलीफिल्म्स के मालिक मनीष शाह।
मनीष शाह साउथ की 80% फिल्मों को हिंदी में डब करके यहां की ऑडियंस तक पहुंचाते हैं। मनीष शाह ने इसकी शुरुआत 2007 में नागार्जुन की फिल्म ‘मास’ से की थी। इस फिल्म को उन्होंने हिंदी में डब कराया और इसका नाम ‘मेरी जंग- वन मैन आर्मी’ रखा। यह फिल्म टेलीविजन पर बहुत बड़ी हिट हुई। आज भी टीवी पर यह मूवी आती रहती है।
उत्तर भारत में अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा की कामयाबी के पीछे भी मनीष शाह का ही हाथ है। उन्होंने ही इस फिल्म का हिंदी वर्जन निकाला है। फिल्म के डायलॉग्स से लेकर एक-एक पंचलाइन्स के पीछे मनीष शाह का ही दिमाग था।
मनीष ने 2007 में गोल्डमाइंस टेलीफिल्म्स की शुरुआत की। उस वक्त इसकी वैल्यू 5 करोड़ रुपए थी। आज 2023 में कंपनी की वैल्यू 6 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गई है। आज रील टू रियल में हम गोल्डमाइंस टेलीफिल्म्स और इसके फाउंडर मनीष शाह की कहानी जानेंगे।
साउथ की फिल्मों को हिंदी ऑडियंस तक लाने की उनकी सोच क्या थी। इन फिल्मों को डब करने में क्या चुनौतियां आती हैं। फिल्म के राइट्स खरीदने से लेकर इसे डब करने तक का खर्च कितना आता है, हम इन सभी बिंदुओं को सिलसिलेवार समझेंगे।
हम मुंबई स्थित गोल्डमाइंस स्टूडियो के ऑफिस भी पहुंचे। वहां फिल्मों की डबिंग कैसे होती है। इसकी पूरी प्रक्रिया समझने के लिए हमने वहां मौजूद कई स्टाफ से बात भी की।
बॉलीवुड में एक्शन फिल्में बननी बंद हुईं तो साउथ की फिल्में यहां लेकर आए
आपके दिमाग में साउथ की फिल्मों को हिंदी में डब करने का ख्याल कहां से आया? जवाब में मनीष ने कहा, ‘2007 में मल्टीप्लेक्स की संख्या बढ़ने लगी। इससे पहले सिंगल स्क्रीन थिएटर्स ज्यादातर संख्या में होते थे।
बॉलीवुड में तब एक्शन फिल्में बननी बंद हो गई थीं। मेकर्स ज्यादातर कॉमेडी और फैमिली ड्रामा फिल्में बनाने लगे। साउथ में एक्शन फिल्में तब भी बन रही थीं। मैंने सोचा कि हिंदी ऑडियंस को उन फिल्मों की फील कैसे दिलाई जाए। तभी मेरे दिमाग में साउथ की अच्छी एक्शन फिल्मों को हिंदी में डब करने का ख्याल आया।’
मनीष शाह ने आगे कहा, ‘2007 के बाद हिंदी फिल्मों में वल्गर सीन्स काफी बढ़ने लगे। कंटेंट बहुत ज्यादा बोल्ड होने लगे। घर पर बैठकर टीवी देखने वाली ऑडियंस के लिए मुश्किल होने लगा।
साउथ की फिल्मों में वल्गर सीन्स नहीं होते थे। इन फिल्मों को देख कर चैनल बदलने की जरूरत नहीं थी। यही सोचकर मैंने साउथ की फिल्मों को हिंदी भाषा में लोगों तक पहुंचाने का जिम्मा उठाया। दर्शक इन फिल्मों को पसंद भी करने लगे।’
आपने नागार्जुन की फिल्म मास (मेरी जंग) को सबसे पहले हिंदी में डब कराया था। इससे पीछे की कहानी बताइए। मनीष ने कहा, ‘नागार्जुन ने कुछ हिंदी फिल्मों में काम किया था। यहां की ऑडियंस उन्हें थोड़ा बहुत पहचानती थी। उनकी फिल्म ‘मास’ (2004) साउथ में बहुत बड़ी हिट हुई थी।
मैंने सोचा कि फिल्म का एक्शन नॉर्थ की ऑडियंस को भी जरूर पसंद आएगा। मैंने उसे हिंदी में डब कराया और फिल्म का नाम ‘मेरी जंग-वन मैन आर्मी’ रखा। हमारा यह प्रयास बहुत सफल हुआ। यह फिल्म टेलीविजन पर बहुत बड़ी हिट हुई।
उस वक्त तक नॉर्थ के लोग सिर्फ चार ही साउथ एक्टर्स को जानते थे। रजनीकांत, कमल हसन, चिरंजीवी और नागार्जुन। हमने इसलिए पहले इन्हीं चारों एक्टर्स की फिल्मों को डब करना शुरू किया।’
मनीष ने बताया कि जब वो साउथ के मेकर्स के पास फिल्म ‘मास’ के राइट खरीदने गए तो वहां सभी लोग चौंक गए। वे सोच में पड़ गए कि मनीष शाह इन राइट्स का करेंगे क्या। उन्होंने मनीष को 5 लाख रुपए में फिल्म के राइट्स बेच दिए इसके बाद मनीष सोनी चैनल के पास फिल्म लेकर गए।
चैनल वाले असमंजस की स्थिति में थे। उन्हें डर था कि फिल्म चलेगी भी या नहीं। इसी वजह से मनीष को कम दाम में नुकसान सहते हुए फिल्म बेचनी पड़ी। हालांकि फिल्म ने गजब की टीआरपी दी। चैनल वालों का इसमें बहुत फायदा हुआ।
तेलुगु, तमिल या अन्य भाषाओं की फिल्मों को हिंदी में डब करते वक्त क्या ध्यान देते हैं.. क्या सीन भी बदले जाते हैं? जवाब में मनीष कहते हैं, ‘सबसे पहले ओरिजिनल फिल्म सब टाइटिल के साथ देखता हूं। फिर डायरेक्टर और एक्टर की प्रोफाइल चेक करता हूं। फिल्म का एक्शन और कॉमेडी देखता हूं। अगर ये सभी चीजें सही रहीं तो फिर इसके डबिंग पर काम करता हूं।
इस दौरान एक-दो चीजों पर ध्यान देना पड़ता है। साउथ और नॉर्थ के कल्चर में काफी ज्यादा फर्क है। साउथ की फिल्मों में कजिन से शादी करना दिखाते हैं। जबकि यहां वो चीज नहीं है। दक्षिण भारत में लड़कियों के पहले पीरियड के वक्त सेलिब्रेशन होता है। जबकि यहां ऐसा कुछ नहीं है। यहां के ट्रेडिशन को ध्यान में रखते हुए फिल्मों में ऐसे सीन्स बदले या हटा दिए जाते हैं।
2017 के पहले तक गानों को भी नहीं रखा जाता था। हालांकि अब हम वहां के सॉन्ग्स को भी नए लिरिक्स के साथ डब कर रहे हैं। इसके लिए अच्छे सिंगर्स और लिरिक्स राइटर भी हायर करते हैं। आप खुद देखिए, पुष्पा के गाने कितने बड़े हिट हुए थे।’
हमने वहां मौजूद एक डबिंग आर्टिस्ट से भी बात की। वो 100 से ज्यादा फिल्मों में अपनी आवाज दे चुके हैं। उन्होंने अपना नाम कृष्णा बताया। कृष्णा ने कहा कि वो काफी साल से गोल्डमाइंस फिल्म्स के साथ जुड़े हुए हैं। उन्होंने पुष्पा, कबाली, जेलर और हाल ही में रिलीज हुई फिल्म लियो के लिए डबिंग की है।
गोल्डमाइंस फिल्म्स में कुल 140 लोग काम करते हैं। उनके पास राइटर्स और डायरेक्टर्स का एक सेट है। साउथ फिल्मों को डब करने से पहले एक दो चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। अगर एक्शन फिल्म है तो उसी हिसाब के राइटर्स का चुनाव होता है। कॉमेडी फिल्म है तो कॉमिक सीन लिखने वाले राइटर्स को काम पर लगाया जाताहै। राइटर्स सीक्वेंस के हिसाब से डायलॉग लिखते हैं और फिर डबिंग आर्टिस्ट इसी मुताबिक फिल्म को डब करते हैं।
वहां कई सारे डबिंग स्टूडियोज थे। जब हम वहां पहुंचे तो एक तेलुगु फिल्म जापान की डबिंग चल रही थी। डबिंग स्टूडियो में एक डायरेक्टर और साउंड इंजीनियर बैठे हुए थे। डायरेक्टर सामने लगी टीवी पर ओरिजिनिल फिल्म के सीन्स देखकर उन्हें हिंदी में दोहरा रही थीं।
सामने हेडफोन लगाए डबिंग आर्टिस्ट, डायरेक्टर की लाइन्स को ध्यान से सुनकर उसे इमोशंस के साथ डब कर रहा था। इसके बाद वहां मौजूद साउंड इंजीनियर उसे रिकॉर्ड करता है और उसे फिल्टर कर फिल्म के साथ जोड़ता है।
मनीष शाह के अल्लू अर्जुन, रामचरण, धनुष जैसे कई बड़े स्टार्स के साथ बहुत अच्छे संबंध हैं। अल्लू अर्जुन की फिल्म पुष्पा को मनीष की कंपनी गोल्डमाइंस फिल्म्स ने ही हिंदी में डब किया था। हिंदी बेल्ट में फिल्म की लोकप्रियता की एक वजह मनीष शाह भी हैं। पुष्पा का फेमस डायलॉग झुकेगा नहीं…मनीष ने ही लिखा था।
उन्होंने कहा, ‘एक चीज जो साउथ के एक्टर्स में अच्छी लगती है, वो ये कि यहां की तुलना में वे बहुत कम फीस चार्ज करते हैं। वे चाहते हैं कि प्रोडक्शन पर ज्यादा पैसे खर्च हों ताकि फिल्म अच्छी बन सके। वहां के एक्टर्स एक साल में एक या दो फिल्में करना पसंद करते हैं। इससे दर्शकों के बीच उनका क्रेज बना रहता है। इसी वजह से आप देखिए कि जब उधर फिल्में रिलीज होती हैं तो एक अलग तरह का माहौल बनता है। थिएटर्स के बाहर लंबी-लंबी लाइनें लगती हैं। पोस्टर्स पर दूध चढ़ाए जाते हैं।
इसके अलावा साउथ के एक्टर्स जमीन से काफी जुड़े होते हैं। आप उनसे जब भी मिलेंगे, वो आपके साथ हाथ मिलाएंगे। वो चाहे जितने भी बड़े हो जाएं, एक बार हाथ मिला लिया तो हमेशा गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए ही मिलेंगे। साउथ के एक्टर्स को आप नॉर्मली जूते पहने नहीं देखेंगे। वो चप्पल में ही रहते हैं। भगवान को बहुत मानते हैं, अपने कल्चर का बहुत सम्मान करते हैं।’
मनीष ने आगे कहा, ‘पुष्पा के साथ एक दिलचस्प बात यह है कि हमने पहली बार किसी एक्टर से डबिंग कराई है। अल्लू अर्जुन की आवाज को हिंदी में श्रेयस तलपड़े ने डब किया था। अमूमन वॉयस ओवर आर्टिस्ट ही एक्टर्स की डबिंग किया करते हैं।’
एक्टर से डब कराने के पीछे एक अलग सोच थी। मनीष का मानना था कि अल्लू अर्जुन जिस फील के साथ डायलॉग बोल रहे हैं, उसे एक एक्टर ही अच्छी तरह समझ पाएगा। श्रेयस तलपड़े इसे बेहतर ढंग से पकड़ पाए।
कभी 5 लाख में लिए राइट, आज 25 से 40 करोड़ में एक फिल्म खरीदते हैं
कभी 5 लाख रुपए में फिल्म के राइट खरीदने वाले मनीष शाह आज एक फिल्म के लिए 25 से 40 करोड़ रुपए खर्च करते हैं। मनीष ने कहा कि उन्होंने थलपति विजय की फिल्म लियो के राइट्स 25 करोड़ रुपए में खरीदे हैं।
इसके बाद डबिंग से लेकर एडिटिंग तक का खर्चा अलग से जोड़ लीजिए। आज के वक्त में एक बड़ी साउथ इंडियन फिल्म को हिंदी ऑडियंस तक लाने में तकरीबन 50 करोड़ रुपए का खर्चा आ रहा है।
फिल्म की एडिटिंग कैसे होती है, यह देखने के लिए हम एडिटिंग रूम में भी गए। वहां किसी फिल्म की फाइनल एडिटिंग चल रही थी। वहां मौजूद एडिटर ने बताया कि उनके पास सारी फिल्में डबिंग और मिक्सिंग के बाद आती हैं जिसके बाद वो उसमें कांट-छांट करते हैं।